अफगानिस्तान पेपर्स दिलाते हैं वियतनाम की याद
नोऑम चॉमस्की ने हाल ही में अपना 91 वां जन्मदिन मनाया। श्रद्धावश वह दिन मैंने चॉम्सकी द्वारा लिखित, एक कम ख़्यात किताब- ''द बैकरूम बॉयज़'' के साथ बिताया। किताब में दो अहम निबंध हैं। पहले में वियतनाम युद्ध पर आधारित पेंटागन पेपर्स का अध्ययन है। हाल ही में अमेरिकी सरकार ने अफगानिस्तान युद्ध पर अपने आंतरिक अध्ययन के लिए कई सारे दस्तावेज़ जारी किए हैं। जिन पर आधारित कई खुलासे वाशिंगटन पोस्ट ने अपनी रिपोर्टों में किए हैं।अगर दोनों को पढ़ा जाए तो पता चलेगा कि कैसे अमेरिकी सरकार ने उन युद्धों के बारे में अपने नागरिकों से झूठ बोला, जिन्हें कभी जीता ही नहीं जा सकता था। अगर आप 'अफगानिस्तान' शब्द को 'विएतनाम' से हटा दें और नोऑम के निबंध को पढ़ें, तो ऐसा लगेगा जैसे वो आज ही लिखे गए हों।
शवों की गिनती
अफगानिस्तान पेपर के एक उद्धरण ने मुझे थमने पर मजबूर कर दिया। ऐसा लगा जैसे कि मैंने इसे पेंटागन पेपर्स में पढ़ा है। 2015 में 'नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल' के एक गुमनाम अधिकारी ने कहा, ''सही आंकड़े बताना नामुमकिन था। हमने प्रशिक्षित सैनिकों की संख्या, हिंसा के स्तर और जीते गए क्षेत्रफल को इस्तेमाल कर देखा, पर किसी से भी सही तस्वीर नहीं बन रही थी।" मिलिट्री असिसटेंस कमांड वियतनाम (MACV) वियतनाम में मारे गए लोगों की संख्या बढ़ाकर बताता रहा, ताकि इससे जीत का पैगाम भेजा जा सके। पेंटागन पेपर्स और टेक्सॉस के ऑस्टिन में स्थित जॉनसन लाइब्रेरी के दस्तावेज़ों से यह बात साफ भी हो जाती है।
MACV में काम करने के दौरान एक एक सैनिक अकसर अपने जनरल के साथ युद्धक्षेत्र में जाया करता था। तोशी व्हेलशेल ने उसके शब्दों का संकलन किया है, इनके मुताबिक़, ''जब हम B-52 बॉमबर की रेड के बाद एक इलाके के ऊपर से गुजरते थे, तो बहुत बड़ी तबाही नज़र आती थी। हमारे लोग प्लॉस्टिक बैग लेकर मारे गए दुश्मनों की संख्या गिनने जाते थे। लेकिन वह लोग शवों के अलग-अलग हो चुके हिस्सों को उठाते और हर हिस्से को एक शव गिन रहे थे।'' इन संख्याओं से वॉशिंगटन में बैठे हुक्मरान खुश होते थे। युद्ध में जीत को दिखाने के लिए इन आंकड़ों का उपयोग किया जाता था।
नापॉम
पेंटागन पेपर्स पर नोऑम के निबंध की शुरूआत अमेरिकी एयरफोर्स के एक पॉयलट के शब्दों से होती है। वह नापॉम के प्रभावों को बता रहा होता है। एक पीढ़ी अच्छी तरह जानती है कि नापॉम क्या था, लेकिन युवा पीढ़ी शायद इस शब्द से वाकिफ़ नहीं होगी। नापॉम अभी तक बनाए गए सबसे घृणित हथियारों में से एक था। पेट्रोलियम जेल पर आधारित इस हथियार का ईंधन इंसान की चमड़ी से चिपक जाता था। कोरियन और विएतनाम के लोगों के खिलाफ नृशंसता से इनका इस्तेमाल किया गया।
नागरिकों पर नापॉम गिराने वाला पॉयलट कहता है,''हम लोग डॉउ (केमिकल्स) में काम करने वाले लोगों से खुश हैं। पुराना उत्पाद अच्छा नहीं था। अगर ''गूक (विएतनामी लोग)'' तेजी दिखाते हैं, तो वह उसे अपनी त्वचा से हटा सकते हैं। फिर डाउ केमिकल्स ने इसमें पोलीस्ट्रीन लगाना शुरू कर दिया। अब यह चमड़ी से ऐसे चिपकता है, जैसे किसी कंबल से चिपक रहा हो। फिर तो यह पानी डालने के बाद भी जलता रहता है।''
इन शब्दों को सुनने के बाद धैर्य की जरूरत होती है। एयरमेन यहां विएतनाम के लोगों के बारे में बात कर रहा है। उसने जिस ''गूक'' शब्द का इस्तेमाल किया, उसे 1898 में अमेरिका द्वारा फिलीपींस पर चढ़ाई के दौरान गढ़ा गया था। इसके बाद गूक शब्द हैती, निकारागुआ, कोस्टारिका और अरब लोगों के लिए इस्तेमाल किया गया। अमेरिकी मिलिट्री और एयरफोर्स जहां भी हमले करतीं, वहां स्थानीय लोगों के लिए इसका प्रयोग किया जाता। यह वह शब्दावली है,जो कभी खत्म ही नहीं होती। अब यह अफगानिस्तान में उपयोग होती है।फिर एयरमेन कहता है कि उसकी मंशा है कि हथियार और भी घातक बने, ताकि नागरिकों के बचने की कोई भी संभावना खत्म हो जाए।
राष्ट्रीय आजादी के युद्ध
वैज्ञानिक हथियार बनाते हैं और विश्लेषक युद्ध पर विमर्श करते हैं। पेंटागन पेपर्स में हैरान करने वाली बात है। दरअसल अमेरिकी सत्ताधारी जानते थे कि वो विएतनाम के लोगों को हरा नहीं पाएंगे, नापॉम और एजेंट ऑरेंज जैसे बर्बर हथियारों का इस्तेमाल भी विएतनाम के लोगों का साहस नहीं तोड़ पाएगा।
1967 में वियतनाम छोड़ने के 8 साल पहले पेंटागन में सिस्टम एनॉलिसिस के डॉयरेक्टर लिखते हैं, ''हम एक ऐसे दुश्मन के खिलाफ हैं, जिसने अमेरिकियों से लड़ने के लिए बेहद ''चालाक रणनीति'' की खोज कर ली है। अगर हम इसे अभी पहचानकर समाधान नहीं करते हैं तो यह भविष्य में बहुत लोकप्रिय हो सकती है।'' यह विश्लेषक यहां आजादी की लड़ाईयों की बात कर रहा है। गुरिल्ला तकनीकों को ही नहीं बल्कि लोगों का ही खात्मा करना होगा। राष्ट्रीय आजादी का सवाल ही नहीं उठता। अमेरिकी सरकार द्वारा अपने नागरिकों से झूठ बोलने की पृष्ठभूमि यही थी। अमेरिका वह युद्ध लड़ रहा था, जो वह जीत नहीं सकता था। क्योंकि उनके विरोध में खड़े विएतनाम के लोग अपनी लड़ाई में यकीन रखते थे। वो तब तक नहीं रुकने वाले थे, जब तक उनके हाथ जीत नहीं आ जाती।
अफगानिस्तानियों के पास वियतनाम के मिन्ह की तरह आजादी के लिए लड़ने वाली कोई सेना नहीं है। उनके पास तालिबान है, जिसकी नृशंसता 1990 के दशक में होने वाली स्थानीय युद्ध सामंतों की लड़ाईयों से निकली थी। लेकिन तालिबान कितना भी नृशंस दिखाई देता हो, वह ऐसी ताकत है जो एक विदेशी आक्रांता के खिलाफ लड़ रही है, जिसकी विषम लड़ाई भी देश के लोगों का मनोबल नहीं बढ़ा पाई है। तालिबान भूमि सुधार या सामाजिक आजादी जैसे वायदे नहीं करता, लेकिन वे स्थानीय आबादी के साथ पैदा होते और मरते हैं। यही बात उन्हें अफगानिस्तान में स्पेशल फोर्स और अफगानिस्तान की नेशनल आर्मी से भी ज्यादा लोकप्रिय बनाती है। तालिबान की ''गंभीर चालाक रणनीति'' यही है कि उसकी जड़े अपने अफगानी भाईयों के बीच हैं, कोई भी बमबारी इस जुड़ाव को खत्म नहीं कर सकती।
कोई अचंभा नहीं
जबसे अमेरिकी सरकार ने ''ऑफिस ऑफ द स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल ऑफ अफगानिस्तान रिकंस्ट्रक्शन (SIGAR)'' बनाया है, तबसे मैंने इसकी सभी रिपोर्टों को पढ़ा है और इसके कई सदस्यों से बातचीत की है।2012-13 में अमेरिकी सेना के ''सीनियर काउंटरइंसर्जेंसी एडवाइजर'' रहे कर्नल बॉब क्राउली ने SIGAR के शोधार्थियों को बताया,''हर डेटा प्वाइंट को अच्छी तस्वीर बयां करने के लिए बदला गया है। यहां के सर्वेक्षण बिलकुल भी भरोसे लायक नहीं हैं। उनमें जबरदस्ती बताया जाता है कि हम जो कर रहे हैं, वह सब सही है।''
क्राउली ने बताया कि ''सच'' को काबुल में अमेरिकी मुख्यालय और वाशिंगटन में भी नापसंद किया जाता है। अमेरिकी सरकार अफगानिस्तान में अपनी जंग को सही ठहराने के लिए झूठ बोल रही है। आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। अधिकारियों के शब्दों को बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है।
अफगानियों पर चुप्पी
इन दस्तावेज़ों में हुई रिपोर्टिंग में अफगानियों की तरफ से कुछ भी नहीं है। नाराजगी में बस यही है कि अमेरिकी सरकार अपने नागरिकों को उस युद्ध के बारे में झूठ बोल रही है, जिसकी शुरू से ही कोई उपयोगिता नहीं है। ब्राउन यूनिवर्सिटी के ''कॉस्ट ऑफ वार'' प्रोजेक्ट का इस्तेमाल करते हुए द न्यूयॉर्क टाइम्स ने पूरे एक पेज पर ग्राफिक बनाया। इसमें अफगानिस्तान की जंग के नुकसान को बताया गया था। यह सब ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें नकारा नहीं जा सकता।लेकिन उन अफगानियों के बारे में क्या जिनकी जिंदगी तबाह कर दी गई, जिनकी उम्मीदों को ख़ाक में मिला दिया गया।
अमेरिकी प्रेस कवरेज कहती है कि बुश, ओबामा और ट्रंप प्रशासन ने अमेरिकी जनता से झूठ बोला। लेकिन यह सबकुछ नहीं है। उन युद्ध अपराधों का क्या, जो अफगानी लोगों के खिलाफ किए गए? उन तथ्यों का क्या जो बताते हैं कि बिना लक्ष्य का यह ऑपरेशन अफगानों के खिलाफ किया गया भयंकर अपराध है?
अमेरिकी सरकार, इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट पर लगातार दबाव बनाकर अफगानिस्तान में होने वाले युद्ध अपराधों में कार्रवाई नहीं होने देती। कम से कम उन लाखों अफगानियों के लिए, जिनकी जिंदगी पूरी तरह बर्बाद कर दी गई, उनके लिए किसी को तो खड़ा होना होगा, किसी को जिम्मेदारी तो लेनी होगी। वह विएतनाम और कंबोडिया के अवैध युद्ध में खड़े नहीं हुए और इस जंग में भी खड़े नहीं होंगे। चूंकि उन्हें अपराधों की सजा नहीं मिली, इसलिए अगली जंग होना भी तय है।
1973 में लिखी गई चॉमस्की की किताब एक चेतावनी थी। उन्होंने न्यायिक तौर पर लिखा कि वियतनाम में अमेरिकी युद्ध और इसे सही ठहराए जाने के लिए फैलाया गया झूठ कोई ''मतिभ्रष्ट'' या विपथन का हिस्सा नहीं था। उस चेतावनी को गंभीर तौर पर नहीं लिया गया। अब भी इसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।
(विजय प्रसाद एक भारतीय इतिहासकार, संपादक और पत्रकार हैं। वह इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट द्वारा चलाए जा रहे प्रोजेक्ट Globetrotter में एक राइटिंग फैलो और मुख्य संवाददाता हैं। विजय प्रसाद लेफ्टवर्ड बुक के मुख्य संपादक हैं और ट्राइकांटिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के निदेशक भी हैं।)
सोर्स: इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट,यह आर्टिकल पहले इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट के Globetrotter पर प्रकाशित हुआ था।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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