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स्वास्थ्य पर बात करने के लिए भारतीय मीडिया पश्चिम का इंतज़ार करता है

जिस समय चीन COVID-19 से जूझ रहा था उसी दौरान भारत इस बात पर डींगे मार रहा था कि POTUS को देखने के लिए मोटेरा स्टेडियम में एक लाख लोग इकट्ठा हुए थे। ज्योतिरादित्य के स्वागत में भी बीजेपी कार्यकर्ता भारी संख्या में जुटे थे। तब एहतियात रखे जाने की ज़रूरत कहाँ गुम हो गई थी? 
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छायाचित्र मात्र प्रतिनिधित्व हेतु। सौजन्य: लाइवमिंट

भारत में कुछ नहीं तो भी रोज़ 600 से लेकर 1,000 लोग तपेदिक या कहें कि टीबी के रोग से मारे जाते हैं। पूरी दुनिया में इस रोग से मारे जाने वालों का यह आँकड़ा 4,400 प्रतिदिन का बैठता है। चीन में भी नोवेल कोरोनावायरस या COVID-19 वाली इस छुतहा बीमारी से पिछले दो महीनों में क़रीब चार हज़ार मौतें हो चुकी हैं। जबकि 2016 में अकेले भारत में ही टीबी के कारण 4.8 लाख से कहीं अधिक लोग मारे गए थे। जबकि विश्व भर में टीबी से होने वाली सालाना मौतों का यह आँकड़ा 14 लाख तक है।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि टीबी से अपनी ज़िंदगियाँ गँवा देने की संख्या में हाल के वर्षों में गिरावट दर्ज की गई है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में दुनियाभर की सरकारों द्वारा इस सम्बन्ध में बेहतर स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं। लेकिन हाल के दिनों में किसी भी स्वास्थ्य मंत्री ने संसद के पटल पर टीबी से होने वाले गंभीर स्वास्थ्य संकटों से आगाह नहीं किया है।

इस बात को वर्षों बीत चुके हैं जब किसी भी टीवी चैनल ने टीबी से सम्बन्धित मौतों को अपने प्राइमटाइम ख़बरों में प्रमुखता से उठाया हो। लेकिन 12 मार्च को कुछ चैनलों ने स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्धन के COVID-19 पर दिए गए बयान, जिसमें अब तक 73 लोगों के प्रभावित होने की घोषणा की गई थी, को बड़ी ख़बर के रूप में प्रचारित प्रसारित करने में भूमिका निभाई। [फिलहाल ऐसे मामलों की संख्या 113 की हो चुकी है।]

स्वास्थ्य मंत्री के अनुसार COVID-19 से प्रभावित होने वाले लोगों में सत्रह लोग विदेशी पाए गए हैं, जबकि 56 लोग भारतीय हैं। इनमें से चार लोग अब ठीक भी हो चुके हैं। बाद में जाकर कर्नाटक से पहली मौत की ख़बर आई है जहाँ एक 76 वर्षीय एक व्यक्ति के इस वायरस की चपेट में आ जाने के चलते मौत की ख़बर आई है। जबकि दूसरी मौत की ख़बर दिल्ली के एक मरीज़ की प्राप्त हुई है।

स्वास्थ्य मंत्री के बयान के कुछ ही मिनटों के भीतर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने नोवेल कोरोनावायरस को एक महामारी घोषित कर दिया और 31 मार्च तक सभी सिनेमाघरों, स्कूलों और कालेजों को बंद किये जाने की घोषणा कर दी है। केवल वही शिक्षण संस्थान खुले रहेंगे, जहाँ अभी परीक्षाएं चल रही हैं। इसी तरह हरियाणा में भी इसे एक महामारी घोषित कर दिया गया है।

इस बात में कोई शक नहीं कि COVID-19 एक वैश्विक स्तर पर बेहद ख़तरनाक महामारी के रूप में सामने आया है और साथ ही इसके भारत में व्यापक पैमाने पर फैलने का ख़तरा बना हुआ है। लेकिन इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस मामले में पहली ख़बर जनवरी के अंत में केरल से आई थी। पिछले दो महीनों में जाकर यह आँकड़ा भारत में 83 तक पहुँच सका है। जिस व्यक्ति में इसके लक्षण पॉजिटिव पाए गए थे उस व्यक्ति के बारे में पता चला है कि वह चीन के वुहान से लौटा था। [उसके इस रोग से संक्रमित होने की भयावह कहानी और बाद में मौत की खबरें भारत की मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं की दुःखद तस्वीर पेश करते हैं, हालाँकि यह एक अलग ही किस्सा है।] इसके अलावा ज़्यादातर विदेशी जो इस बीमारी से ग्रस्त थे वे इटली से यहाँ आये थ, जो कि इस बीमारी से चीन के बाद दूसरा सबसे अधिक प्रभावित होने देश है।

यहाँ पर किसी भी प्रकार से भारत और दुनिया में COVID-19 से उत्पन्न होने वाले ख़तरों को कमतर आंकने की बात नहीं की जा रही है। लेकिन यह सवाल तो पूछना बनता ही है कि ऐसा क्यों है कि इससे भी कहीं खतरनाक स्तर पर भारत में व्याप्त टीबी, मलेरिया, टाइफाइड इत्यादि जैसी बीमारियों पर संवेदनशील होने की बात तो रही रही दूर, इस ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया जाता है।

क्या इसके पीछे वजह ये तो नहीं कि पश्चिम के कोरोनावायरस पर हो-हल्ले के चलते ही अचानक से हमारे यहाँ भी सरकार ने इस ओर अपना ध्यान देना शुरू कर दिया है? जैसा कि शुरुआत से ही स्वास्थ्य मामलों के जानकार कह रहे हैं कि व्यापक स्तर पर नोवेल कोरोनावायरस के लक्षणों की जाँच की जानी चाहिए और इस वायरस से बचने के लिए आवश्यक प्रतिबंधात्मक क़दमों को लिए जाने की आवश्यकता है।

लेकिन जब तक यह COVID-19 की महामारी हमारे पड़ोसी देश चीन के लोगों को प्रभावित करती रही हमने निश्चित तौर पर इन ख़तरों के प्रति कोई ध्यान नहीं दिया। हकीकत तो ये है कि चीन जिस समय इस महामारी से बुरी तरह जूझ रहा था, ठीक उसी समय हम संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के भव्य स्वागत की तैयारियों में जुटे हुए थे। हम गर्व से उद्घोषणा करने में व्यस्त थे कि 24 फ़रवरी को अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम में हमने उनके स्वागत के लिए एक लाख से अधिक लोगों को जुटाया था।

यहीं पर एक बात पर और भी विचार किये जाने की जरूरत है: सोचिये यदि COVID-19 से आसन्न खतरे की घंटी को समय से बजा दिया गया होता और 23 फ़रवरी से पहले इस प्रकार के प्रतिबंधों को लागू कर दिया जाता तो दिल्ली की स्थिति तब क्या होती? इसमें कोई शक नहीं कि जिस प्रकार से दंगाई भीड़ फ़रवरी के अंतिम सप्ताह में उत्तर-पूर्वी दिल्ली के इलाकों में लोगों की हत्याओं, उन्हें अपंग और घायल करने, संपत्तियों को लूटने और जलाकर राख करने में मशगूल थी, तो इस पैमाने पर विनाश हर्गिज न होते।

कहने को तो कह सकते हैं कि भारत में टीबी जैसी बीमारियों पर भी कुछ ध्यान दिया जा रहा है, लेकिन शेष विश्व की तुलना में अभी भी अधिक संक्रमित है। अक्सर इस बीमारी के सम्बन्ध में हम टेलीवीज़न में विज्ञापनों के ज़रिये बड़े-बड़े फ़िल्मी सितारे को देखते रहते हैं। लेकिन इसे छोड़ दें तो नियमित तौर पर हम टीबी जैसी बीमारी के उत्पन्न होने वाले कारणों और इसे किस प्रकार से रोका जा सकता है, पर किसी प्रकार की चर्चाओं को होते नहीं देखते। टीबी के अलावा भी ऐसी अनेकों घातक बीमारियाँ हैं जैसे कि कैंसर, मलेरिया, डायबिटीज़ और कई अन्य बीमारियाँ जो हर साल अनगिनत जानें निगल रही हैं।

इनमें से कई ऐसी बीमारियाँ हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि इनके भारत में पाए जाने और दुनियाभर में इनके चलते होने वाली मौतों के मुख्य केंद्र के रूप में हम बने हुए हैं। लेकिन इस सबके बावजूद शायद ही कभी हम भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं को इन तमाम बीमारियों पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत को देख पाते हैं। और अब हम इससे आशा करते हैं कि यह अचानक से इस महामारी से निपटने में सक्षम हो सकती है........ 

विडम्बना का अंत यहीं पर नहीं हो जाता। अपने समय का एक बड़ा हिस्सा भारतीय मीडिया स्वाइन फ़्लू, बर्ड फ़्लू जैसी बीमारियों पर फूँकने में लगाते आपने देखा होगा। एक बार फिर से बताते चलें कि इसका हर्गिज मतलब ये नहीं कि इन स्थितियों पर ध्यान दिए जाने की कोई जरूरत नहीं है। हमारा जोर सिर्फ इस बात को लेकर है कि हमारी मीडिया और सरकार उसी दशा में जागती है जब पश्चिमी मीडिया में उस पर हो-हल्ला मचता है। हमारे अपने देश में घट रही घटनाओं या पड़ोसी देशों में क्या हो रहा है, इससे उसका सरोकार न के बराबर ही है।

इस सम्बन्ध में कोई भी यह तर्क रख सकता है कि COVID-19 की तरह ही अन्य बीमारियों के वायरस बड़ी तेजी से फैल सकते हैं और लोगों के इससे संक्रमित होने का ख़तरा बना हुआ है। लेकिन इसके लिए तो हमें कहीं बेहतर और दीर्घकालीन योजना की ज़रूरत है। उल्टा भारत में हर साल कई रहस्यमयी बीमारियों से सैकड़ों की संख्या में बच्चों की मौत हो जाती है, और बात आई-गई कर दी जाती है।

याद करिए ठीक एक साल पहले बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में क्या हुआ था। बच्चों की मौतों के सिलसिले पर राज्य सरकार ने इस ‘रहस्यमयी’ बीमारी का सारा दोष लीची जैसे फल की पैदावार पर डालना उचित समझा। बाद में जाकर इसे जापानी इन्सेफेलाइटिस के रूप में चिन्हित किया गया था। हक़ीक़त में देखें तो यह महामारी वर्षों से देश के मध्य-पूर्वी हिस्सों में बरक़रार है। यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हाल ही में इन्हीं परिस्थियों में अर्ध-वार्षिक तबाही देखने को मिली थी।

यह एक और विडम्बना मुहँ बाए हमारे सामने खड़ी है: सोचिये अगर आमतौर पर हम मौसमी बीमारियों तक से निपट पाने में अक्षम हैं, जो कि हमारे जलवायु और भौगालिक परिस्थितिवश फलती-फूलती हैं। ऐसे में हमारे शासक वर्ग को क्या हक बनता है कि वे कोरोनावायरस से लोगों को आगाह करने के के नाम पर तूफ़ान खड़ा करें?

क्या यह बेकार की कसरत नहीं कि सारे देश को बंद कर देने या यहाँ तक कि किसी राज्य में बंदी थोपने के बावजूद जैसा कि इटली या चीन में किया गया, हम मौजूदा बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं के ज़रिये उसे रोक सकते हैं? भारत की समूची भू-सामाजिक संरचना अन्य देशों से भिन्न है। वर्तमान में देखें तो COVID-19 का विस्तार विकसित देशों में हो रहा है, जिनका रिकॉर्ड बताता है कि हमारी तुलना में उनके यहाँ साफ़-सफाई का बेहतर प्रबंध है। जबकि भारतीय मीडिया प्रचार का माल-मसाला इन्हीं देशों से जुटा रही है और बढ़-चढ़कर इस वायरस के बारे में अपने प्रचार में जुटी है। जबकि हमारे देश की परिस्थितियों से मेल खाते एशिया, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका जैसे गरीब और पिछड़े देशों में होने वाली इसी प्रकार की घटनाओं-दुर्घटनाओं की वह लगातार अनदेखी करती आई है। 

जबकि हक़ीक़त ये है कि भारत की आर्थिक, सामाजिक परिस्थितियाँ पश्चिमी देशों की तुलना में बाद के देशों की श्रेणी से कहीं अधिक मेल खाती हैं। डॉक्टरों के बार-बार अपील करने के बावजूद कि हमें इस सम्बन्ध में लोगों के बीच चिंता फैलाने की ज़रूरत नहीं है, हमारे राजनेताओं और मीडिया कर्मियों में जनता को इन ख़तरों से आगाह करने की मानो होड़ मची हुई है। मजे की बात ये है कि यही मीडिया जो इस वायरस के ख़तरों पर लगातार सलाह पर सलाह देने में लगी हुई है, अंत में धीरे से बताना नहीं भूलती कि इसको लेकर आतंकित होने की जरूरत नहीं है।

केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों के राजनेता मानो इस नोवेल कोरोनावायरस को खुद के लिए एक रक्षा कवच के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत में अब बैंकों की तालाबंदी, आर्थिक मंदी, दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों जैसे मुद्दे अब कोई सवाल ही नहीं रहे। उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं कि उनकी ही हरकतों की वजह से देश को कहीं ज़्यादा नुक़सान हो रहा है। 

ग़ौर करें तो आप पायेंगे कि 7 मार्च की इस सलाह के पाँच दिनों के बाद भी हज़ारों की संख्या में बीजेपी कार्यकर्ताओं की भीड़ भोपाल एअरपोर्ट पर जमा हुई। ये लोग कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के अब भगवा पार्टी में शामिल होने की ख़ुशी में स्वागत-सत्कार के लिए जुटे थे। जहाँ एक तरफ़ सारे देश को COVID-19 के ख़तरों से लगभग बंदी की ओर धकेला जा रहा हो, वहीं दूसरी ओर एक कांग्रेस सरकार के तख्तापलट के अभियान को पूरी रफ़्तार से अंजाम देने में कोई समस्या नज़र नहीं आती।

इस बात की पूरी संभावना है कि बेहद जल्द दुनिया इस COVID-19 से जूझ रहे मरीज़ों के लिए एक वैक्सीन तैयार कर ले। लेकिन इस विलक्षण राजनीतिक बीमारी का क्या करें जो चुनी हुई सरकारों की असामयिक मौतों की ज़िम्मेदार है। इस बीमारी का टीका तैयार होने में शायद अभी काफी वक्त और लगे।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Indian Media Forgets About Healthcare When the West Is Not Talking About it

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