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भारत को ‘एशियाई नाटो’ से कुछ भी हासिल नहीं

यह अजीब है कि भारत की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा  जो अपनी आस्तीन पर भी राष्ट्रवाद का चोगा पहनती है, इतनी उत्सुकता से कैसे ऐसे मैदान में उतर रही है जहां आसियान देश भी उतरने से डरते हैं।
भारत को ‘एशियाई नाटो’ से कुछ भी हासिल नहीं
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 1 जून, 2018 को सिंगापुर में वार्षिक शांगरी ला सम्मेलन में मुख्य भाषण देते हुए।

अगर मोदी सरकार की विदेश नीति के बारे में आपके दो विचार हैं, तो आप क्या करेंगे? मेरा जवाब: सही विचार के लिए अमेरिकी विदेश विभाग के अधिकारियों के होठों को पढ़ना जरूरी है। वे आपको भारत के गुप्त चाणक्य के ’विदेश नीति’ के महारथियों की आधिकारिक सोच की तरफ इशारा करते दिखाई देंगे। 

खुदा के लिए कभी भी इस बात पर तवज्जो न दें कि विदेश मंत्री एस॰ जयशंकर समय-समय पर क्या कहते हैं, ऐसा कर आप खुद को गुमराह करेंगे। मैं 31 अगस्त को यूएस-इंडिया स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप फोरम द्वारा आयोजित एक ऑनलाइन चर्चा में अमेरिकी विदेश मंत्री स्टीफन बेगुन की आश्चर्यजनक टिप्पणियों को सुनने के बाद इस कटु आकलन पर पहुंचा हूं।

हालांकि उनकी टिप्पणी काफी लंबी थी- जो विचारशील, अच्छी तरह से संरचित और स्पष्ट रूप से पहले से तय समझ के आधार पर व्यक्त की गई थी। 

बेगुन, हालांकि, कोई ‘भारतीय सहयोगी’ नहीं हैं, बल्कि अमेरिकी राज्य विभाग में नंबर 2 अधिकारी हैं और वे आधिकारिक तौर पर अमेरिकी व्यवसायी हैं और रूसी भाषी राजनयिक हैं, जो जॉर्ज डब्ल्यू बुश प्रशासन में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में कर्मचारी रह चुके हैं तथा वे ट्रम्प प्रशासन में उत्तर कोरिया में अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि भी रह चुके हैं।

सोमवार को की गई इस टिप्पणी के दौरान बेगुन ने स्पष्ट रूप से यह भी खुलासा किया कि अमेरिका भारत-प्रशांत क्षेत्र के देशों, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ अपने रक्षा संबंधों को नजदीकी और औपचारिक रूप देना चाहता है- वह उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) की तर्ज़ पर ऐसा चीन का मुकाबला करने के उद्देश्य और करना चाहता है।

इस रहस्योद्घाटन पर अच्छी तरह से तर्क हुआ, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह कार्य प्रगति पर है। साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, बेगुन ने कहा कि वाशिंगटन का उद्देश्य चार देशों के समूह के साथ मिलकर काम करना है ताकि “चीन से संभावित चुनौती…” (और) के खिलाफ एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए एक साथ काम किया जा सके और साथ ही साझा मूल्यों और हितों की रक्षा के लिए क्रिटिकल मास (नाभिकीय द्रव्यमान) बनाया जा सके, जो इंडो-पैसिफिक के अलावा दुनिया भर से अधिक देशों को आकर्षित कर सके... अंततः अधिक संरचित तरीके से आपसी सहयोग बन सके।
 
बेगुन के मुताबिक, “इंडो-पैसिफिक यानि भारत-प्रशांत क्षेत्र वास्तव में मजबूत बहुपक्षीय संरचनाओं यानी सैन्य तंत्र की कमी है। उनके पास नाटो या यूरोपीय संघ की तर्ज़ पर कुछ भी नहीं है। एशिया में बहुत अधिक मजबूती वाले संस्थान अक्सर नहीं पाए जाते हैं, मुझे लगता है कि यह सब पर्याप्त नहीं है और इसलिए ... निश्चित रूप से इस तरह की संरचना या ढांचे को औपचारिक बनाने के लिए कुछ बिंदुओं पर काम करने की जरूरत है। याद रखें, यहां तक कि नाटो ने भी अपेक्षाकृत मामूली आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के साथ शुरुआत की थी और कई देशों ने (शुरुआत में) नाटो की सदस्यता पर तटस्थता को चुना था।"

बेगुन ने एक चेतावनी भी दी कि अमेरिका “प्रशांत नाटो” के मामले में अपनी महत्वाकांक्षाओं पर "नज़र" रखेगा, इस तरह के गठबंधन पर ज़ोर देते हुए उन्होने कहा कि यह "केवल तभी होगा जब अन्य देश अमेरिका की तरह प्रतिबद्ध होंगे।"

उन्होंने यह भी बताया कि इन चारो देशों की बैठक इस शरद ऋतु में नई दिल्ली में होने की संभावना है और इसके लिए उदाहरण के रूप में भारत में होने वाली आगामी मालाबार नौसेना अभ्यास में ऑस्ट्रेलिया की संभावित भागीदारी का हवाला दिया गया है जो औपचारिक रक्षा ब्लॉक बनाने की दिशा में प्रगति का संकेत है।

बेगुन ने कहा कि अमेरिका वियतनाम, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड को अंततः 'चार देशों के समूह' के विस्तारित संस्करण में शामिल करना चाहता है, इसका उदाहरण इस बात से दिया गया कि इन देशों के अधिकारियों के साथ ‘चार देशों के समूह’ की कोविड-19 के मसले हुई "बहुत मिलनसार" थी। 
उन्होंने बताया कि सात देशों के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच बैठकें "बहुत दोस्ताना थी और  अविश्वसनीय रूप से उत्पादक चर्चा थी, और उस पर कवायद या थी कि कि हमें इन सभी देशों को एक प्राकृतिक समूह के रूप में देखना चाहिए जो वास्तव में इस गठजोड़ को आगे बढ़ाने का बेहतर काम करेंगे, जो प्रशांत के हित में भी काम करेगा।"

बड़ी उत्सुकता से, जयशंकर ने भी इस ऑनलाइन चर्चा में भाग लिया। लेकिन जो बेगुन ने कहा कि उसे हम जयशंकर से भी सुनने के अभ्यस्त हो चुके हैं, अर्थात् भारत की कोई गलत मानसिकता नहीं है; ये चार देशों का समूह किसी भी देश के खिलाफ निर्देशित नहीं है; और भारत स्वतंत्र विदेशी नीतियों को आगे बढ़ाने का इरादा रखता है।

क्या जयशंकर जानबूझकर भारतीय जनता को गुमराह कर रहे हैं? दरअसल, यहां कुछ ओर गंभीर मुद्दे उठते हैं। सरकार की ओर से इस पर चुप्पी की साजिश से पता चलता है कि अमेरिका के साथ एक सैन्य गठबंधन करने का मतलब है कि भारत व्यवस्थित ढंग से कुछ समय से काम कर रहा है। विशेष रूप से, यह भारत के चीन के साथ वर्तमान सैन्य गतिरोध को जोड़ता है।

चीन के साथ गतिरोध, मोदी सरकार को खुद वास्तविक एजेंडे को लागू करने का औचित्य प्रदान करता है- बस यह एक भारतीय विदेश नीति संस्थान के चार देशों के समूह को खुले तौर पर "एशियाई नाटो" में बदलना की अन्यत्र कोशिश होगा। यह एक गहरी चिंताजनक सोच है।

यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं आई, बल्कि 1 जून 2018 को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिंगापुर में शांगरी ला डायलॉग में मुख्य भाषण दिया था, जो एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत की नीतियों की एबीसी को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। यह एक सरगर्मी वाला भाषण था, लगभग इसकी मौलिकता और दृष्टि में “नेहरूवादी” सोच थी। यहाँ उस भाषण के कुछ अंश दिए जा रहे हैं:
“भारत-प्रासांत एक कुदरती क्षेत्र है। यह वैश्विक अवसरों और चुनौतियों की एक विशाल व्यूह-रचना भी है... आज, हमारा मिलकर काम करने और विभाजन और प्रतिस्पर्धा से ऊपर उठने का आहवान किया जा रहा है... समावेशी, खुलेपन और आसियान की प्रमुखता और एकता, नए इंडो-पैसिफिक के दिल में बसा है। 

“भारत इंडो-पैसिफिक यानि बारात-प्रशांत क्षेत्र को एक रणनीति के रूप में या सीमित सदस्यों के क्लब के रूप में नहीं देखता है। न ही एक समूह के रूप में जो हावी होना चाहता है। और किसी भी तरह से हम इसे किसी देश के खिलाफ निर्देशित नहीं मानते हैं। एक भौगोलिक परिभाषा, जैसे, यह नहीं हो सकता है कि भारत-प्रशांत क्षेत्र के लिए भारत की दृष्टि एक सकारात्मक दृष्टि है, यह एक मुक्त, खुली, समावेशी क्षेत्र है, जो प्रगति और समृद्धि की आम खोज में हम सभी को गले लगाता है। इस भूगोल में सभी राष्ट्रों के अलावा अन्य लोग भी शामिल हैं जिनकी इसमें हिस्सेदारी है।

“दक्षिण पूर्व एशिया इसके केंद्र में है। और, आसियान हमेशा अपने भविष्य के मामले में केंद्र में रहा है। यही वह दृष्टि है जो हमेशा भारत का मार्गदर्शन करेगी, क्योंकि हम इस क्षेत्र में शांति और सुरक्षा की एक वास्तुकला का सहयोग करना चाहते हैं। प्रतिद्वंद्विता का एशिया हम सभी को पीछे छोड़ देगा। सहयोग का एशिया इस सदी को आकार देगा।

"हम वेदांत दर्शन के वारिस हैं, जो सभी की आवश्यक एकता में विश्वास करते हैं, और जो विविधता में एकता के विश्वास पर आधारित हैं, एकम सत्यम, विप्राः बहुदावदंति। यह हमारे सभ्यतावादी लोकाचार की नींव है- जिसमें बहुलवाद, सह-अस्तित्व, खुलेपन और संवाद का मार्ग है।”

यह असंभव है कि मोदी अपने शांगरी ला भाषण में भारत की विश्व-दृष्टि की महान समावेशिता की निष्ठा में इससे अधिक सुधार कर सकते हैं, यह आसियान की प्रमुखता और बहुलवाद और सह-अस्तित्व के मूल्यों का बखान करती है जो इसे पोषित करता है। फिर भी, सपाट दो साल के समय में, मोदी जी का यह दूरदर्शी भाषण सीधा कूड़ेदान में चला गया। क्या यह एक खोखला भाषण था?

महान देश विश्व स्तर पर इस तरह के फ्लिप-फ्लॉप यानि गप्पेबाज़ी नहीं करते हैं खासकर जब देश की मान्यताओं और लोकाचारों की बात होती है। क्या यह संभव है कि महामारी के कारण राष्ट्रिय पक्षी मोर के आस-पास रहने वाले मोदी इस बात से अनजान हों कि उनके विदेश मंत्री इस शरद ऋतु में दिल्ली में एक क्वाड मिनिस्टर की मेजबानी करने की योजना बना रहे हैं, जो "एशियाई नाटो" बनाने से पहले की कसरत है?

मोदी सरकार ने भारत की संयम बेल्ट को हटा दिया है और इसे महाशक्ति के हरम में एक और रखैल बनाने की तैयारी में है। आधुनिक इतिहास बताता है कि अमेरिकी किसी भी देश के साथ समान संबंध बनाने में असमर्थ रहा हैं। सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग भारत के औपनिवेशिक इतिहास को कितनी जल्दी भूल गए हैं?

सबसे अजीब किस्सा यह है कि भारत की सत्तारूढ़ पार्टी, जो हर वक़्त अपनी आस्तीन पर राष्ट्रवाद का चोगा पहने रहती है, बहुत उत्सुकता से ऐसी जगह आगे बढ़ रही है जहां आगे बढ़ने से आसियान देशों को भी डर लगता है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

India Gains Nothing Out of ‘Asian NATO’

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