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2022 में सुप्रीम कोर्ट के काम की समीक्षा

सरकार और न्यायपालिका के बीच एक अजीब सा खिचाव दिख रहा है। सरकार अदालत में लंबित मुद्दों पर टिप्पणी कर रही है। हाल ही में, भाजपा के राज्यसभा सदस्य सुशील कुमार मोदी ने कहा कि भारतीय संस्कृति समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देती है, यह उन्होने तब कहा जब वे अच्छी तरह से जानते हैं कि मामला अदालत में लंबित है।
supreme court

मुख्य न्यायधीश और कॉलेजियम के सदस्य वर्तमान बहुसंख्यक सरकार के सत्ता में दो कार्यकाल और 2024 में होने वाले चुनाव के साथ इतिहास के सिरे पर खड़े हैं। क्या सर्वोच्च न्यायालय नेतृत्व प्रदान करेगा और संवैधानिक विचार की धारणा को खुला रखेगा यह एक बड़ा सवाल है। लेकिन यह दुखद होगा यदि न्यायपालिका इतिहास में उस पल को पहचानने में विफल रहती है जहां यह स्थित आमद है।

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जैसा कि हम हमेशा से करते आ रहे हैं, कि साल के अंत में त्योहारी सीजन में सभी एजेंसियां/प्रकाशन घटनाओं की समीक्षा रिवाजी रूप से करते हैं। हालाँकि, दुखद बात यह है कि जश्न मनाने के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है, सबसे निराशाजनक घटना दिसंबर में हुई और इसलिए, हमें वर्ष की शुरूआत पीछे से करनी होगी।

बिलकीस बानो के साथ हुआ उपहास

जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस विक्रम नाथ की सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने 13 दिसंबर को कोर्ट बंद होने से ठीक तीन दिन पहले बिलकीस बानो द्वारा दायर एक ठोस समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया। समीक्षा याचिका में एक मामला उठाया गया था, जिसमें बिलकीस को कभी नहीं ही सुना गया और न्यायिक राय में  एक हिस्से का मानना था कि बिलकीस मामले में दी गई रिहाई पर आवेदन उस उपयुक्त सरकार को करना चाहिए जिसके अधिकार क्षेत्र में यह सजा हुई थी। कानून ने इस विचार का पालन करते हुए, दोषियों का आवेदन महाराष्ट्र राज्य को दिया जाना चाहिए था, जो नहीं किया गया था; इसके बजाय इसे गुजरात राज्य सरकार के माधायम से लाया गया। मुकदमे को गुजरात से महाराष्ट्र स्थानांतरित करने का कारण इस तथ्य में निहित था कि अदालत की धारणा और अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ गुजरात में व्याप्त सामूहिक उन्माद के संबंध में, न्याय गुजरात राज्य के बाहर मिलना बेहतर होगा। 

बहुत पहले दायर की गई समीक्षा याचिका को गुजरात चुनाव के परिणाम घोषित होने के बाद ही खारिज कर दिया गया था। 2002 में जब बिलकीस बानो के खिलाफ अत्याचार हुआ था, तब भी वही पार्टी सत्ता में थी, जिसने अब ग्यारह दोषियों को रिहा करने की इजाज़त दी है। 

कारण और तर्क की मांग यह थी कि एक सुधारात्मक याचिका दायर की जाए, सुनवाई की जाए और उसे रिट याचिका के साथ या उससे पहले निपटाया जाए, जो ग्यारह दोषियों की छूट पर रिहाई को चुनौती देने के लिए दायर की गई थी।

उसके साथ जो हुआ उससे संबंधित तथ्यों के बारे में सब जानते हैं। फिर भी, उन पर दोबारा विचार करना जरूरी है। दोषसिद्धि के आदेश में कहा गया है, “जब उन्होंने अभियोक्ता के समूह को देखा, तो उन्होंने अपने वाहनों को रोक दिया। वे "मुसलमानो को मारो" चिल्लाने लगे और पीड़िता के समूह की ओर दौड़ पड़े। वे दो सफेद रंग के वाहनों में आए थे और इन लोगों के हाथों में तलवार, लाठियां और हंसिया थी। उन पर हमला करने वाले व्यक्तियों के समूह में से, अभियोजिका ने अभियुक्त संख्या 1 से 12 तक की पहचान की थी। अभियुक्त संख्या 4 - शैलेश चिमनलाल भट्ट ने अभियोजिका की बेटी सालेहा को उसकी बाहों से खींच लिया और उसे जमीन पर पटक दिया था, जिससे सालेहा की मृत्यु हो गई थी। अभियुक्त क्रमांक 1 जसवंतभाई चतुरभाई नाई जो तलवार लिए हुए था, अभियोजिका पर तलवार से हमला करने जा रहा था, हालांकि, उसने वार से बचने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया, जिससे उसके बाएं हाथ में चोट आई। आरोपी क्रमांक 1, 2 और 3 ने पीड़िता के कपड़े जबरन उतार दिए और उसके साथ बलात्कार किया। पहले आरोपी नंबर 1 - जसवंतभाई चतुरभाई नाई ने उसके साथ बलात्कार किया, फिर आरोपी नंबर 2 गोविंदभाई नाई ने उसके साथ बलात्कार किया और उसके बाद आरोपी नंबर 3 नरेश मोढ़िया ने ऐसा ही किया। अन्य अभियुक्त अर्थात अभियुक्त सं. 5 से 12 ने समूह की अन्य महिलाओं के कपड़े फाड़ दिए और उनके साथ दुष्कर्म किया और अपने समूह के पुरुष सदस्यों के साथ मिलकर उनके साथ मारपीट की। इसी दौरान दुष्कर्म की वजह से बिलकीस बानो बेहोश हो गई। वह कई घंटे बेहोश रही। जब उसे होश आया तो उसने शमीम के बच्चे सहित अपने रिश्तेदारों को मृत पाया। यह महिला पूरी तरह नग्न अवस्था में थी। उसे पास में एक पेटीकोट मिला। उसने उसे पहना और पहाड़ी की चोटी तक रेंग कर वहाँ छिप गई। अगले दिन सुबह, वह पहाड़ी के दूसरी ओर नीचे आई। इस जुर्म के लिए ही उन्हें सजा सुनाई गई थी और इसी जुर्म में उन्हें छूट दे दी गई है।

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम सत्तारूढ़ व्यवस्था के तहत अपने ऊपर हो रहे हमले के कारण अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है। जबकि व्यवस्था को खुद न्यायिक नियुक्तियों की विविधता की जरूरत को ध्यान में रखना होगा, निश्चित रूप से इसका इलाज बीमारी से भी बदतर है।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कि गुजरात सरकार इस मामले में एक उपयुक्त सरकार थी, न केवल बाध्यकारी मिसाल का उल्लंघन करती है, बल्कि मुकदमे को गुजरात से महाराष्ट्र स्थानांतरित करने का भी मजाक उड़ाती नज़र आती है। अदालत का यह मानना कि गुजरात सरकार इस मामले में एक उपयुक्त सरकार है, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 432(7) का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि मुकदमे को 'असाधारण परिस्थितियों' के तहत महाराष्ट्र से स्थानांतरित किया गया था। यह कानून को उसके सिर पर खड़ा कर देता है, क्योंकि मुकदमे को राज्य से बाहर स्थानांतरित करने का एकमात्र कारण असाधारण हैं, जिससे मामले का स्थानांतरण  करने वाली सरकार को छूट पर निर्णय लेने के लिए उपयुक्त माना गया। 

जब न्यायालय के संज्ञान में इस बात को लाया गया कि बिलकीस बानो को न तो सुना गया, न ही संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिका में उनके नाम का उल्लेख किया गया, तो किसी ने अदालत से खुद को सही करने की अपेक्षा की होगी, जैसा कि सभी समीक्षा याचिकाओं के मामले में होता है। आखिरकार, नरसंहार की घटना के दौरान हुए बलात्कार और हत्याओं को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। इस प्रकार, अब तक हम में से कई लोगों ने न्यायाधीशों को संदेह का लाभ दिया है क्योंकि रिहा किए गए दोषियों द्वारा दायर याचिका में मामले की प्रकृति का विवरण नहीं दिया गया है, न ही बिलकीस बानो के नाम का खुलासा किया गया है, न ही 2002 के नरसंहार का उल्लेख किया गया है, न ही अपराध की भयानक प्रकृति का उल्लेख किया गया। समीक्षा ने यह सब रिकॉर्ड पर ला दिया था, और उम्मीद की जा रही थी कि अदालत बिल्किस को उसका हक़ देगी। यह निश्चित रूप से एक ऐसा मामला है जहां उसके साथ हुए अन्याय को पूर्ववत किया जा सकता था।

जस्टिस खानविलकर के फैसलों में मानवाधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा की जरूरत के बारे में जागरूकता का अभाव था।

यह पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा सुनवाई और दायर की जाने वाली उपचारात्मक याचिका के लिए भी एक बेहतरीन मामला था क्योंकि यह 2002 के सर्वोच्च न्यायालय के रूपा अशोक हुर्रा के फैसले में निर्धारित उपचारात्मक याचिका के सभी मानदंडों को पूरा करती थी। 

जबकि एक रिट याचिका लंबित है, हम मानते हैं कि एक उपचारात्मक याचिका, जहां अदालत को न्याय करने पर आगे बढ़ने से पहले, अन्याय को दुरुस्त करना जरूरी था। कारण और तर्क की मांग यही थी कि एक सुधारात्मक याचिका दायर की जाती, उस पर सुनवाई की जाती और उस रिट याचिका के साथ या उससे पहले इसे निपटाया जाता, जो ग्यारह दोषियों की छूट पर रिहाई को चुनौती देने के लिए दायर की गई थी। 

तीन मुख्य न्यायाधीश

यह एक ऐसा वर्ष है जिसने भारत के तीन मुख्य न्यायाधीशों के कामकाज़ को  देखा – इनमें सीजेआई एन.वी. रमना, यू.यू. ललित और डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ शामिल हैं- जो अपने आप में एक बिल्कुल अनदेखी घटना है। जबकि सीजेआई रमन्ना एक धमाके के साथ सेवानिवृत्त हुए, धन शोधन निवारण अधिनियम ('पीएमएलए') के कुछ प्रावधानों की व्याख्या पर अपने फैसले पर फिर से विचार करने का फैसला किया, हालांकि उन्होने ऐसा एक सीमित अंदाज़ में किया, सीजेआई ललित को न्यायविदों, शिक्षाविदों से तब बहुत प्रशंसा मिली जब उन्होने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के आरक्षण के फैसले में पर अपनी असहमति व्यक्त की थी। लेकिन कोई भी असहमति एक असहमति से ज्यादा कुछ नहीं है और सफलता का कोई विकल्प नहीं होता है। 

सेवानिवृत्ति के बाद दो साल की उपयुक्त अवधि के बिना किसी भी किस्म की नियुक्तियों की निंदा की जानी चाहिए क्योंकि वे न्यायिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करती हैं।

मामलों के त्वरित निपटान, विविध और अंतिम सुनवाई के मामलों के बीच अदालत के समय को विभाजित करने, सुनवाई के लिए संवैधानिक महत्व के मामलों में लंबे छिपे हुए मुद्दों को रखने और एक साथ काम करने वाली तीन संवैधानिक पीठों का गठन करने पर जस्टिस लाइट को खुद पर गर्व रहा होगा।

एक साधारण अनुरोध पर, मेरे द्वारा रखे गए पत्र के आधार पर, उन्होंने संविधान पीठों के समक्ष सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग भी शुरू की, जो 2018 से लंबित पड़ी थी। 

वे एक मिशन वाले व्यक्ति थे और उन्होंने 74 दिनों की कार्य-अवधि में जो कुछ भी करने का निश्चय किया उसे पूरा किया। बहुत कम लोग इतने कम समय में भारतीय कानूनी प्रणाली पर अपनी छाप छोड़ने का दावा कर सकते हैं। बार एसोशिएशन से भर्ती करने के कारण उन्हें बार से बहुत प्यार मिला। 

हालाँकि, डॉ. जी.एन. साईंबाबा का मामला शनिवार को दो न्यायाधीशों की पीठ के सामने आया था, दोनों गुजरात से थे, जिसकी गंभीर आलोचना की गई। शुरुआत में,  अदालत हमेशा अपनी छुट्टियों के दिनों में भी स्वतंत्रता की रक्षा में खड़ी रही है, न कि इसके खिलाफ। यह सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में पहला दर्ज मामला प्रतीत होता है जिसमें इसके अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल लोगों को तत्काल रिहा करने के बजाय कैद में रखने के लिए किया गया था। इसके अलावा, पसंद के बारे में उनके पूर्व पोस्ट फैक्टो स्पष्टीकरण ने बहुतों को आश्वस्त नहीं किया है। जमानत देने के मामले में उदार होने के उनके ज्ञात इतिहास को देखते हुए यह और भी खतरनाक था, न केवल आम तौर पर, बल्कि जाने-माने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के मामले में भी कुछ ऐसा ही था। 

अब हम मुख्य न्यायाधीश डॉ. चंद्रचूड़ के कार्यकाल में आते हैं, जो अब एक महीने से अधिक समय से पद पर आसीन हैं। जिन कारणों को वे खुद सबसे अच्छी तरह से जाने जाते हैं, वह यह कि सुप्रीम कोर्ट की कोई अवकाश बैठक नहीं होगी। प्रशासनिक सुधार के मामले में, उन्होंने कम महत्व वाले मामलों, स्थानांतरण याचिकाओं, जो कि ज्यादातर वैवाहिक मामले और जमानत याचिकाएं हैं, को निपटाया है और उन्हें सभी अदालतों को सौंपा है।

इसके लिए हमें आभारी होना चाहिए; जैसा कि उन्होंने खुद ही कहा कि, सर्वोच्च न्यायालय सबसे छोटे और सबसे महत्वहीन लोगों को न्याय दिलाने के लिए मौजूद है। बंबई की बार एसोशिएशनों ने हाल ही में किए गए उनके अभिनंदन में, उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज में टिप्पणी की कि उन्हें अपने न्यायिक व्यक्तित्व को खोने का खतरा है और व्यापक नागरिक समाज उन्हे एक 'राजनीतिज्ञ' के रूप में बदलने के की कोशिश कर रहा है और उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है।  इसमें कोई संदेह नहीं है, उनके आमंत्रण को स्वीकार करना उनके लिए एक कठिन मामला होगा कि किसे स्वीकार करें और किसे अस्वीकार करे, लेकिन जैसा कि सर्वविदित है, कि किसी भी न्यायाधीश का व्यक्तित्व उनके निर्णयों के माध्यम से जाना जाता है।

सुप्रीम कोर्ट पर हमला

सुप्रीम कोर्ट, सत्तारूढ़ व्यवस्था के माध्यम से अपने ऊपर हो रहे हमले के सामने अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है। केंद्रीय कानून मंत्री और उपराष्ट्रपति के भाषणों से अब यह स्पष्ट हो गया है कि कॉलेजियम पर हमले हो रहे हैं। जबकि व्यवस्था को खुद न्यायिक नियुक्तियों की विविधता की जरूरत को ध्यान में रखना होगा, निश्चित रूप से इलाज बीमारी से भी बदतर है।

अब नहीं तो बाद में, सीजेआई डॉ. चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली पूरी अदालत को न्यायिक और गैर-न्यायिक मंचों पर न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करने की चुनौती का सामना करना होगा। हालांकि यह सच है कि अनुच्छेद 122 के तहत महाभियोग के उद्देश्य को छोड़कर किसी न्यायाधीश के आचरण पर जनता या संसद में चर्चा नहीं की जा सकती है। नियुक्ति की व्यवस्था पर वाद-विवाद अनुच्छेद 122 के दायरे में नहीं आएगा।

इस तरह की बहसें इसके पूरे इतिहास में भरी पड़ी हैं। हालांकि, अगर इस तरह की बहस सीमा लांघ जाती है, और आम तौर पर न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके और मामले के बारे में बहस बंद हो जाती है या उन मामलों से संबंधित होती है जो न्यायाधीन हैं, इस प्रकार वह कानून के उल्लंघन के दायरे में प्रवेश कर जाती है,  निश्चित रूप से यह एक अवमानना ​​का मामला बन जाता है, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि हमले करने वाले व्यक्ति बड़े कार्यालयों में आसीन है। 

हालांकि यह सच है कि कॉलेजियम में पारदर्शिता की पूरी कमी है, विशेष रूप से इसकी चर्चाओं के संबंध में, यह आत्म-सुधार का मामला है और न्यायाधीशों की नियुक्ति और कार्यपालिका को शक्ति सौंपने के तरीकों को उलटने की मांग नहीं करता है। इस दिशा में, कॉलेजियम को अपने कामकाज में अधिक पारदर्शिता और बेंच पर अधिक विविधता दिखानी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया फैसले में यह विचार किया गया है कि कॉलेजियम में चर्चा मौखिक है, और इसकी मिनट्स दर्ज नहीं की जाती हैं, और न ही सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत 'सूचना' के अर्थ में यह आ सकती है। यह जवाबदेही से बचने की चतुर युक्ति है, जो किसी को रास नहीं आती है।

जैसा कि द लीफलेट ने रिपोर्ट किया था, ऐसे दो मामले सामने आए हैं जहां कॉलेजियम ने दो बार एसोशिएशन के नामों की सिफारिश की थी और दो बार सरकार ने उन्हे खारिज कर दिया था (जो कानून के विपरीत है); उन्हें बाद में कॉलेजियम ने ही वापस ले लिया था। चूंकि यह कैसे और कब हुआ, इसकी कोई जानकारी नहीं थी, इसलिए कॉलेजियम के सदस्यों के किसी भी समूह को जिम्मेदार ठहराना मुश्किल है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि यह पतन भीतर से ही हुआ था। कार्यपालिका के ऊपर बाहर से कितने भी हमले हों लेकिन वे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को ध्वस्त नहीं कर सकते हैं, लेकिन कार्यपालिका से हाथ मिलाने के लिए उनके भीतर से इच्छा होनी चाहिए। यहीं पर बार एसोशिएशन को न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खड़े होने में भूमिका निभानी होगी।

अगर सौरभ कृपाल की सिफारिश को दोहराया नहीं गया, तो यह निश्चित रूप से भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को गैर-अपराधीकरण ठहराने और न्यायाधीश के रूप में समलैंगिक व्यक्ति की नियुक्ति को सक्षम नहीं करने के फैसले को अधिकृत करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के पाखंड को ही उजागर करेगा।

मुख्य न्यायधीश और कॉलेजियम के सदस्य वर्तमान बहुसंख्यक सरकार के सत्ता में दो कार्यकाल और 2024 में होने वाले चुनाव के साथ इतिहास के सिरे पर खड़े हैं।  एक गैर-जिम्मेदार कार्यकारी की वजह से संवैधानिक मूल्यों का क्षरण, धर्मनिरपेक्षता पर जानबूझकर हमला, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की कथा को ऐसे प्रचारित किया जाता है जैसे वह संविधान से भी ऊपर की चीज़ है, और अल्पसंख्यकों और उदारवादी विचार के प्रति घृणा अब पूरे देश में और अदालती फैसलों में अच्छी तरह से दिखाई दे रही है। इसके साथ नागरिक समाज और गैर-सरकारी संगठनों पर 'शहरी नक्सलियों' के नाम पर हमला किया जा रहा है, या तो उन्हे खत्म करने या जेलों में बंद करने की जरूरत महसूस की जा रही है। 

क्या सर्वोच्च न्यायालय इसमें नेतृत्व प्रदान करेगा और उस संवैधानिक विचार को जीवित रखेगा, यह एक खुला प्रश्न है। लेकिन यह दुखद होगा यदि न्यायपालिका इतिहास में उस पल को पहचानने में विफल रह जाती है जिससे यह स्थिति पैदा हुई है। जबकि आपातकाल हमारे सामने काले-सफ़ेद कागज़ की साफ़ था, लेकिन हमने यह भी देखा है कि वकील, लेखक और शोधकर्ता अरविंद नारायण आज की स्थिति को 'अघोषित आपातकाल' को क्या कहते हैं। अदालत ने अब तक इस पर एक अलौकिक चुप्पी बनाए रखी है, और बिलकीस बानो मामले में समीक्षा याचिका को खारिज करना अलौकिक चुप्पी का ही एक हिस्सा है। लेकिन हम केवल इतना कह सकते हैं कि लड़ाई अभी शुरू हुई है और वकील इसें महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

जमानत का न्यायशास्त्र

जमानत का न्यायशास्त्र इस वर्ष के लिए खुशी की बात थी। बॉम्बे हाई कोर्ट ने अकादमिक और एक्टिविस्ट डॉ. आनंद तेलतुंबडे को जमानत दी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा। लेकिन न्यायशास्त्र अभी भी अस्थिर जमीन पर है। इसका एक स्पष्ट उदाहरण कार्यकर्ता उमर खालिद को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा और कार्यकर्ता ज्योति जगताप को बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा जमानत से इनकार करना था।

न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलर ने अपनी सेवानिवृत्ति की पूर्व संध्या पर एक फैसला सुनाया, जिसने पत्रकार और कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, और सेवानिवृत्त भारतीय पुलिस सेवा अधिकारी आर.बी.श्रीकुमार को सीधे जेल भेज दिया, जो एक और न्यायिक घालमेल था। इसी तरह, एक्टिविस्ट हिमांशु गुप्ता की साख पर सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने सवाल उठाया और न्यायमूर्ति जे.बी. पर्दीवाला के आदेश के तहत उन्हे इसी तरह का परिणाम झेलना पड़ा। 

ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ एक कदम आगे और एक कदम पीछे का सिद्धान्त अपनाया है, जिससे हम एक ठहराव पर आ गए हैं। न्यायमूर्ति खानविलकर की सेवानिवृत्ति का विशेष उल्लेख उनके निर्णयों के लिए होना चाहिए जिनमें मानवाधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा की जरूरत के बारे में जागरूकता का अभाव था। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, पीएमएलए मामले में उनकी अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा दिए गए उनके निर्णय ने ही अभियोग के खिलाफ अधिकार के सभी न्यायिक मानकों को समाप्त कर दिया, जिसे सार्वभौमिक अस्वीकृति मिली थी; हालाँकि, स्याही के सूखने से पहले ही पीएमएलए के फैसले को फिर से खोल दिया गया था।

परेशान करने वाले रुझान

अभी खबर आई है कि केंद्र सरकार ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से जज के पद से रिटायर हुए जस्टिस हेमंत गुप्ता को नई दिल्ली इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन सेंटर का चेयरपर्सन नियुक्त किया है।

सेवानिवृत्ति के बाद दो साल की उपयुक्त कूलिंग ऑफ अवधि के बिना नियुक्तियों की निंदा की जानी चाहिए क्योंकि वे न्यायिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करती हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि न्यायमूर्ति गुप्ता ने अपनी सेवानिवृत्ति से कुछ सप्ताह पहले ही कर्नाटक में हिजाब पर प्रतिबंध को बरकरार रखा था।

इतिहास यह दर्ज करेगा कि क्या हमारी अदालतें संस्कृति को संविधान पर हावी होने देंगी।

इसी तरह, कर्नाटक उच्च न्यायालय की तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रितु राज अवस्थी, जिन्होंने हिजाब पर उच्च न्यायालय के फैसले को लिखा था, को अब भारत के विधि आयोग का प्रमुख नियुक्त किया गया है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता में इस तरह के हस्तक्षेप का अंत हम कब देखेंगे? यह भारतीय जनता पार्टी के अपने विचारक अरुण जेटली के उस कथन के भी खिलाफ है, जिसमें उन्होने कहा था कि सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद सार्वजनिक पदों पर न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं की जानी चाहिए क्योंकि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित होती है।

मामले लंबित पड़ना जारी हैं 

जबकि तीन संविधान पीठों ने अदालतों के माध्यम से अपना रास्ता खोज लिया है, ईडब्ल्यूएस फैसले के अलावा, हमने नोटबंदी, जल्लीकट्टू, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति, या संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत विवाह के विघटन पर कोई निर्णय नहीं देखा है। न ही नागरिकता संशोधन अधिनियम, नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए को चुनौती, चुनावी बॉन्ड को चुनौती या संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से संबंधित मामलों को ठोस सुनवाई भी नहीं हुई है।

साथ ही, महाराष्ट्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के एक मामूली अंतरिम आदेश पर कायम है, कोई नहीं जानता कि यह एक वैध सरकार है या नहीं। सत्ता में किसी राज्य सरकार का यह पहला उदाहरण होना चाहिए कि वह यह नहीं जानती कि वह लंबे समय तक असंवैधानिक है या नहीं। भविष्यवाणियां की जा रही हैं कि घोषणा से पहले, महाराष्ट्र में चुनाव कराए जाएंगे, जिससे यह कवायद बेकार हो जाएगी।

न्यायाधीशों की नियुक्तियां 

आखिरकार, हमने तीन न्यायाधीशों की नियुक्ति देखी, जिनमें से एक न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता थे, जिनकी नियुक्ति दो महीने तक रुकी रही। हमें यह भी पता चला कि केंद्र सरकार ने खुले तौर पर समलैंगिक वकील सौरभ कृपाल की दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति को उन कारणों से खारिज कर दिया था जो सार्वजनिक डोमेन में नहीं हैं, लेकिन तथ्य यह है कि उनका साथी एक विदेशी नागरिक है। इसका श्रेय देना होगा कि कृपाल ने जज बनने के लिए अपनी सहमति वापस लेने से इनकार कर दिया था, जैसा कि उन्होंने कहा, "मैं यह सब एक समुदाय के लिए कर रहा हूं, न कि खुद के लिए"।

यदि इस किस्म की सिफारिश को दोहराया नहीं जाता है, तो यह निश्चित रूप से भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को गैर-अपराधीकरण करने और न्यायाधीश के रूप में समलैंगिक व्यक्ति की नियुक्ति के रास्ते को न खोलने से सर्वोच्च न्यायालय का पाखंड उज़ागर हो जाएगा। इसके तुरंत बाद सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति के मामले में नए पांच नामों की गई सिफारिश, एक सौदे जैसी लग रही थी, जिसमें एक भी नाम अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या महिला न्यायाधीश का नहीं था। सही सोच रखने वालों के लिए यह बड़ी निराशा की बात थी।

सुप्रीम कोर्ट में अब केवल एक पद बचा है, और शायद इसे एक सांकेतिक न्यायाधीश द्वारा भरा जाएगा। ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के लिए कोई महिला जज उपलब्ध नहीं थीं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक काफी वरिष्ठ महिला न्यायाधीश थी, भले ही नियुक्त न्यायाधीशों के समान वरिष्ठ न हो। उनके नाम पर विचार किया जाना और स्थान दिया जाना चाहिए था।

अंतिम शब्द 

सरकार और न्यायपालिका के बीच एक अजीब सा खिचाव दिख रहा है। सरकार अदालत में लंबित मुद्दों पर टिप्पणी कर रही है। हाल ही में, भाजपा के राज्यसभा सदस्य सुशील कुमार मोदी ने कहा कि भारतीय संस्कृति समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देती है, यह उन्होने तब कहा जब वे अच्छी तरह से जानते हैं कि मामला अदालत में लंबित है।

हमारी अदालतों को न्यायधीन या विचाराधीन मामलों पर बेतुकी बातों या सलाह की जरूरत नहीं है। जब सरकार को किन्ही सवालों के जवाब देने से बचना होता है, तो वह बड़ी आसानी से कह देती है कि, "कोई टिप्पणी इसलिए नहीं की जा सकती है, क्योंकि मामला न्यायधीन है"। जबकि अन्य समय में, संविधान के खिलाफ संस्कृति का आह्वान किया जाता है।

इतिहास यह दर्ज करेगा कि क्या हमारी अदालतें संस्कृति को संविधान पर हावी होने देंगी; मुझे पूरी उम्मीद है कि नहीं। एक शक्तिशाली बहुसंख्यकवादी सरकार के सभी हमलों के खिलाफ न्यायपालिका की रक्षा करने का भार कानूनी पेशे से जुड़े व्यक्तियों के कंधों पर है।

इंदिरा जयसिंह एक प्रसिद्ध मानवाधिकार वकील और भारत के सर्वोच्च न्यायालय की वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। वे द लीफ़लेट की सह-संस्थापक भी हैं।

 

Courtesy: The Leaflet

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