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अभिभावक के तौर पर मां का नाम: शेक्सपियर होते तो पूछते आख़िर ‘पुरुष के नाम’ में क्या रखा है?

किसी शख़्स का नाम उसकी पहचान का हिस्सा होता है। लेकिन क़ानूनी और गवर्नेंस की प्रक्रियाओं में घुसे चले आए पुराने रीति-रिवाज भारतीय महिलाओं की पहचान में किसी पुरुष को नत्थी कर देते हैं।
अभिभावक के तौर पर मां का नाम: शेक्सपियर होते तो पूछते आख़िर ‘पुरुष के नाम’ में क्या रखा है?

मध्य प्रदेश में रहने वाली वकील नेहा विजयवर्गीय महिला अभिभावक और संरक्षक के मुद्दे पर कानून के नजरिये की  जानकारी दे रही हैं।

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अब तक अपने करियर में मैंने ट्रांजेक्शनल वकील के तौर पर ही काम किया है। ज्यादातर मैंने लॉ फर्मों से जुड़ कर काम किया है। अब मैंने अपनी प्रैक्टिस शुरू की है और अब विवादों के मामले भी लेने लगी हूं...और वर्षों से चले आ रहे जुमले को दोहराऊं तो कह सकती हूं कि अपने नए काम में गलतियों से मैं काफी कुछ सीख रही हूं।

कुछ सप्ताह पहले मेरे दफ्तर ने हाई कोर्ट में एक महिला मुवक्किल की ओर से केस दायर किया। केस फाइल करने के बाद मेरे ऑफिस क्लर्क याचिका की एक कॉपी ले आए। मैंने गौर किया कि मेरे क्लर्क ने अपनी हैंड राइटिंग में मेरी मुवक्किल के नाम के आगे कुछ शब्द लिख दिए थे। उनके नाम के आगे लिखे ये शब्द थे- “Wife of Rajeev Sharma” ( पहचान छिपाने के लिए नाम बदल दिया गया है)। पता चला कि हाई कोर्ट रजिस्ट्री के एक कर्मचारी ने याचिका दायर करने वाले पक्ष के ब्योरे में नुक्स खोज निकाला था। नुक्स यह था कि उसमें पति के नाम का जिक्र नहीं था। जाहिर है मेरे क्लर्क ने उस ‘नुक्स को’ सुधार दिया और बेंच के सामने केस की लिस्टिंग करवा दी।

कोई दूसरा वक्त होता तो मैं अपने दिमाग में यह बात पक्की कर लेती कि अगली बार से यह गड़बड़ी न दोहराऊं और आगे बढ़ जाती। लेकिन इस वाकये ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। मैंने सोचा कि आखिर एक वयस्क महिला के केस में पति के नाम न होने को पहचान के ‘नुक्स’ के तौर पर क्यों देखा गया?

इसके बाद मैंने उन फाइलों का पुलिंदा निकाला, जिसमें मेरे दफ्तर ने पुरुष मुविक्कलों की ओर से केस दायर किया था। मैंने पाया कि उन पुरुषों की याचिकाओं में जो सिर्फ एक अतिरिक्त जानकारी दी गई थी, वह थी उनके पिता का नाम। मुझे आश्चर्य हुआ कि रजिस्ट्री ने महिला के केस में पिता का नाम न होने पर आपत्ति क्यों नहीं की? आखिर पुरुषों के मामले में कोई भी शख्स अपनी मां और पत्नी के नाम से क्यों नहीं पहचाना गया? आखिर महिला के केस में पति का नाम होना जरूरी क्यों था? क्या यह कानून के हिसाब से जरूरी है या पुरानी रवायतों का ढोया जा रहा है?

क़ानून या रवायत – पहले मुर्गी या पहले अंडा?

दरअसल महिला को पति के नाम से पहचानने का चलन पुरानी रवायत पर टिका है। लेकिन इसमें कानून की भी थोड़ी भूमिका दिखाई पड़ती है। मसलन Hindu Minority and Guardianship Act, 1956 के मुताबिक हिंदू नाबालिग लड़के या अविवाहित लड़की का ‘स्वाभाविक’ अभिभावक पिता ही होता है। इसके बाद ही मां अभिभावक के तौर पर सामने आती है। हिंदू नाबालिग लेकिन विवाहित लड़की का स्वाभाविक अभिभावक पति होता है।

साफ तौर पर यह कानून पति और पत्नी के बीच असमानता को बढ़ावा देता हुआ दिखता है। और कई तरह से यह काम करता है। दरअसल यह लड़कियों के माता-पिता की अवधारणा के ऊपर सिर्फ पिता की अवधारणा को संहिताबद्ध कर देता है।

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लैंगिक भेदभाव बरकरार है

सुप्रीम कोर्ट ने कानून में ऐसे असमानता भरे प्रवाधानों से छुटकारा दिलाने की कोशिश की है। कोर्ट ने गीता हरिहरन बनाम रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया केस में अभिभावक के सवाल पर कानून की जो बारीक व्याख्या की थी, उसमें यह दिखता है। लेकिन अदालत इसमें अपने काम को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस केस में बाद (After) शब्द को ‘अनुपस्थिति में’ ( ‘in the absence of’ ) समझा जाए। लिहाजा अगर किसी नाबालिग की देखरेख पिता नहीं कर पाता है तो ही (यानी इसकी अनुपस्थिति) मां एक स्वाभाविक अभिभावक के तौर पर यह भूमिका निभा सकती है।

जाहिर है, इस फैसले की जो व्याख्या थी वह भेदभाव भरी थी। यह तो पिता के न रहने ( अनुपस्थित रहने) का मामला था। लेकिन जिन मामलों में पिता (अभिभावक के तौर पर) मौजूद होता है वहां भी मां को अभिभावक के तौर पर सेकेंडरी रोल ही दिया जाएगा। इससे कोई मतलब नहीं होता है कि बच्चे के कल्याण के लिए मां की दिलचस्पी का स्तर क्या है? इस तरह का पदानुक्रम यानी Hierarchy का आधार माता का लिंग है। यानी यह साफ तौर पर लैंगिक भेदभाव है। यह दुर्भाग्य है कि यह फैसला अभिभावकत्व से जुड़े कानूनी प्रावधानों में मौजूद भेदभाव को ही दिखाता है।

इस फैसले का व्यापक असर आज तक दिख रहा है। 2018 में केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ( Central Board of Direct Taxes (CBDT)  ने नए पैन ( Permanent Account Number)  के आवेदन के लिए नए नियम जारी किए। पुराने नियमों के मुताबिक आवेदक को सिर्फ पिता का नाम भरना था। नए नियम के मुताबिक आवेदन में मां का नाम तभी भर सकते हैं जब वह सिंगल पैरेंट हो।

कुछ लोगों के लिए ये नियम सकारात्मक बदलाव के उदाहरण हैं। ये नियम और सुप्रीम कोर्ट के 1999 का फैसला ( गीता हरिहरन बनाम आरबीआई) भी उस जमाने के हिसाब से प्रगतिशील फैसले हैं।

अब तो देश की न्यायपालिका और विधायका दोनों पर्याप्त तौर पर साहसी दिख रही है। पसर्नल लॉ भी संविधान की कसौटी पर कसे जा रहे हैं। तीन तलाक पर पाबंदी इसका उदाहरण है।

सरकारी निकाय भी इस दिशा में नया रास्ता बना रहे हैं। आधार कार्ड बनाने में लिए जाने वाले डेमोग्राफिक डेटा के बारे में जो गाइडलाइंस जारी किए हैं वे ज्यादा माकूल हैं। वोटर रजिस्ट्रेशन के लिए जारी किए जाने वाले चुनाव आयोग के फॉर्म के नियम इस संबंध में काफी सही हैं।

लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। व्यवहार में तो पुरानी रवायतें चली आ रही हैं और इन्हें पुराने कानूनों का समर्थन मिल रहा है। मेरी नाबालिग बेटी के आधार कार्ड में मां के नाम के तौर पर मेरा नाम है लेकिन मेरे पति को ही उसके एक मात्र अभिभावक होने का सम्मान मिला है।

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फोटो साभार : wyncliffe स्रोत : Common Creative

पुरानी रवायतों को बदलने की ज़रूरत

इन पुरानी रवायतों में बदलाव के लिए कानून में बदलाव की जरूरत है। अभिभावकत्व यानी Guardianship के सवाल पर हिंदू और मुस्लिम लॉ दोनों न्यायिक तौर पर असंगत हैं। मैं यहां यूनिफॉर्म सिविल कोड की राजनीतिक बहस पर नहीं पड़ूंगी। लेकिन इस मामले में लैंगिक समानता किसी भी तरह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है।

सामान्य हालात में माता और पिता दोनों को अभिभावक के तौर पर समान अधिकार मिलने चाहिए। एक वयस्क पुरुष और महिला को किसी रिश्तेदार की पहचान की जरूरत नहीं होनी चाहिए। अगर ऐसा जरूरी भी है तो भी उस महिला और पुरुष को यह अधिकार हो कि वह अपनी मर्जी से उस संबंध को उजागर करे। यहां तक कि इसकी भी इजाजत दी जानी चाहिए कि वह जिस संबंध को अच्छा समझता है उसे उजागर करे।

आखिरकार, क्या मेरे पिता पर इस बात का कोई ज्यादा फर्क पड़ेगा कि मैं अपने पैन कार्ड में उनकी जगह मां के नाम का इस्तेमाल कर रही हूं?  पैन कार्ड पर मां का नाम लिखा हो या पिता का, टैक्स तो मैं उतना ही दूंगी, जितनी मेरी देनदारी होगी।

इस स्थिति में शायद शेक्सपियर अपने ‘रोमियो एंड जूलियट’ में यही कहते-

आख़िर एक पुरुष के नाम में क्या रखा है?

आख़िर वह किससे पहचाने जाएंगे?

क्या वह ‘अमिताभ के बेटे’ कहे जाएंगे?

या फिर ‘जया के बेटे’?

दोनों में से किसी भी रिश्ते से उन्हें पहचाना जा सकता है

लेकिन रहेंगे तो वह ‘अभिषेक’ ही।

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(नेहा विजयवर्गीय वकील हैं और इंदौर (मध्य प्रदेश) में रहती हैं। उनका ब्लॉग है- at ‘The Neha Vijayvargiya Blog’।)

अंग्रेजी में प्रकाशित आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Women and Guardianship: Dear Mr. Shakespeare, the Question to Ask is ‘What’s in a Man’s Name?’

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