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क्यों अयोध्या फ़ैसले से जुड़े अहस्ताक्षरित परिशिष्ट को ख़ारिज कर देना चाहिए

गुमनाम इन्सान द्वारा उपसंहार लिखना और “सीलबंद लिफ़ाफ़ों” में दस्तावेज़ों को गुपचुप भेजने की कवायद, वादियों के साथ नाइंसाफ़ी है।
ayodhya
फाइल फोटो

एक ध्यान देने वाली और आज से पहले कभी न देखी गई ख़ासियत इस बार बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद के हालिया सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले में देखने को मिली है, जिसमें अलग से और गुमनाम “परिशिष्ट” जोड़े गए, जिसे पाँच-न्यायाधीश की खंडपीठ ने अपने सर्वसम्मति से लिए गए फैसले के रूप में सुनाया। 116 पेज लम्बा लिखा गया यह परिशिष्ट एक बिलकुल नई शुरुआत को चिन्हित करता है; कि एक न्यायाधीश अपनी राय को गुप्त तौर पर सार्वजानिक कर रहा है।

न तो इस परिशिष्ट किसी के हस्ताक्षर हैं और न ही इसको लिखने वाले का नाम ही उजागर किया गया है। इसलिये, कोई भी इस बात का पता नहीं लगा सकता है कि इन पाँचों न्यायाधीशों में से किसके विचारों को यहाँ पर अपनाया गया है। पाँचों न्यायाधीशों के हिसाब से, परिशिष्ट की अंतर्वस्तु उनमें से सिर्फ किसी एक के दृष्टिकोण को प्रतिध्वनित करता है, लेकिन इसका लेखक कौन है यह तथ्य सिर्फ इस न्यायपीठ में शामिल उन पाँच न्यायाधीशों के संज्ञान में ही है।

नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 भारत में फैसला देने की प्रक्रिया को निर्धारित करता है। यह आदेश देता है कि न्यायालय अपने निर्णय को सार्वजनिक तौर पर “घोषणा” करेगी, हस्ताक्षर और उस पर तारीख़ डाले। आज तक हमेशा से सुप्रीमकोर्ट इस प्रक्रिया का पालन करता आया है और अपने सभी फैसलों की घोषणा की है। ऐसे मामलों में जहाँ एक से अधिक न्यायाधीश उसमें शामिल होते हैं, प्रत्येक को इस बात की आजादी है कि वह अपनी अलग राय को फैसले में लिखे या संयुक्त वाला फैसला सुनाये.

यदि दो या उससे अधिक न्यायाधीशों ने अपनी राय अलग-अलग लिखी है, तो प्रत्येक के पास उसी निष्कर्ष या भिन्न निष्कर्षों पर पहुँचने की अपनी-अपनी वजहें हो सकती हैं। लेकिन यदि न्यायाधीशों में फैसले को लेकर ही आपस में मतभेद हैं, तो ऐसे में फैसला उस न्यायपीठ के अधिकांश सदस्यों द्वारा पहुंचे निष्कर्ष के आधार पर लिया जाएगा।

इस पूरी प्रक्रिया में, तीन स्थितियाँ पैदा हो सकती हैं। पहली स्थिति में, एक न्यायाधीश अपनी फ़ैसला लिख सकता है और बाक़ी न्यायाधीश बिना अपने अलग-अलग कारणों को लिखे भी उस न्यायाधीश की राय पर आम सहमति कायम कर सकते हैं। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि वे आपस में मिलकर अपनी "समवर्ती" राय लिख सकते हैं। तीसरी स्थिति यह हो सकती है कि एक या एक से अधिक न्यायाधीश, न्यायपीठ में शामिल अन्य न्यायाधीशों की संख्या के आधार पर, बहुमत के फैसले से सहमत नहीं हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में न्यायाधीश अपनी अलग से “असहमति” वाला फैसला लिखने को स्वतंत्र है, जिसे आमतौर पर "अल्पमत" का फैसला कहा जाता है। इसलिए, फैसला लिखने के लिए सिर्फ तीन तरीके सभी के संज्ञान में हैं: बहुमत की राय, समवर्ती राय और असहमतिपूर्ण राय।

हर श्रेणी के फ़ैसलों पर भरी अदालत में सम्बंधित फैसला लिखने वाले न्यायाधीश द्वारा उद्घोषणा की जाती है और अलग से हस्ताक्षर किये जाने की परंपरा है, और इन सारे तथ्यों को कार्यवाही के रूप में मिनट्स में दर्ज किया जाता है। सर्वोच्च न्यायाल ने जिस दिन अयोध्या पर अपने फैसले की घोषणा की थी, उस दिन जो कार्यवाही मिनट्स के रूप में दर्ज की गई, वह पाँचों न्यायाधीशों की मात्र एक संयुक्त राय की “उद्घोषणा” के रूप में दर्ज की गई थी, इसकी वजह शायद यह रही हो कि परिशिष्ट के लेखक ने उस पर अपने हस्ताक्षर नहीं किये थे।

इस प्रकार, अयोध्या फैसले के बाद हमारे पास अब फैसला देने की एक चौथी श्रेणी भी मौजूद है, जिसे “परिशिष्ट फ़ैसला” कह सकते हैं। इसे न तो परिशिष्ट लिखने वाले द्वारा हस्ताक्षरित किये जाने की कोई आवश्यकता है और ना ही भरी अदालत में किसी उद्घोषणा की।

आमतौर पर परिशिष्ट का इस्तेमाल किसी अतिरिक्त सामग्री या नियम को दर्शाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जैसा कि किसी पुस्तक या किसी अनुबंध में इसे देख सकते हैं। किसी अनुबंध के परिशिष्ट में उस मुख्य अनुबंध से जुड़े सभी पक्षों या नामित पक्षों को अतिरिक्त सहमति दर्ज करने के लिए इसमें निर्धारित शर्तों पर एक सहमति पत्र के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसी प्रकार किसी किताब के सन्दर्भ में, किसी परिशिष्ट को जोड़ने का मतलब होता है कि या तो मुद्रित सामग्री में कोई गलती रह गई जिसे ठीक करना है, या नयी सामग्री जोड़नी है. लेकिन किसी फैसले को लिखते समय “परिशिष्ट” जैसे सन्दर्भ को बिठाना कहीं से भी उचित नहीं है।

यह न्यायिक पद्धति के परे ले जाने वाला नियम है जिसमें न्यायाधीश अपनी विचार प्रक्रिया तो प्रकट कर सकता है, लेकिन अपने नाम को जगजाहिर नहीं करना चाहता। यह उन चार न्यायधीशों के सन्दर्भ में भी उचित नहीं है कि उन्होंने उस अतिरिक्त, अहस्ताक्षरित और अ-उद्घोषित विद्वान गुमनाम न्यायाधीश के “तर्कों” को एक परिशिष्ट के जरिये दिए जाने पर अपनी सहमति दी। यदि कोई न्यायाधीश जिसकी तथ्यों के आधार पर अपनी एक निश्चित राय बनती है, तो वह खुद को दूसरे अन्य न्यायाधीशों की आड़ में नहीं छुपा सकता, जिसे बाकी न्यायधीशों ने परिशिष्ट में दिए गए तर्कों को अस्वीकार कर दिया है।

एक न्यायाधीश ने न्यायपीठ के सर्वसम्मति द्रष्टिकोण से अपनी सहमति जताई है, जो एक ख़ास पंक्ति के विवेक का अनुसरण करता है। उन्हीं न्यायाधीश ने परिशिष्ट प्रस्तुत दृष्टिकोण से अपनी असहमति जताई है, बिना यह स्पष्ट किये हुए कि इसमें जो विचार दिए गए हैं, उनसे उनकी सहमति नहीं है। उल्टा, उन्होंने उस दृष्टिकोण पर भी अपने हस्ताक्षर किये हुए हैं। इस पद्धति से सबसे बड़ी अदालत की न्यायिक प्रक्रिया में निष्पक्षता, निर्भीकता और पारदर्शिता की बुनियादी अवधारणों पर कुठाराघात होता है।

इधर कुछ वर्षों में यह देखने को मिल रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ मौकों पर सीलबन्द लिफ़ाफ़ों में दस्तावेज़ों को आमंत्रित किया है और इसकी अनुमति दी है। इन सील बंद लिफ़ाफ़ों में कौन सी चीज़ है, इसकी जानकारी या तो जिसने इन्हें प्रस्तुत किया है या फिर न्यायालय के पास ही होती है। लेकिन यह जानकारी प्रतिद्वंदी पक्ष को मुहैय्या नहीं होती। मुक़दमेबाज़ी के हमारे विरोधाभासी व्यवस्था में, चाहे किसी भी प्रकार की संवेदनशील सामग्री न्यायालय के समक्ष पेश की गई हो।

लेकिन यदि इस प्रकार की किसी सामग्री से न्यायाधीशों के दृष्टिकोण को प्रभावित किया जा सकता है तो या तो इसकी जानकारी सभी पक्षों को मुहैय्या की जानी चाहिए या फिर इसे न्ययालय के समक्ष प्रस्तुत करने की इजाजत ही नहीं मिलनी चाहिए। यह “सीलबंद लिफाफे के अंदर दस्तावेज़” पेश करने वाला तरीका भी निष्पक्षता के विचारों के प्रतिकूल और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उतना ही विरुद्ध है।  

शीर्ष अदालत को उन तरीकों को अपनाना चाहिए जिससे आम लोगों का व्यवस्था पर भरोसा मजबूत करता हो और जो निर्णयात्मक प्रक्रिया में और उन्नत निष्पक्षता और पारदर्शिता लाने का काम करे। यह नहीं कि गुमनाम फ़ैसलों की गुमनाम व्यक्ति द्वारा उद्घोषणा वाली रीति का पालन। किसी “परिशिष्ट” फ़ैसले की कोई क़ीमत नहीं है।

इसकी तुलना तो किसी न्यायाधीश के अल्पमत वाले फैसले से भी नहीं की जा सकती है, क्योंकि यह परिशिष्ट, “फैसला” सुनाने की न्यूनतम आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं करता है। भविष्य में, कोई वादी किसी मकसद से परिशिष्ट दृष्टिकोण पढ़ सकता है। इसलिये, प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए, इसे इस मामले में निर्णय के रिकॉर्ड के हिस्से के रूप में बने रहने की अनुमति किसी भी तरह से नहीं दी जानी चाहिए।

लेखक सर्वोच्च न्यायालय में एक अभिलेखकर्ता वकील के रूप में कार्यरत हैं। अयोध्या मामले में इन्होंने मुस्लिम पक्षकार के रूप में भाग लिया था।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Why Unsigned Addenda to Ayodhya Verdict Must Go

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