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उत्तर प्रदेश में भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग तनाव में क्यों है?

केंद्र सरकार द्वारा जाति जनगणना न कराना, ओबीसी नेताओं और ख़ासकर अखिलेश यादव के लिए वरदान साबित हो सकता है, क्योंकि इसके ज़रिए उन्हें अपने सामाजिक आधार को फिर से वापस बनाने का मौक़ा मिल सकता है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा की सामाजिक इंजीनियरिंग तनाव में क्यों है?

भारतीय जनता पार्टी द्वारा जाति-आधारित जनगणना कराने से इनकार करने से पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति तनाव में आ गई है, सोशल इंजीनियरिंग एक ऐसा शब्द है जिसके ज़रीए हिंदुत्व की ताकतें अपनी छत्रछाया में परस्पर विरोधी हितों वाली जातियों को एक साथ लाई थी। बीजेपी के इनकार से समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव को एक बड़ा मौका मिल गया है। उत्तर प्रदेश में नई विधानसभा के चुनाव से छह महीने पहले, वे पार्टी में अन्य पिछड़े वर्गों के उपसमूहों को वापस ला सकते हैं, जिन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से उनसे नाता तोड़ना शुरू कर दिया था।

उत्तर प्रदेश में भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग का एक पहलू उसका यह अभियान था कि समाजवादी पार्टी के नेताओं ने खासकर मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव ने अन्य ओबीसी उपसमूहों की जातियों के मुक़ाबले अपनी जाति के हितों को बढ़ावा दिया था, विशेष रूप से उनमें से सबसे पिछड़े तबके को ऐसा एहसास दिलाया गया था। इस अभियान का लब्बोलुबाव यह था कि गैर-यादव ओबीसी जातियाँ केवल भाजपा की छत्रछाया में ही बेहतर सौदा मिल सकता था। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग स्टडीज द्वारा चुनाव के बाद किए गए सर्वेक्षणों से यह आलोचना सामने उभर कर आई थी, जिस सर्वेक्षण पाया गया था कि 2014 के बाद से भाजपा को गैर-यादव ओबीसी वोटों का सबसे बड़ा हिस्सा लगातार मिला है। 

अखिलेश ने हाल ही में हुई महान दल की एक बैठक के दौरान भाजपा के पिछले अभियान का जिक्र किया, वे वहाँ इस सप्ताह की शुरुआत में मुख्य अतिथि के रूप में गए थे। उन्होंने कहा, 'भाजपा का कहना है कि यादवों का सभी संसाधनों पर कब्ज़ा है। कभी-कभी वे कहते हैं कि जो तुम्हारा था वो हमने तुमसे छीन लिया। आप और मैं सब पिछड़े हैं... समाजवादी पार्टी पिछड़ों की पार्टी है और इसलिए सभी पिछड़ों के हकों की मांग करती है।" महान दल का मौर्य-शाक्य-कुशवाहा-सैनी समुदायों के बीच बड़ा आधार है।

यादव ने तब कहा था कि भाजपा कभी भी जातिगत जनगणना नहीं करा पाएगी। ऐसा इसलिए नहीं होगा क्योंकि जैसे कि कांग्रेस जानती थी और अब भाजपा जानती है कि "कौन अधिक संख्या में है।" यहाँ "कौन" शब्द ओबीसी के संदर्भ में है। और वे सवर्ण जातियों की तुलना में "संख्या में अधिक" हैं, जिसकी तुलना अखिलेश ने स्पष्ट रूप से नहीं की है। इस जनसांख्यिकीय वास्तविकता को जानते हुए भाजपा ने जाति जनगणना की मांग को क्यों ठुकरा दिया है?

जाति जनगणना से कौन डरता है?

यहां इतिहास पर नज़र डालने की जरूरत है। पिछली जाति-आधारित जनगणना 1931 में हुई  थी। मंडल आयोग ने 1931 के आंकड़ों से ओबीसी आबादी का अनुमान लगाया था, जो भारत की आबादी का 52 प्रतिशत था। आयोग ने आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा को अनिवार्य करने वाले कई न्यायिक आदेशों को ध्यान में रखते हुए, सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी, क्योंकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए पहले से ही 22.5 प्रतिशत आरक्षण मौजूद था।

ओबीसी के बीच हमेशा यह भावना रही है कि 1931 के बाद से उनकी आबादी 52 प्रतिशत से अधिक हो गई है। इसलिए उनका तर्क है कि एक नई जाति जनगणना की जरूरत है। 2011 में, एक सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना की गई थी। हालाँकि, इसका जनसंख्या डेटा जारी नहीं किया गया है। ओबीसी नेताओं का मानना ​​है कि डेटा इसलिए जारी नहीं किया गया क्योंकि उनकी आबादी 52 प्रतिशत से अधिक होने की संभावना है। उनका मानना है कि इससे सामाजिक रूप से उन्नत समूहों, मुख्य रूप से उच्च जातियों में डर पैदा हो गया था कि 27 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ाया जाएगा और सामान्य वर्ग का हिस्सा सिकुड़ जाएगा, क्योंकि उच्च जातियां अपनी जनसंख्या प्रतिशत से कहीं अधिक नौकरियां हासिल करती हैं।

ओबीसी नेताओं ने तर्क दिया है कि 52 प्रतिशत से अधिक आबादी वाले समुदायों को 27 प्रतिशत का आरक्षण देना अनुचित है। केवल जाति जनगणना ही इस भावना या धारणा को सत्यापित कर सकती है। 2019 में सामाजिक रूप से उन्नत समूहों के आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए मोदी सरकार ने 50 प्रतिशत की सीमा को हटाने के निर्णय से मांग और अधिक तेज हो गई है। बनाए गए नियमों के तहत, आर्थिक रूप से कमज़ोर (EWS) में सामाजिक रूप से लगभग 95 प्रतिशत लोग आते हैं। कहा जाए तो यह आरक्षण उन्नत समूह के लिए है - न कि 'गरीब' के लिए।

ओबीसी नेता पूछते हैं: यदि पहले से ही विशेषाधिकार प्राप्त उच्च जातियों को लाभ पहुंचाने के लिए आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा को हटाया जा सकता है, तो ओबीसी के लिए आरक्षण का प्रतिशत उनकी आबादी के अनुरूप क्यों नहीं हो सकता है? उनका मानना हैं कि भाजपा उच्च जातियों के हितों का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि वह ओबीसी उपसमूहों का वोट तो चाहती है लेकिन उनके लिए आरक्षण को बढ़ाना नहीं चाहती है, क्योंकि यह केवल सामाजिक रूप से उन्नत समूहों की कीमत पर हो सकता है।

ओबीसी को बांटो, उन पर राज करो

फिर भी भाजपा को संख्यात्मक रूप से छोटी और हाशिए पर रहने वाली जातियों के पक्ष में कुछ दिखावा करना था, जिन्हें सबसे पिछड़े वर्गों के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जो उत्तर भारत में भाजपा के पक्ष में भारी मतदान कर रहे हैं। भाजपा के लिए उन्हें संतुष्ट करने का एकमात्र तरीका ओबीसी को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित करना है और प्रत्येक को 27 प्रतिशत के हिस्से को विभाजित करके आवंटित करना है, एक प्रक्रिया जिसे उप-वर्गीकरण कहा जाता है, जिस पर न्यायमूर्ति जी॰ रोहिणी आयोग पिछले तीन साल से काम कर रहा है। 

मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि ओबीसी को चार समूहों विभाजित किया जा सकता है- इन्हे 1, 2, 3 और 4 में विभाजित किए जाने की संभावना है और 27 प्रतिशत आरक्षण को 2, 6, 9 और 10 प्रतिशत में विभाजित किया जा सकता हैं। इस प्रकार, सरकारी नौकरियों का 2 प्रतिशत विशेष रूप से समूह 1 के लिए आरक्षित होगा। इस समूह में ओबीसी उपसमूह शामिल होंगे जो कि सरकार में बड़े पैमाने पर कम प्रतिनिधित्व रखते हैं। इसके विपरीत, 10 प्रतिशत आरक्षण समूह 4 के लिए होगा, जिसमें यादव, कुर्मी, जाट, थेवर, एझावा, वोक्कालिगा, आदि जैसी प्रमुख जातियों के शामिल होने की उम्मीद है। रोहिणी आयोग ने पाया है कि 2,663 से अधिक उपसमूहों में से 25 प्रतिशत ओबीसी की केंद्रीय सूची में से 97 प्रतिशत नौकरियां और आरक्षित सीटें मिली हैं।

इसके ऊपर, आरक्षण के हिस्से को वितरित करने के लिए उप-वर्गीकरण एक उचित तरीका है। लेकिन रोहिणी आयोग की कार्यप्रणाली पर संदेह व्यक्त किया जा रहा है, क्योंकि इसने केवल गणना की है कि किस उपसमूह में केंद्र सरकार की नौकरियों का कितना प्रतिशत है। इसने उन नौकरियों को नहीं जोड़ा है कि एक उपसमूह ने अपनी आबादी के प्रतिशत के हिसाब से कितनी नौकरी सुरक्षित की है। यह सामाजिक वास्तविकता को विकृत कर सकता है।

उदाहरण के लिए, मान लें कि जाति एक्स की आबादी 10 लाख है और ओबीसी के लिए आरक्षित नौकरियों का हिसा 10 प्रतिशत है, और एक लाख की आबादी वाली जाति वाई में आरक्षित नौकरियों का सिर्फ 1 प्रतिशत है। यदि हम नौकरी के आंकड़ों पर जाएं, तो ऐसा लगता है कि जाति एक्स, जाति वाई से बेहतर है। यदि उनकी आबादी की संख्या पर नज़र डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि एक्स और वाई आरक्षण के मामले में बराबर हैं।

उपरोक्त उदाहरण जाति जनगणना के पक्ष में एक और तर्क है।

यूपी स्टाइल - फूट डालो और राज करो 

रोहिणी आयोग केवल केंद्र सरकार की नौकरियों को उप-वर्गीकृत करेगा, लेकिन ऐसा वह राज्य सरकारों के अधीन नौकरियों के बारे में नहीं कर पाएगा। नौ राज्यों में ओबीसी को उप-वर्गीकृत किया गया है- इनमें आंध्र प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, पुडुचेरी, कर्नाटक, हरियाणा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र शामिल हैं।

उत्तर प्रदेश ने दो बार उप-वर्गीकरण करने का प्रयास किया है। जून 2001 में, जब राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री थे, तो भाजपा नेता हुकुम सिंह के नेतृत्व में एक सामाजिक न्याय समिति बनी जिसे ओबीसी और एससी उपसमूहों के बीच आरक्षण का पुनर्वितरण करने के लिए कहा गया था। समिति ने प्रत्येक उपसमूह की जनसंख्या और उसके पास मौजूद नौकरियों के अनुपात में अनुमान लगाने के लिए तेजी से जनसंख्या का सर्वेक्षण किया। उदाहरण के लिए, उस सर्वेक्षण के माध्यम से कहा गया कि यादव उत्तर प्रदेश की ओबीसी आबादी का 19 प्रतिशत हैं- लेकिन ओबीसी श्रेणी में उनके पास 33 फीसदी नौकरियां थीं। कुर्मी में ओबीसी आबादी का 7.46 प्रतिशत शामिल था और उनके लिए लगभग 13 प्रतिशत नौकरियां थीं।

इस सिद्धांत को कायम रखते हुए कि प्रत्येक ओबीसी उपसमूह को उसकी जनसंख्या के अनुपात में नौकरियां मिले, समिति ने अन्य पिछड़े वर्गों को पिछड़े, अधिक पिछड़े और सबसे पिछड़े वर्गों में विभाजित कर दिया। केवल एक जाति यादव को पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत रखा गया और उसे 5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था। जाट, कुर्मी, लोध और सोनार सहित आठ जातियों को अधिक पिछड़ा घोषित किया गया और 9 प्रतिशत आरक्षण आवंटित किया गया। इसके विपरीत, 70 जातियों को सबसे पिछड़ा वर्ग में वर्गीकृत किया गया और उन्हें केवल 14 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था।

तब भी, समिति के एजेंडे के बारे में संदेह था, क्योंकि भाजपा नेता इसका नेतृत्व कर रहे थे। प्रत्येक ओबीसी उपसमूह की जनसंख्या का अनुमान भी काफी जल्दबाजी तैयार किया गया था। हालाँकि, समिति की रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया क्योंकि राजनाथ सिंह ने मार्च 2002 में दफ्तर छोड़ दिया था।

फिर भी, रिपोर्ट ने भाजपा को उस अभियान को हवा देने में सक्षम बना दिया कि यादवों ने ओबीसी आरक्षण के तमाम लाभों पर कब्जा कर लिया है। अखिलेश यादव के 2012-17 के मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान इस अभियान को हवा मिली। उन पर अन्य ओबीसी उपसमूहों के मुक़ाबले अपनी जाति समूह का पक्ष लेने के लिए सत्ता के दुरुपयोग का आरोप लगाया गया था, जिन्होंने समाजवादी पार्टी को वोट दिया था।

भाजपा ने 2014 से ओबीसी वोटों की एक बड़ी और समृद्ध फसल काटना शुरू कर दिया था। उदाहरण के लिए, सेंटर फॉर द स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के चुनाव के बाद के सर्वेक्षण में 77 प्रतिशत जाट, 53 प्रतिशत कुर्मी और 60 प्रतिशत अन्य ओबीसी (एक सर्वेक्षण जिसमें जाट, यादव और कुर्मियों को छोड़ दिया गया था) ने भाजपा को वोट दिया था। 2019 में, जाटों के 91 प्रतिशत, कुर्मियों के 80 प्रतिशत और अन्य ओबीसी के 72 प्रतिशत वोट भाजपा को गए थे। 

अब भाजपा को दिखाना होगा कि वह गैर-यादव ओबीसी, विशेषकर सबसे पिछड़े वर्गों के लिए क्या कर सकती है।

प्रतीगामी प्रभाव 

मई 2018 में, राष्ट्रीय चुनाव से एक साल पहले, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश राघवेंद्र कुमार के नेतृत्व में एक सामाजिक न्याय समिति नियुक्त की थी। उनका मुख्य काम उत्तर प्रदेश में आरक्षण ढांचे को युक्तिसंगत बनाना था।

कुमार-समिति ने यादव को जाट, कुर्मी, सोनार और कुछ छोटी जातियों के साथ पिछड़ा वर्ग में मिला दिया और इसे 7 प्रतिशत आरक्षण दिया। अधिक पिछड़े वर्ग में गुर्जर/कुशवाहा/मौर्य/ शाक्य, प्रजापति, गडरिया, तेली, लोध शामिल थे और उन्हें 11 प्रतिशत आरक्षण मिला था। ओबीसी कोटे का शेष 9 प्रतिशत सबसे पिछड़े वर्ग में चला गया जिसमें मल्लाह/निषाद, राजभर, कश्यप, आदि शामिल हैं।

चुनाव से पहले कुमार-रिपोर्ट जारी नहीं की गई थी, लेकिन आरक्षण के हिस्से के पुनर्वितरण से संबंधित हिस्सा प्रेस में लीक हो गया था। उस युक्तिसंगत ढांचे को लागू किया जाना अभी बाकी है।

रिपोर्ट को लागू नहीं करने का एक संभावित कारण यह हो सकता है कि आदित्यनाथ सहित कोई भी सरकार तीन बड़ी संख्या वाली जातियों जिसमें प्रमुख यादव, जाट और कुर्मी जातियां आती है को अलग-थलग करके सत्ता में आने या सत्ता में लौटने की उम्मीद नहीं कर सकती थी,  इन तबकों के पास काफी जमीन भी है और संपन्न भी हैं। यदि आरक्षित नौकरियों की मात्रा जिसके लिए वे प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, अचानक 27 प्रतिशत से 7 प्रतिशत तक गिर जाती तो ये समुदाय नाराज़ हो जाते। आज की तारीख में कुर्मी भाजपा के सबसे बड़े समर्थक हैं, जो सच जाटों के बारे में भी है, भले ही तीन नए कृषि कानूनों ने उन्हें मोदी और आदित्यनाथ सरकारों के खिलाफ कर दिया है।

कुमार-समिति की रिपोर्ट को लागू करने में आदित्यनाथ सरकार की लापरवाही यही है कि महान दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी जैसी पार्टियां, जो सबसे पिछड़े वर्गों के कुछ उपसमूहों के हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं, भाजपा के खिलाफ हो गई हैं। यह कहना मुश्किल है कि क्या उनकी रणनीति तनाव में है। या अगर आदित्यनाथ कुमार-समिति की सिफारिशों को लागू करने का जोखिम उठाते हैं, तो क्या वे शायद सिफारिशों में कुछ छेड़छाड़ के बाद वे ऐसा कर पाए।

फिर भी, उप-वर्गीकरण पर लंबी बहस ने लोकप्रिय चेतना में नुपात की धारणा को मजबूत किया है। कहने का मतलब यह है कि किसी भी सामाजिक समूह को उसकी जनसंख्या के हिस्से के अनुपात में सरकारी नौकरी मिलनी चाहिए। बहस का दायरा अब ओबीसी के लिए आरक्षित नौकरियों तक ही सीमित नहीं है। यह सभी नौकरियों के मामले में विस्तारित हो गया है, चाहे आरक्षित या खुली श्रेणी की नौकरी हो, इसके लिए जिम्मेदार आर्थिक अवसरों का सिकुड़ना और  साथ-साथ विभिन्न जातियों समूह के भीतर असमानताओं का बढ़ना है।  

इस बहस के केंद्र में दो प्रश्न हैं: क्या उच्च जातियों, जो अन्य श्रेणियों की तुलना में बहुत कम हैं, क्या उन्हे सरकारी नौकरियों के बड़े हिस्से को कब्ज़ाना चाहिए, विशेष रूप से तब जब सरकारी नौकरियों की संख्या हर साल कम हो रही है, और निजी क्षेत्र में आरक्षण को संवैधानिक रूप से अनिवार्य नहीं बनाया गया है। जब उप-वर्गीकरण की तुलना में इस वर्ग की जनसंख्या के अनुपात में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण बढ़ेगा तो क्या सबसे पिछड़े वर्ग को अधिक लाभ नहीं मिलेगा?

यही वजह है कि अखिलेश यादव, ओबीसी के बीच एक ठोस आधार वाले अन्य राजनीतिक दलों की तरह, जाति जनगणना की मांग कर रहे हैं। यह मांग सबसे पिछड़े वर्गों को वापस लाने के यादव के प्रयासों को सम्मोहक बनाता है। वे सफल होंगे या नहीं, लेकिन भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग तनाव में आ गई है और इसका खुलासा होने की संभावना तब है जब पार्टी अगले साल उत्तर प्रदेश में जीत हासिल करने में विफल हो जाएगी।  

एजाज़ अशरफ़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विग्नेश कार्तिक केआर किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट, किंग्स कॉलेज लंदन में डॉक्टरेट के शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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