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वाइब्रेंट गुजरात; एक ताश का महल

इस तरह के निवेश सम्मेलनों में किए गए वादे गुजरात और पूरे देश में केवल 25 फीसदी ही पूरे हुए हैं। 2007 के बाद से निवेश की घोषणाएं सबसे कम हुई हैं।
Vibrant Gujarat investment summit
Image Courtesy: ndtv

एक और वाइब्रेंट गुजरात निवेश शिखर सम्मेलन अहमदाबाद में संपन्न हो गया। जहां भारतीय उद्योग जगत के सभी बड़े नाम- अंबानी, अडानी, बिड़ला, टाटा आदि ने गुजरात में निवेश की बड़ी घोषणाएं कीं, जो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी कॉर्पोरेट फ्रेंडली सरकार की गाल बजाही के सिवा कुछ भी नहीं। क्या यह उच्च रोजगार हीनता, तड़क-भड़क वाले निवेश, कम क्षमता के उपयोग और औद्योगिक उत्पादन को ठप करने की त्रासदी की गाथा नहीं हैं, इस तरह के शिखर सम्मेलन का होना मौजूदा स्थिति के लिए एक नाटक से कम नही है। लेकिन फिर, मोदी सरकार की ट्रेडमार्क शैली - घटनाओं और बयानबाजी पर ज्यादा टिकी हुई, जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है।

इस मौजूदा नौवें वाइब्रेंट गुजरात शिखर सम्मेलन में, पहले दिन ही, मुकेश अंबानी ने घोषणा की कि रिलायंस अगले 10 वर्षों में 3 लाख करोड़ रुपये का निवेश करेगा, गौतम अडानी जो कथित तौर पर मोदी के करीबी हैं, ने कहा कि वे 55 000 करोड़ रुपये का निवेश करेंगे, और कुमारनगलम बिड़ला ने 15,000 करोड़ रुपये के निवेश की योजना की घोषणा की। अन्य लोगों ने भी इसी तरह की घोषणा की, और इसी तरह की ऊंची घोषणाओं का महौल अंतिम दिन तक जारी रहा

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों से पता चलता है कि 2016 तक, गुजरात में ऐसे निवेश शिखर सम्मेलन में 4.1 लाख करोड़ रुपये (2003 से) के वादे किए गए थे, लेकिन उनमें से केवल 25 प्रतिशत ही वास्तव पूरे हो पाये। उद्योग जगत के कप्तानों को एक साथ लाने का यह सिलसिला जो नरेंद्र मोदी और उनके शासन की प्रशंसा करते हैं, अपनी अगली उड़ान से पहले शानदार निवेश का वादा करने वाले इस तरह के मॉडल को मोदी के शासन के तहत पिछले पांच वर्षों में कई भाजपा शासित राज्यों में अपनाया गया है। उभरता हरियाणा, मोमेंटम झारखंड, रिसर्जेंट राजस्थान और इसी तरह के नामों के साथ इन्हें आयोजित किया गया है। लेकिन इस तरह के हर समारोह की कहानी एक ही है – जहां दिखाने के लिए बहुत कुछ नहीं है जब एक बार धूल जम गई और शामियाने उखड़ गए।

कठोर वास्तविकता यह है कि सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार नई निवेश घोषणाएं 12 साल के सबसे निचले स्तर पर हैं। (नीचे चार्ट देखें)

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दिसंबर 2018 में समाप्त होने वाली तिमाही में, सीएमआईई द्वारा ट्रैक की गई निवेश की घोषणाएं केवल 48.1 लाख करोड़ रुपये की थीं, जबकि दिसंबर 2007 की तुलना में जब इस तरह की घोषणाएं हुईं तो वह 47.8 लाख करोड़ रुपये की थीं। यहां यह भी याद रखें कि, 2007-08 वैश्विक वित्तीय संकट के वर्ष थे।

औद्योगिक विकास के अन्य संकेतक भी लाल रंग में रंगे हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक के OBICUS (क्षमता उपयोग और अन्य संकेतकों के सर्वेक्षण) के अनुसार, स्थापित औद्योगिक क्षमता का केवल 73.8 प्रतिशत ही 2018-19 की पहली तिमाही में उपयोग किया गया। जून 2014 से शुरू हुए मोदी के शासन के दौरान, दो तिमाहियों को छोड़कर सभी तिमाहियों में क्षमता का उपयोग 75 प्रतिशत से नीचे रहा है।

औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी), जो उद्योग प्रदर्शन कैसा हो रहा है पर नज़र रखता है, उसने भी यह मापा है कि नवीनतम नवंबर 2018 के आंकड़ों के अनुसार वृद्धि का प्रदर्शन बहुत धीमा रहा है, जिसमें साल दर साल विकास दर केवल 0.5 प्रतिशत रही है।

बैंकिंग क्षेत्र में संकट (खराब ऋणों के विस्फोट) के कारण उद्योग के लिए ऋण स्वाभाविक रूप से आंशिक रूप से लाल झंडी दिखा रहा है, लेकिन यह स्थिति अनिवार्य रूप से उत्पादन में बीमार विकास और क्षमता का विस्तार करने के लिए औद्योगिक व्यवसायों की अनिच्छा के कारण भी है।

और, ज़ाहिर है कि सीएमआईई के अनुसार, केवल 2018 में ही एक करोड़ से अधिक नौकरियों खो गयी जो कि सबके लिए चौंका देने वाला तथ्य है। पिछले कुछ वर्षों में, कार्य सहभागिता की दरों में लगातार गिरावट आई है, जो कि वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था में आने वाली प्रणालीगत संकट को दर्शाती है, यह एक उग्र कृषि संकट के साथ-साथ औद्योगिक ठहराव के जुड़वां और परस्पर कारकों के कारण हुआ है।

इस धूमिल परिदृश्य में, भव्य निवेशकों के शिखर सम्मेलन के झूठे वादे और अतिशयोक्ति से क्या उम्मीद की जा सकती है। हालाँकि, नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगियों को इस तरह के मेगा-इवेंट्स के आयोजन से निकलने वाली प्रशंसा की कविता के बजाय जमीन से आवाज़ सुनने का काम करते तो शायद कुछ अच्छा हो जाता।

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