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हिंदू कुश में यूएस, तुर्की दोनों का फ़ायदा

अमेरिकी इरादों को पूरा करने के लिए तुर्की अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया पर निगरानी रखने के लिए अमेरिकी कॉकपिट में सवार हो गया है।
तुर्की  अफ़ग़ानिस्तान में नाटो मिशन का एक बड़ा स्तंभ है (फाइल फोटो)।
तुर्की  अफ़ग़ानिस्तान में नाटो मिशन का एक बड़ा स्तंभ है (फाइल फोटो)।

जिस उत्साह के साथ वाशिंगटन  अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान को मुख्य धारा में सम्मिलित करने के लिए तुर्की की सेवाओं को ले रहा है, वह कुछ परेशान करने वाले सवाल खड़े करता है। वाशिंगटन के अनुरोध पर कार्रवाई करते हुए, तुर्की  अफ़ग़ानिस्तान सरकार और तालिबान को एक मंच पर लाने के लिए  अफ़ग़ानिस्तान शांति प्रक्रिया (16 अप्रैल को) पर होने वाली उच्च स्तरीय वार्ता की मेजबानी करेगा। वार्ता में मध्यस्थता की भूमिका निभाने के लिए तुर्की ने एक विशेष दूत को भी नियुक्त कर दिया है।

पेंटागन और सीआईए दोनों ही 1 मई तक  अफ़ग़ानिस्तान को छोड़ना नहीं चाहते हैं। तुर्की अंत तक यूएस-नाटो की उपस्थिति की देखरेख करेगा। अमेरिका खुद के विशेष ऑपरेशन वाले बलों द्वारा समर्थित एक मजबूत खुफिया उपस्थिति बनाए रखने की इच्छा रखता है। सीएनएन ने  शुक्रवार को अपनी एक रिपोर्ट में इसका खुलासा किया कि "सीआईए, जिसने  अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी निर्णय लेने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, ने हालिया विचार-विमर्श के दौरान," अमेरिका की निरंतर उपस्थिती को बरकरार रखने के पक्ष में बात करते हुए "कुछ स्पष्ट निर्णय लिए है।

 अफ़ग़ानिस्तान में सीआईए की गतिविधियों का पैमाना सार्वजनिक नहीं किया जाता है – खासकर, चाहे इसका क्षेत्रीय कामकाज़ या ऑपरेशन  अफ़ग़ानिस्तान की सीमाओं से बाहर तक फैला हो। ऊपर जिक्र की गई सीएनएन की रिपोर्ट ने सीआईए के "सबसे बड़े पहरेदारी वाले  ठिकानों में से” एक पर से पर्दा उठाया है – जो फॉरवर्ड ऑपरेटिंग बेस चैपमैन कहलाता है और  पूर्वी  अफ़ग़ानिस्तान में एक उत्कृष्ठ अमेरिकी सैन्य ठिकाना है"।

आईएसआईएस के लड़ाकों की मौजूदगी (जिन्हे सीरिया से अफ़ग़ानिस्तान लाया जाता है सहित) – कथित रूप से रूस और ईरान के अनुसार, उन्हे यूएस एयरक्राफ्ट के माध्यम से लाए जाता हैं -तालिबान और अल-क़ायदा के बीच सांठगांठ और उससे भी ऊपर, उइघुर, मध्य एशियाई और चेचन आतंकवादियों की उपस्थिति को देखते हुए,  अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के दोस्त के रूप में तुर्की का शामिल होना वास्तव में क्षेत्रीय देशों के लिए चिंता का मसला है। हाइब्रिड युद्धों को लड़ने के लिए तुर्की ने इदलिब से लीबिया और नागोर्नो-करबाख तक जिहादी लड़ाकों को तैनात किया है।

गौरतलब है कि तुर्की ने कई वर्षों की निष्क्रियता के बाद उइगुर मुद्दे पर अपना रुख अचानक बदल दिया है और उसने इसे अंकारा और बीजिंग के बीच एक कूटनीतिक मुद्दा करार दिया है। पिछले मंगलवार को अंकारा में चीन के राजदूत को तुर्की के विदेश मंत्रालय में बुलाया गया था।

दूसरी ओर, यूएस-तुर्की के आपसी संबंधों में एक अवधारणात्मक "गर्माहट" पैदा हुई है। हाल ही में ब्रसेल्स में नाटो मंत्रीमंडलीय बैठक के दौरान, अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने ज़ोर देकर कहा कि, "मेरा मानना है कि नाटो में तुर्की का होना विशेष रूप से हमारे लिए काफी लाभकारी है।" स्पष्ट रूप से, तुर्की के मामले में अमेरिकी रुख में बदलाव को किसी शक्तिशाली सफलता की कहानी की जरूरत होगी। यहीं से  अफ़ग़ानिस्तान में तुर्की की मध्यस्थता और  अफ़ग़ानिस्तान समझौता के बाद उसकी संभावित भूमिका रूस और चीन के पर काटने की वाशिंगटन की दोहरी रणनीति का खाका पेश करता हैं।

तुर्की ने काले सागर से मध्य एशिया और शिनजियांग तक फैले तुर्क दुनिया के होने का दावा किया है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो  अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया में तुर्की की भूमिका रूस के साथ उसके संबंधों को चुनौती देना होगा, जो पहले से ही लीबिया, सीरिया, काकेशस और काला सागर और बाल्कन में संभावित रूप से तनाव में है। (शुक्रवार को फोन पर बात करते हुए  रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप एर्दोगन को "क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा सुनिश्चित करने के दृष्टिकोण के बारे में जलडमरूमध्य/स्ट्रेट्स की व्यवस्था के मामले में  1936 के मॉन्ट्रो कन्वेंशन को बरकरार रखने के महत्व के बारे में बताया”)।

इसी तरह अमेरिका को यह भी उम्मीद है कि वह तुर्की विद्रोह को बढ़ाकर उसे ईरान के साथ क्षेत्रीय रूप से संतुलन बनाने में इस्तेमाल कर पाएगा। इराक में तुर्की-ईरानी दुश्मनी पहले से ही ज़गज़ाहिर है जहां वाशिंगटन नाटो को सुरक्षा एजेंसी के रूप में स्थापित करना चाहता है। अंकारा और तेहरान के बीच गंभीर दरारें नागोर्नो-करबाख पर भी दिखाई दे रही हैं। इस प्रकार, ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद ज़रीफ़ द्वारा हाल ही में मध्य एशियाई राजधानियों के छह दिवसीय क्षेत्रीय दौरे के दौरान चर्चा में  अफ़ग़ानिस्तान का भविष्य प्रमुखता से छाया रहा।  

चीन और रूस,  अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के इरादों के बारे में काफी सतर्क हैं। (See my blog China resents US presence in Afghanistan.) और दोनों के एर्दोगन के साथ बहुत ही समस्याग्रस्त संबंध हैं।  अफ़ग़ान-मध्य एशियाई परिदृश्य के मामले पर तुर्की का झुकाव उनके लिए आराम की बात नहीं हो सकती है। तेहरान की अपनी हाल की यात्रा के दौरान, चीन के राष्ट्रीय काउन्सलर और विदेश मंत्री वांग यी ने ईरान के शंघाई सहयोग संगठन में सदस्यता का  समर्थन किया है। रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव 14 अप्रैल को तेहरान की यात्रा करेंगे। 

कुल मिलाकर, ये भूराजनीतिक पुनर्गठबंधन अमेरिका द्वारा चीन और रूस का दमन तेज करने के लिए किए जा रहे हैं। लेकिन, तुर्की के लिए, सीरिया में हस्तक्षेप लाभदायक साबित हुआ है। उत्तरी सीरिया के तुर्की नियंत्रित इलाकों में पहले से ही 8,835-वर्ग किलोमीटर क्षेत्र शामिल है और अंकारा का वहां से कब्जा खाली करने का कोई इरादा नहीं रखता है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि तुर्की भी इसी तरह के लाभ को हासिल करना चाहेगा। शुरुआत में वह चाहेगा कि वह पश्चिमी अलायंस प्रणाली में अमेरिका का अपूरणीय साझेदार बने और मुस्लिम मध्य पूर्व में यूरोप के वार्ताकार के रूप में प्रमुखता हासिल करे जो तुर्की का हमेशा से सपना रहा है। देखना यह होगा कि क्या वाशिंगटन यूरोपीयन यूनियन पर तुर्की को कुछ विशेष छूट दिलाने में कामयाब होगा – जिसमें तुर्की को "सहयोगी सदस्यता" दिलाना एक संभावना हो सकती है।

यूरोपीयन यूनियन के लिए भी, तुर्की एक महत्वपूर्ण साझेदार बन सकता है यदि नाटो काले सागर में अपनी ताक़त को बढ़ाना चाहता है और रूस को घेरना चाहता है। तुर्की पहले से ही यूक्रेन में रूसी विरोधी निज़ाम को सुरक्षा प्रदान करने की ज़िम्मेदारी ले चुका है। यूक्रेन के राष्ट्रपति वलोडिमिर ज़ेलेंस्की ने शनिवार को रूस के साथ बढ़ते तनाव की पृष्ठभूमि के मद्देनजर एर्दोगन से मिले हैं। 

तुर्की के अधिकारी अंकारा और ब्रुसेल्स के बीच बातचीत को बेहतर बनाने के मामले में हाल ही में किए गए उच्च स्तरीय प्रयासों के बारे में सतर्क हैं। यूरोपीयन प्रमुख वार्ताकार वाशिंगटन के साथ समन्वय बनाए हुए हैं। यूरोपीयन यूनियन आयोग के अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयन और यूरोपीय यूनियन के अध्यक्ष चार्ल्स मिशेल की पिछले बुधवार को अंकारा की यात्रा को तुर्की के साथ संबंधों में सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण शुरुवाती प्रयास माना जा सकता है। जैसा कि एक तुर्की टिप्पणीकार का कहना है कि यूरोपीयन यूनियन के नेताओं द्वारा एर्दोगन को दिए गए  "शांति के प्रस्ताव" की "पाँच प्रमुख विशेषताएं" हैं:

  • आर्थिक सहयोग और देशान्तरण पर ठोस एजेंडा का होना;
  • सीमा शुल्क यूनियन से संबंधित समस्याओं को संभालना और उन्हे अद्यतन करना;
  • तुर्की में शरणार्थियों के लिए धन के प्रवाह को अनवरत जारी रखने के प्रति प्रतिबद्धता दिखाना;
  • प्रमुख सहयोग वाले क्षेत्रों पर तुर्की के साथ संबंधों में गति लाना; तथा,
  • पूर्वी भूमध्यसागरीय सुरक्षा और स्थिरता के लिए काम करना।

कुल मिलाकर देखा जाए तो तुर्की को पश्चिमी गठबंधन में वापस लाने और नाटो शक्ति के रूप में उचित भूमिका निभाने के प्रति "प्रोत्साहन" दिया जा रहा है। आज, तुर्की शायद एकमात्र क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय ताक़त है जिस पर वाशिंगटन भरोसा कर सकता है जो पाकिस्तान को चीन और रूस की छत्रछाया से बाहर कर सकता है, जो सही मायने में तुर्की को अमेरिका और नाटो के लिए तालिबान शासित  अफ़ग़ानिस्तान में एक अनिवार्य साझेदार बना सकता है।

दरअसल,  अफ़ग़ानिस्तान के मसले में रूस और तुर्की ऐतिहासिक रूप से प्रतिद्वंद्वी रहे हैं। तुर्की के  अफ़ग़ानिस्तान के साथ सदियों पुराने गहरे इस्लामिक संबंध रहे हैं, जो कि 1947 में बने पाकिस्तान के पहले से हैं। भविष्य में  अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान कितनी सबआल्टरन  भूमिका निभाने को तैयार होगा, यह देखना अभी बाकी है। लेकिन तब इस सब को लेकर रूस को मध्य एशिया के पिछले हिस्से और उत्तरी काकेशिया की सुरक्षा और स्थिरता के मामले चिंता होनी चाहिए। रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव की पिछले सप्ताह इस्लामाबाद की यात्रा के दौरान, 2012 के बाद पहली ऐसी मंत्रीमंडलीय बैठक की थी।

मूल रूप से, इस सब से यूएस-तुर्की संबंधों में विरोधाभास दूर नहीं होंगे और इसके भी कई कारण मौजूद हैं - जिनमें - सीरिया में कुर्दों के साथ अमेरिका का गठबंधन होना; लीबिया में तुर्की के हस्तक्षेप का अमेरिकी विरोध; एर्दोगन का घृणित मानवाधिकार रिकॉर्ड का होना; रूस की तुर्की के साथ एस-400 मिसाइल के सौदे पर कलह; और न जाने कितनी और वजहें हैं। लेकिन शीत युद्ध के दोनों सहयोगी जब जरूरत पड़ती है तब अपने विरोधाभासों को ताक पर रख देते हैं और  आपसी लाभ के लिए एक साथ काम करने को तैयार हो जाते हैं।

बिना किसी संदेह के,  अफ़ग़ानिस्तान के इर्दगिर्द अत्यधिक रणनीतिक वाले इलाकों में सत्ता की संरचना को देखते हुए, दोनों देश आपसी सहयोग के जरिए "जीत-जीत" जैसी स्थिति का एहसास कर सकते हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

A ‘Win-Win’ for US, Turkey in Hindu Kush

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