Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

विपक्ष के लिए अपनी विचारधारा को जानना और जीना ज़रूरी

सत्ताधारी दल अपनी वास्तविक वैचारिक प्रतिबद्धताओं को साकार करने में लगा हुआ है इसलिए विपक्ष को यह सिद्ध करना होगा कि चुनाव के दौरान युवाओं, महिलाओं, किसानों और मजदूरों के लिए उसके द्वारा दर्शाई गई प्रतिबद्धता महज चुनावी जुमला नहीं थी। सामाजिक समानता और समरसता के लिए उसकी प्रतिबद्धता यथावत है।
फाइल फोटो
फाइल फोटो। साभार : NDTV Khabar

मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के प्रारंभिक दिनों में ही यह स्पष्ट संकेत दे रही है कि शिक्षा, विनिवेश, निजीकरण, आंतरिक सुरक्षा जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दों पर वह अपनी विचारधारा के अनुसार कई ऐसे दूरगामी महत्व के निर्णय लेने जा रही है जिनके क्रियान्वित होने के बाद दक्षिणपंथ और नवउदारवाद की ओर देश का झुकाव इतने निर्णायक रूप से हो जाएगा कि फिर वहां से वापसी यदि असंभव नहीं होगी तो कठिन व दुस्साध्य अवश्य होगी। ऐसे समय एक सशक्त विपक्ष की महती आवश्यकता का अनुभव होता है। एक ऐसा विपक्ष जो सत्तारूढ़ दल की विचारधारा का एक सशक्त विकल्प प्रस्तुत कर सके, जो जनता को यह बता सके कि इस राह पर चलकर अंततः वह कहां पहुंचेगी।

यह एक शाश्वत सत्य है कि धर्म और राजनीति का घालमेल प्रजातंत्र, मानवाधिकारों, शांति, स्थिरता और विकास का सबसे बड़ा शत्रु है। इतिहास में जाकर हम 1560 से 1715 के बीच धार्मिक युद्ध की अग्नि में जलते यूरोप को देख सकते हैं। आज भी इस्लामिक देशों में जहां राजनीतिक शासन व्यवस्था प्रायः धार्मिक कानून के द्वारा संचालित होती है अधिकांशतया तानाशाही या अर्द्ध तानाशाही वाले कमजोर प्रजातंत्र के दर्शन होते हैं। हिंसा, रक्तपात और गृह युद्ध तथा मानवाधिकारों का उल्लंघन इन देशों में आम होता है। यदि हमारा देश भी विश्व के अनेक देशों की उदार लोकतांत्रिक परंपराओं को आत्मसात करने के वाले हमारे संविधान के स्थान पर मनु स्मृति जैसे किसी ग्रंथ के आधार पर संचालित होने लगेगा तो हमारी नियति भी कुछ भिन्न नहीं होगी। आर्थिक मोर्चे पर भी नव उदारवाद के अच्छे बुरे परिणामों को समझने के लिए लैटिन अमेरिकी देशों के आर्थिक मॉडल के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि समृद्धि की उम्मीद किस तरह बदहाली में बदल सकती है। यह भी आश्चर्यजनक है कि 25 वर्षों पूर्व हुए भयानक अनुभव के बावजूद अनेक लैटिन अमेरिकी देशों में नव उदारवाद को पुनः जोर शोर से सारी आर्थिक समस्याओं के समाधान के रूप में पेश किया जा रहा है और कई देशों में नव उदारवादी नेतृत्व सत्ता में भी है। इस बात को लेकर ढेरों तर्क दिए जा सकते हैं कि भारत लैटिन अमेरिकी देशों से ज्यादा वृहत और संभावनाओं से भरा देश है। किंतु नव उदारवाद में विकास नए बाजारों और नए आर्थिक उपनिवेशों की खोज की एक निरन्तर प्रक्रिया का एक अस्थायी पड़ाव मात्र होता है और अंततः कर्ज का भारी बोझ, घोर मंदी, बेरोजगारी, विनष्ट पर्यावरण तथा बहुसंख्यक आबादी के लिए अनुपयोगी समृद्धि ही इसका प्रतिफल होते हैं। 

सत्ताधारी दल अपनी वास्तविक वैचारिक प्रतिबद्धताओं को साकार करने में लगा हुआ है और शायद यह प्रक्रिया बिना शोर शराबे के संपन्न भी हो जाए क्योंकि प्रधानमंत्री अपने सांसदों और मंत्रियों को चुप रहने का परामर्श दे चुके हैं, विपक्षी दल अभी अपनी अपनी पार्टी के नेताओं और बाहर के सहयोगियों पर दोषारोपण में व्यस्त हैं । मीडिया पहले की तरह सत्ता के साथ है और कांग्रेस जैसे मुख्य विपक्षी दल मीडिया से दूरी बनाकर उसे नैतिक अपराधबोध से भी मुक्त करने में योगदान दे रहे हैं।

विपक्ष को यह सिद्ध करना होगा कि चुनाव के दौरान युवाओं, महिलाओं, किसानों और मजदूरों के लिए उसके द्वारा दर्शाई गई प्रतिबद्धता महज चुनावी जुमला नहीं थी। सामाजिक समानता और समरसता के लिए उसकी प्रतिबद्धता यथावत है। धर्म निरपेक्षता की अवधारणा की अपनी व्याख्या के प्रति वह दृढ़ है। संविधान की मूल भावना को पुनर्परिभाषित करने की किसी भी चतुर रणनीतिक कोशिश का वह पुरजोर  विरोध ही करेगा। चुनावों के समय कांग्रेस का घोषणा पत्र और पूरे चुनाव प्रचार को गरीबी, बेरोजगारी तथा किसानों, मजदूरों और छोटे व्यापारियों पर केंद्रित करने की राहुल गांधी की कोशिश भले ही नाकाम रही हो लेकिन इसका कारण इन मुद्दों की अहमियत में कमी तो बिल्कुल नहीं थी। राहुल अपनी कैजुअल, पार्ट टाइमर और रिलक्टेंट पॉलिटिशियन की छवि को तोड़ पाने में विफल रहे। हिंदी भाषा और स्मरण शक्ति की उनकी सीमाएं बार बार उजागर होती रहीं। कांग्रेस के गौरवशाली इतिहास के प्रति उनकी अल्पज्ञता हमेशा खटकती रही। प्रधानमंत्री उनके यशस्वी पूर्वजों को उन भूलों के लिए दोषी ठहराते रहे जो उन्होंने की नहीं थीं। राहुल के भाषणों में ऊबा देने वाली यांत्रिकता और दुहराव के दर्शन होते रहे। जब भी कोचिंग मैनुअल में दर्शाई गई परिस्थितियों से अलग कोई परिस्थिति सामने आई राहुल असहाय नजर आए। मोदी जी की रणनीति राहुल को एक कैरीकेचर के रूप में प्रस्तुत करने की थी और राहुल स्वयं को एक कैरेक्टर के रूप में विकसित करने में नाकाम रहे। यदि राहुल अपने चुनाव अभियान में प्रतिक्रियावादी न होते और अपनी मौलिकता बरकरार रखते तो शायद वे अधिक सशक्त विकल्प के रूप में उभर कर सामने आते। किंतु सॉफ्ट हिंदुत्ववादी छवि बनाने की उनकी कोशिश, भाषा के गिरते स्तर की प्रधानमंत्री द्वारा प्रारंभ की गई प्रतियोगिता में उनकी भागीदारी और मोदी जी द्वारा विमर्श में डाले गए मुद्दों पर उनकी आक्रामक प्रतिक्रिया यह दर्शाती रही कि वे मोदी जी के नैरेटिव को कहीं न कहीं महत्वपूर्ण मानते हैं। प्रियंका बहुत अच्छा बोलती हैं और जनता से वार्तालाप की शैली में संबंध स्थापित करने का उनका प्रयास सराहनीय भी था। किंतु राहुल और प्रियंका दोनों को यह समझना होगा कि पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी की तरह जनता से डांट फटकार का अधिकार अर्जित करने हेतु जनता के लिए बहुत कुछ करना भी पड़ता है और अपनी  जिंदगी की सुख सुविधा और निजता को गंवाना भी पड़ता है। कमोबेश यही स्थिति अखिलेश और तेजस्वी की रही। परिवार की राजनीतिक विरासत हासिल करने का युद्ध तो उन्होंने जीत लिया किंतु जनता का विश्वास हासिल करने की लड़ाई में वे नाकाम रहे। मुलायम और लालू के करिश्माई अनगढ़पन और अतार्किकता के पीछे जो चतुर रणनीति और गहन परिश्रम छिपे हैं उनको डिकोड करना अब भी कठिन है। राहुल, अखिलेश और तेजस्वी तीनों ही प्रगतिशील युवा हैं किंतु लगता है इन्होंने अपने पैतृक संगठनों के इतिहास से कोई सबक नहीं सीखा है। कांग्रेस का इतिहास आंदोलनों - अहिंसक और प्रजातांत्रिक आंदोलनों- का इतिहास है जिसने पूरी दुनिया को अपने अधिकार की लड़ाई लड़ने की विधि सिखाई है और समाजवादी तो अपनी आंदोलनकारी प्रवृत्ति के लिए कई बार आलोचना के भी शिकार हुए हैं। मुलायम और लालू जैसे नेताओं की एक पूरी पीढ़ी जेपी आंदोलन की उपज है। किंतु इसके बावजूद अपनी जड़ों से कटे ये युवा नेता नरेंद्र मोदी को एक विपक्षी नेता की तरह हमलावर होने का मौका देते रहे। जन आंदोलन का मार्ग कठिन है। इसमें लाठियां भी खानी पड़ती हैं और जेल भी जाना पड़ता है। किंतु जनता का विश्वास जीतने और विश्वसनीय कार्यकर्ताओं की एक नई एवं समर्पित फौज तैयार करने का यह एक मात्र प्रभावी जरिया है- विशेषकर तब जब आप विपक्ष में हैं, जनता का एक बड़ा हिस्सा उपेक्षित व पीड़ित है और सत्ता पक्ष सफलता के अहंकार में इतना चूर है कि जन आकांक्षाओं की अनदेखी तथा जन आक्रोश की उपेक्षा उसका सहज स्वभाव बनते जा रहे हैं। विपक्ष को मुख्य धारा के मीडिया का अपेक्षित समर्थन और सहयोग नहीं मिल रहा है। सोशल मीडिया के युद्ध में सत्ता पक्ष ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी है। तब सविनय अवज्ञा और असहयोग जैसे अस्त्र ही विपक्ष के लिए उपयोगी होंगे। गांधी युग में तो संचार माध्यमों का विकास नहीं हुआ था। सूचना के सम्प्रेषण की तकनीकी युक्तियों की तो तब कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अंग्रेजों द्वारा खबरों को फैलने से रोका जाता था। अखबारों पर प्रतिबंध लगाया जाता था। आंदोलन कर्ताओं और पत्रकारों को जेल में डाल दिया जाता था लेकिन गांधी का कोई भी निर्णय आनन फानन में देश के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच जाता था और जनता उसके अनुपालन में तत्पर हो जाती थी। यही स्थिति थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ जेपी आन्दोलन के समय देखने में आई थी। 

युद्ध में जमीनी लड़ाई को निर्णायक और सबसे महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। जरा परिवर्तन के साथ राजनीति में भी अहिंसक जमीनी संघर्ष का कोई तोड़ नहीं है। अहिंसक और लोकतांत्रिक प्रतिरोध तो हमेशा ही सकारात्मक परिणाम देने वाला होता है। नए भारत के नए मतदाता को मोदी जी ने तकनीकी क्रांति के कुशल प्रयोग से सम्मोहित अवश्य किया है किंतु हर सम्मोहन को एक न एक दिन टूटना ही होता है। जब वर्तमान युवा विपक्षी नेतृत्व अहिंसक आंदोलनों की आंच में तप कर निखरेगा तब उसके भाषणों की टूटी फूटी भाषा और उसके ज्ञान की सीमाएं भी एक अदा बन जाएंगी जिन पर जनता फ़िदा होगी। नेक नीयत, ईमानदारी और सच्चाई में वह ताकत होती है कि इन्हें संप्रेषित होने से कोई रोक नहीं सकता। यह सोशल मीडिया पर फैलाई जाने वाली किसी भी फेक न्यूज़ से अधिक तेजी से वायरल होती हैं। विपक्ष को यह बात जाननी और माननी होगी।

 परिवारवाद पर आक्रमण मोदी की चुनावी रणनीति का अहम हिस्सा रहा। परिवारवाद चुनावों में असफलता मिलने पर चर्चा में आता है और यह तब और खटकने लगता है जब वर्तमान उत्तराधिकारी अपने महान पूर्वजों की गौरवशाली विरासत को संभालने के योग्य नहीं दिखता। लेकिन यह भी ध्रुव सत्य है कि नायक पूजा और परिवारवाद भारतीय राजनीति का स्थायी भाव रहे हैं। यह देखना हमेशा दुःखद रहा है कि कांग्रेस पार्टी का बौद्धिक नवनीत अपनी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ राहुल गांधी में उन गुणों की तलाश में लगा देता है जो उनमें हैं नहीं। उनके अपरिपक्व निर्णयों को सही सिद्ध करने की कोशिश में ही पार्टी के रणनीतिकार लगे दिखते हैं। जब राहुल शीर्ष कांग्रेसी नेताओं पर वर्तमान चुनावों में परिवारवाद को प्रश्रय देने का आरोप लगाते हैं तो उनके कथन के खोखलेपन को उजागर करने के लिए किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं होती। कांग्रेस द्वारा अपनी पराजय की समीक्षा राहुल को दोषमुक्त करने के अभियान में बदलकर रह गई है। परिवारवाद से आंतरिक लोकतंत्र की ओर संक्रमण कांग्रेस के लिए आवश्यक है किंतु यह स्वैच्छिक होना चाहिए किसी दबाव या हताशा का परिणाम नहीं। कांग्रेस के अंदर योग्य नेतृत्व और स्वतंत्र चिंतन दोनों को पनपने नहीं दिया गया है। जब कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व बहुत मजबूत था तब हर उस नेता के पर काट देने की रणनीति कारगर हो सकती थी जिसका जनाधार था और जो आगे चलकर केंद्रीय नेतृत्व को चुनौती दे सकता था। पार्टी को कमजोर कर केंद्रीय नेतृत्व को सशक्त बनाने की इस रणनीति के कारण आज स्थिति यह है कि राहुल के हटने पर जो शून्य पैदा होगा उसे भरने के लिए कांग्रेस के पास कोई नेता नहीं है। नेतृत्व शून्यता की यह स्थिति कांग्रेस में बिखराव पैदा करेगी और नायक पूजा के अभ्यस्त कांग्रेसी नेता लंबे संघर्ष के पथ के स्थान पर मोदी जी की शरणागति का मार्ग चुनेंगे। राहुल को यह भी सोचना होगा कि अपनी तमाम सीमाओं के बाद भी वे नेहरू जी की उस वैचारिक विरासत का प्रतिनिधित्व करते हैं जो आज भी बहुसंख्यकवाद पर आधारित संकीर्ण राष्ट्रवाद के विरोध में खड़ी है। नेहरू के न रहने के साढ़े पांच दशक बाद भी उनके विचारों में वह शक्ति है कि धर्म और राजनीति का निर्लज्ज गठजोड़ मुमकिन नहीं हो पा रहा है और उन पर वैसे ही आक्रमण हो रहे हैं जैसे उनके सशरीर उपस्थित होने पर होते। कांग्रेस को परिवारवाद से मुक्त करने का उत्तरदायित्व भी राहुल गांधी पर ही है। यह प्रक्रिया तभी सफल होगी जब यह स्वैच्छिक, क्रमिक और सहज होगी। यह स्वाभाविक रूप से समय साध्य तो होगी ही। इसमें एक दशक भी लग सकता है। तब तक राहुल को दृढ़तापूर्वक डटे रहना होगा और इस बदलाव को क्रियान्वित और नियंत्रित करना होगा। सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और उन जैसे तमाम परिश्रमी और जुझारू युवा नेताओं को महज इस कारण नेतृत्वकारी स्थिति और सत्ता में भागीदारी से वंचित रखने से काम नहीं चलेगा कि वे कभी राहुल का विकल्प बन सकते हैं।

इस चुनाव में विपक्ष का आकलन यह था कि मोदी सरकार के विरुद्ध जन असंतोष इतना अधिक है कि जनता विभाजित विपक्ष के आपस में जूतम पैजार करते, एक दूसरे के विरुद्ध चुनाव लड़ते, विष वमन करते, अपनी योग्यता से अधिक महत्वाकांक्षी नेताओं में से किसी एक को ही चुनेगी। उसके बाद निम्न स्तरीय सौदेबाजी से कोई न कोई सरकार बन ही जाएगी। कागजों पर जातियों के आंकड़ों को जोड़ कर अपनी सुनिश्चित विजय की भविष्यवाणी भी कर ली गई और तदनुसार प्रधानमंत्री पद के लिए हास्यास्पद ढंग से जोड़ तोड़ भी शुरू हो गई और अपने अपने दावे किए जाने लगे। उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपना जनाधार बढ़ाने और संगठन मजबूत करने की वह कवायद शुरू की जो दरअसल वर्षों पहले प्रारंभ कर दी जानी थी। कांग्रेस का वर्तमान प्रयास जल्दबाजी में उठाया गया एक असफल कदम सिद्ध हुआ जिसने जनता में भ्रम ही फैलाया। कांग्रेस में वह विनम्रता नहीं दिखी जो इतनी पराजयों और घटते जनाधार के बाद दिखनी चाहिए थी। कोई चुनाव पूर्व गठबंधन रूपाकार नहीं ले पाया। न्यूनतम साझा कार्यक्रम और भावी सरकार की निश्चित रूप रेखा के अभाव में विकल्प के रूप में विपक्ष स्वयं को प्रस्तुत ही नहीं कर पाया। जनता के सामने मोदी जी के रूप में जो एकमात्र विकल्प था उसे चुनना उसकी विवशता थी। 

शायद कांग्रेस ने एक चुनावी रणनीति के तौर पर ही गरीबी, बेरोजगारी तथा किसानों, छोटे व्यापारियों और मजदूरों की समस्याओं को चुनावी मुद्दा बनाया। किंतु वाम दलों के नेतृत्व में देश में स्थान स्थान पर जारी विशाल जन आंदोलनों की पृष्ठभूमि में सरकार को चिंतित करने के लिए यह काफी था और उसे ताबड़तोड़ घोषणाओं का सहारा लेना पड़ा। किसान पेंशन योजना, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना, छोटे व्यापारियों व असंगठित मजदूरों के लिए पेंशन, किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने का वादा आदि इस बात के उदाहरण हैं कि सरकार जन दबाव के आगे झुकने को मजबूर हुई। सरकार के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में भी किसान और बेरोजगार चर्चा में हैं। मोदी जी की वर्तमान चुनावी सफलता में नेशनल सेंटीमेंट और कल्चरल सेंटिमेंट को उभारने की रणनीति का योगदान रहा। मोदी जी का जोर अपने पक्ष में परसेप्शन बनाने पर अधिक रहा डिलीवरी पर कम। जिन योजनाओं में उन्होंने टारगेटेड डिलीवरी सुनिश्चित की वे योजनाएं भी मतदाता को भावनात्मक स्तर पर अपील करती थीं न कि उसके जीवन में निर्णायक और स्थायी परिवर्तन लाती थीं। किंतु मोदी जी का काम अब देश की जनता के आर्थिक जीवन में सकारात्मक बदलाव किए बिना चलने वाला नहीं है। भारत 5.8 प्रतिशत की वृद्धि दर के साथ सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था का अपना दर्जा गंवा चुका है। बेरोजगारी की दर पिछले 45 वर्षों के उच्चतम स्तर पर है। डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत का दशकों पुराना विशेष कारोबार पार्टनर का दर्जा छीन लिया है। मोदी और ट्रम्प के राष्ट्रवाद परस्पर टकरा रहे हैं। अमेरिका भारत की अर्थ नीति को प्रो इन्वेस्टमेंट एंड एन्टी ट्रेड बताता रहा है। मोदी जी पर संरक्षणवादी होने के आरोप लगते रहे हैं। पुतिन और जिनपिंग की नीतियां भी संरक्षणवादी ही मानी जाती हैं। विश्व व्यापार संगठन इस बात पर निरंतर दबाव बना रहा है कि भारत अपने खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम में कटौती करे और कृषि सब्सिडी को समाप्त करे। अनेक अर्थशास्त्री यह सुझाव दे रहे हैं कि भारत ट्रेड वॉर का फायदा उठाकर अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकता है बशर्ते वह अपने दरवाजे मुक्त व्यापार के लिए खोल दे। मोदी जी को विश्व के ताकतवर देश जिस प्रकार महत्व देते रहे हैं उसके पीछे भारत के विशाल बाजार पर कब्जा कर अपने देश की मंदी से निजात पाने की इच्छा भी एक प्रमुख कारण रही है। आने वाला समय आम लोगों के लिए मुसीबत भरा हो सकता है। इन परिस्थितियों में एक सशक्त विपक्ष राष्ट्रीय आवश्यकता बन जाता है। विपक्ष का वर्तमान रवैया तो यह संकेत देता है कि वह राष्ट्रहित से अधिक चुनावी परिदृश्य पर ध्यान दे रहा है। अगले लोकसभा चुनावों में बहुत वक्त है। विपक्ष यह सोच रहा लगता है कि जनता को उसके गलत चयन की सजा मिले, वह असंतुष्ट हो। विपक्ष को शायद यह भी लगता है कि जनता की स्मृति इतनी क्षणभंगुर होती है कि अभी से उसके लिए कुछ करने पर वह भूल जाएगी। जब चुनाव में एक डेढ़ वर्ष शेष रहेगा तब जनता को लुभाने की कवायद करना ठीक रहेगा। विपक्ष अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को लेकर ही संशय में है। मोदी जी की विचारधारा से असहमति के बावजूद इस बात के लिए उनकी प्रशंसा करनी होगी कि वे अपने विचारधारा के प्रचार प्रसार के लिए पूर्णतः समर्पित हैं और अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने विरोध के बावजूद अपनी विचारधारा से बहुत कम समझौते किए हैं। जबकि विपक्ष के मोदी विरोध में मोदी की प्रशंसा का भाव और उनके अनुकरण की प्रवृत्ति इस तरह समाई हुई है कि वह अपने वैचारिक आधार को त्यागने के निकट पहुंच जाता है। हम एक विकल्पहीनता की स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं जो न देश के लिए हितकर है न विपक्ष के लिए लाभदायी है। खेल के क्षेत्र में यह कहा जाता है कि जब अपना फॉर्म अच्छा न हो, प्रतिद्वंद्वी जटिल रणनीतियों द्वारा बार बार हमारी कमजोरियों को उजागर कर उनका लाभ ले रहा हो तब हमारे सामने सबसे बेहतर विकल्प यही होता है कि हम बेसिक्स की ओर वापस लौटें, कठिन परिश्रम करें और अपने मजबूत पक्ष पर अधिक ध्यान दें। यही विपक्ष को भी करना होगा।

( लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest