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सीएए-विरोधी आंदोलन के कार्यकर्ताओं को ‘बाहरी’ क्यों कहा जा रहा है

मोदी सरकार हर विरोधी को "बाहरी" क़रार क्यों दे रही है और किसी भी संकट की ज़िम्मेदारी लेने से इनकार क्यों कर रही है।
सीएए-विरोधी आंदोलन

दिल्ली की संगठित सांप्रदायिक हिंसा के मामले में दिल्ली पुलिस की जांच नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी), और संबंधित राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के खिलाफ हुए प्रतिरोध और फरवरी में हुई घातक हिंसा के बीच एक कड़ी जोड़ती है। इसके कारण और प्रभाव और विरोध करने के लोकतांत्रिक अधिकार पर बहुत सी स्याही बहाई जा चुकी है। लेकिन इससे जुड़े एक अन्य दावे के बारे में बहुत कम कहा गया है: वह है, तथाकथित "दंगे की साजिश" में "बाहरी लोगों" की भूमिका।

हाल ही में, दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा ने दिल्ली विश्वविद्यालय (DU) के प्रोफेसर अपूर्वानंद से हिंसा उकसाने के बारे में पूछताछ की है। यह एक तरह से मीडिया जांच (Media Trial) में बदल गया है, और उन्हे दिल्ली के "दंगो की साजिश" के पीछे का "मास्टरमाइंड" बताया जाने लगा। उनसे पहले, पिंजरा तोड़ की कार्यकर्ता देवांगना कलिता और नताशा नरवाल को गैरकानूनी सभा, हत्या की कोशिश, दंगों के लिए उकसाने और "साजिश" करने के आरोपों के तहत गिरफ्तार किया गया था। साथ ही, एक स्थानीय विपक्ष के नेता और सीलमपुर की कम्यूनिटी संगठक, गुलफिशा फातिमा पर, तथाकथित गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (UAPA) के तहत कथित साजिश को ‘अंजाम’ के आरोप लगाए गए है।

हालाँकि, दिल्ली पुलिस को इनमें से किसी भी आरोप को साबित करने के लिए विश्वसनीय सबूत पेश करना बाकी है, लेकिन गोदी मीडिया की मदद से, इसने इन "बाहरी लोगों" के बारे में एक भ्रामक कथा का सफलतापूर्वक उत्पादन किया है, जो मुस्लिम महिलाओं को धरने आयोजित करने के लिए उन्हे निशाना बनाती है।

बाहरीकरार देने का प्रवचन

इस कहानी को एक तैयार दर्शक मिल गया है, सिर्फ केवल इसलिए नहीं कि मुस्लिम महिलाओं की लामबंदी सत्ता की कल्पना को परेशान करती है। वास्तव में, संदिग्ध "बाहरी व्यक्ति" का विचार हमारे दिमाग में कठोरता जड़ा हुआ है। जब बेटियाँ पितृसत्तात्मक सत्ता को चुनौती देती हैं, तो दोष अक्सर परिवार के दोस्तों-बाहरी लोगों के "बुरे प्रभाव" पर डाल दिया जाता है। जब देश भर के कॉलेजों की सैकड़ों महिलाओं ने हॉस्टल कर्फ्यू या अपने कैंटीन में भोजन की उच्च कीमतों का विरोध किया, तो विश्वविधालयों के विभिन्न प्रशासन ने इसे बाहरी लोगों का बुरा  प्रभाव करार दिया। और पाकिस्तान जोकि “शाश्वत बाहरी” है, वह टीवी समाचारों में हमारे देश की कल्पना का शिकार करता रहता है और उसे यानि पाकिस्तान को "राष्ट्र-विरोधी" असंतोष को बढ़ावा देने का श्रेय दिया जाता है।

हर उदाहरण में, बाहरी व्यक्ति के इस प्रवचन के माध्यम से सभी असंतोषों/प्रतिरोधों को खारिज कर दिया जाता है और उसकी जड़े बाहर जमी है कह दिया जाता है। यह उन वास्तविक मुद्दों की अवहेलना करना भी आसान बना देता है जो इस मामले में असंतोष को भड़का रहे होते हैं- मुस्लिम महिलाओं का दावा है कि नया नागरिकता कानून भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के साथ समझौता करता है यानि यह संविधान के मूल ढांचे को चुनौती देता है। फिर इसे भी ‘बाहरी’ प्रभाव बता दिया जाता है।

इसके अलावा, "बाहरी" होने के प्रवचन का आक्रामक आरोप हमें सामाजिक आंदोलनों के अनगिनत उदाहरणों को भुला देता है जो “बाहरी” और “अंदरूनी” के बीच दुविधा को अस्थिर कर आगे बढ़ते हैं। उदाहरण के लिए दहेज विरोधी आंदोलन, जिसे पहले "पारिवारिक मामला" करार दिया जाता है, उसका विरोध करने में पीड़ित परिवार के बाहर की महिलाओं की भागीदारी शामिल होती है। समलैंगिकता को गैर-आपराधिक साबित करने का संघर्ष केवल एलजीबीटी समूहों द्वारा नहीं लड़ा गया, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं और महिलाओं और बच्चों के अधिकारों पर काम करने वाले लोगों द्वारा भी लड़ा गया। ट्रेड यूनियनें नियमित रूप से श्रमिकों की शिकायतों को आवाज देती आई हैं और उनके अधिकारों की तरफदारी करती हैं, लेकिन कई यूनियन नेता खुद श्रमिक नहीं हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में ब्लैक एक्टिविस्ट्स के नेतृत्व में लड़े गए ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन में कलर और श्वेत दोनों लोगों के समुदायों की भागीदारी थी, जो अब प्रदर्शनकारी सहयोगियों के बीच एकजुटता को बढ़ाने की बातचीत कर रहे हैं।

सीएए विरोधी आंदोलन: 

सीएए/एनआरसी/एनपीआर विरोधी आंदोलन में भी इस तरह के "बाहरी लोगों" की भागीदारी दिखी। इसे हिंदू राष्ट्रवाद की मजबूती और मुस्लिम समुदाय पर हाल के अभूतपूर्व हमलों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिस समुदाय को संसदीय राजनीति में हाशिए पर छोड़ दिया गया है। इसने मुख्यधारा की राजनीति में मुस्लिम नेतृत्व की क्षमता को कम किया है और एक प्रभावी रक्षा तंत्र को तैयार करने और प्रतिरोध की एक नई शब्दावली तैयार करने की समुदाय की चाहत को संबोधित करने तक सीमित कर दिया है। यह ऐसी परिस्थितियां और आकांक्षाएं हैं जिनके कारण मुस्लिम महिलाओं को विभिन्न संगठनों के समर्थन का स्वागत करना पड़ा और यहां तक कि बदनामी और हिंसा का सामना करना पड़ा।

उन्हें राजनीतिक रूप से सक्रिय नागरिकों का एक समूह मिला, जो हाल में चल रहे जाति-विरोधी और छात्र आंदोलनों के नेता/कार्यकर्ता थे- जो हिंदुत्व का भी विरोध करना चाहते थे। उनमें से कई लोगों ने भीम आर्मी, जामिया कोऑर्डिनेशन कमेटी, पिंजरा तोड़ और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन के साथ विरोध प्रदर्शन में भाग लिया। इसके साथ उन आम छात्रों और युवाओं ने भी इसमें हिस्सा लिया जो सरकार की संप्रदायवादी जोड़तोड़ और बढ़ती बेरोज़गारी से नाखुश थे। 

इस आंदोलन को "बाहरी लोगों" द्वारा रची गई "साजिश" बताकर खारिज करना गलत था क्योंकि यह एक नई एकजुटता थी जिसे गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया। हिंदुत्व की लैंगिक राजनीति तीन तलाक’ या यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की मांग के मामले में नारीवादी दिखने की कोशिश करती है, लेकिन यह महिलाओं के जीवन और आकांक्षाओं की बहुत कम परवाह करती है, फिर चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम। इस राजनीति का विरोध करने के संघर्ष ने महिलाओं को नारीवादी संगठन या आयोजन को जांचने और उन नागरिक समाज समूहों के साथ जुड़ने जो आमतौर पर विशेषाधिकार प्राप्त सामाजिक स्थानों और सवर्ण पृष्ठभूमि से होते हैं का मौका दिया है।

इसी तरह, उत्तर पूर्वी दिल्ली में छात्रों तथा प्रोफेसरों की उपस्थिति एक उभरती हुई एकजुटता का ऐसा ही एक और उदाहरण था। हालांकि भारतीय छात्रों का विश्वविद्यालयों से परे के आंदोलनों में भागीदारी का एक बड़ा इतिहास रहा है- अपने सबसे बेहतर उदाहरणों के बीच आपातकाल के खिलाफ संघर्ष इसकी मिसाल है- शैक्षिक संस्थानों से हटकर छात्रों की वर्तमान आंदोलनों में भागीदारी सार्वजनिक विश्वविद्यालय के हाल के संरचनात्मक परिवर्तनों में निहित है। निजीकरण और सामाजिक न्याय को पीछे धकेलने की दिशा में तेजी से उठाए जा रहे कदमों के खिलाफ हाल के दिनों में विश्वविद्यालय की एनिमेटेड राजनीति को गति मिली है। वाम, दलित, क्वीर और नारीवादी समूहों ने सामाजिक न्याय के अर्थों और इसे हासिल करने के साधनों पर जमकर बहस चलाई है। उन्होंने विश्वविद्यालयों और आंदोलनों में प्रतिनिधित्व के मुद्दों पर तर्क दिए है। इस तरह की बहसों में, सार्वजनिक विश्वविद्यालय अपने सामाजिक संदर्भों से दूर नहीं हो सकते है, बल्कि इसमें गहराई से जुड़ जाते है। इसलिए, विश्वविद्यालयों से परे राजनीतिक संभावनाओं की तलाश करना इस समझ के लोगों के लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसके अलावा, विश्वविद्यालयों को कॉरपोरेट नौकरशाहों की तरह बनाने की कोशिश ने छात्रों और शिक्षकों में जागरूक नागरिकों बनने की जान डाल दी है।

तनाव के बीच नई एकजुता बनाना:

विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों का एक साथ आना सत्ता के प्रमुख ढांचे के खिलाफ चुनौती हैं, जिससे वैसे भी तनाव पैदा होने की संभावना बढ़ती है। कौन निर्णय लेता है, कौन लाइमलाइट में रहता है, किसके प्रयासों को तरजीह नहीं दी जाती है, कौन अधिक जोखिम उठाता है, और कौन नुकसान से सापेक्ष प्रतिरक्षा करता है, आंदोलन को साझा करने की राजनीति को सत्ता पक्ष की तरफ से गंदी राजनीति का आकार देने की कोशिश की जाती है। सीएए/एनआरसी/एनपीआर विरोधी आंदोलन का संदर्भ भी इस गंदी राजनीति से नहीं बच सका। फिर भी, उन्होंने एक वैकल्पिक राजनीतिक की कल्पना को आकार देने की कोशिश की, जो हिंदुत्व का मुकाबला कर सके- जबकी विपक्षी और जमे हुए राजनीतिक दल इस कार्य को करने में बुरी तरह विफल रहे हैं।

यह उभरती हुई एकजुटता जिसे "बाहरी" बताकर दबाने की कोशिश की जा रही है, बेहद महत्वपूर्ण और पोषण के लायक है। यदि ये गठबंधन जीवित रहने में विफल हो जाते हैं, तो हर कोई हार जाएगा, न कि केवल वे लोग जिन्हें "बाहरी" कहा गया बल्कि हम भी जो इस आंदोलन की मुख्य धार थे और है। और सबसे बड़ा नुकसान उन नौजवानों का होगा जो आज लोकतांत्रिक राजनीति की चुनौतियों का सामना करने के तरीके खोज रहे हैं।

आकाश भट्टाचार्य ने हाल ही में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएचडी पूरी की है। कीर्ति बुद्धिराजा मिनेसोटा विश्वविद्यालय से पीएचडी हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

 

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