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टीबी के ख़िलाफ़ भारत की जंग: बदतर हालात, चुप्पी साधे सरकार, दवाओं के स्टॉक खाली

टीबी के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में भारत का खराब प्रदर्शन जारी है, लेकिन डेलमानिड के स्टॉकआउट होने और परीक्षण किट्स की कमी के रूप में अतिरिक्त चुनौतियां सामने आ रही हैं। इन कमियों के बारे में कार्यकर्ताओं और सीएसओ की बार-बार पूछताछ के बावजूद सरकार मुंह खोलने के लिए तैयार नहीं है। 
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टीबी फोटो सौजन्य: स्क्रॉल डॉट इन 

वैश्विक स्तर पर क्षय रोग (टीबी) के खिलाफ लड़ाई कोविड-19 महामारी के कारण बुरी तरह प्रभावित हुई है।

  • “कोविड-19 महामारी के चलते एक दशक से अधिक समय में ऐसा पहली बार हुआ है, जब टीबी के निदान एवं उपचार तक पीड़ितों की कम पहुंच हो सकने के कारण टीबी से होने वाली मौतों की तादाद में वृद्धि हुई है।" 
  • "टीबी-पीड़ितों में से लगभग आधे लोगों की 2020 में देखभाल नहीं की जा सकी और उनकी रिपोर्ट नहीं की गई।"
  • “पिछले वर्षों में टीबी से ग्रस्त होने के मामले में हासिल की गई एक सतत गिरावट (प्रत्येक वर्ष टीबी से ग्रस्त होने वाले लोगों की संख्या) की दर धीमी हो गई है, बल्कि वह लगभग रुकी पड़ी है। इन दुष्प्रभावों के 2021 और 2022 में बहुत ज्यादा खराब होने का अनुमान है।" 

उपरोक्त दिए गए बिंदु दरअसल विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा 14 सितम्बर 2021 में शुरू किए गए ग्लोबल ट्यूबरकोलिसिस रिपोर्ट, 2021 के निष्कर्ष हैं। 

वैश्विक संदर्भ में भारत की स्थिति में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया है और यह टीबी के खिलाफ लड़ाई में पहले से ही पिछड़ा हुआ है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 के दौरान, भारत में एचआइवी-निगेटिव लोगों में टीबी से होने वाली वैश्विक मौतों का 38% और एचआईवी-निगेटिव और एचआईवी-पॉजिटिव लोगों में टीबी से होने वाली मौतों की कुल संख्या का 34% था। भारत में भी दुनिया भर में सभी प्रकार के टीबी के अनुमानित मामलों का 26% हिस्सा है। डब्ल्यूएचओ द्वारा 2021-2025 की अवधि के लिए जारी वैश्विक सूची में, भारत उन तीन सर्वोच्च देशों में शामिल है, जिन पर टीबी, एचआइवी से जुड़े टीबी और एमडीआर/आरआर-टीबी पीड़ितों की देखभाल करने का सर्वाधिक भार है।

डब्ल्यूएचओ की यह रिपोर्ट टीबी से पीड़ित लोगों की संख्या की सूचना देने में एक बड़ी वैश्विक गिरावट की ओर इशारा करती है और बताती है कि इंडोनेशिया और फिलीपींस के साथ ही भारत इस क्षय रोग से सबसे बुरी तरह पीड़ित है। 2019 और 2020 के बीच सूचनाएं दर्ज न करने की वैश्विक गिरावट वाले देशों में, भारत 41% के साथ शीर्ष पर रहा था।

रिपोर्ट के अनुसार, 2019 और 2020 के बीच टीबी के नए मामलों का पता लगाने और उनकी रिपोर्टिंग करने में की गई पर्याप्त कमी टीबी के नैदानिक और उपचार सेवाओं के लिए जरूरी आपूर्ति और मांग, दोनों पक्षों में हुए व्यवधान को दर्शाती है। जैसा कि ग्लोबल कोएलिशन टीबी एक्टिविस्ट्स की सीईओ ब्लेसीना कुमार बताती हैं, “2020 में इस संस्था के भागीदारों के साथ मिलकर किए गए पहले टीबी एवं कोविड-19 सर्वेक्षण में टीबी रोगियों पर पड़े कोविड-19 के नकारात्मक प्रभावों पर प्रकाश डाला गया था। इसका मकसद वैश्विक टीबी समुदाय को कोविड-19 में टीबी से लड़ाई के संसाधनों, मौद्रिक और मानव, दोनों को ही स्थानांतरित किए जाने से उत्पन्न परिणामों के बारे में सचेत करना था।” लेकिन, वे यह भी कहती हैं: "हम इसका सारा का सारा दोष कोविड-19 पर नहीं मंढ़ सकते। हां, कोविड विश्व में एक झटके के रूप में आया है, लेकिन ऐसा नहीं है कि हम इससे पहले टीबी की रोकथाम व उपचार के क्षेत्र में कोई बहुत बेहतर काम कर रहे थे। हम कोविड के पहले भी बहुत खराब प्रदर्शन कर रहे थे।" 

दुनिया के मौजूदा महामारी की चपेट में आने के पहले, भारत शीर्ष 10 उच्च टीबी पीड़ित देशों में शामिल था। 2019 में, भारत में टीबी के सबसे अधिक 26.4 लाख मामले थे। वर्ष में भारत में मल्टीड्रग रेजिस्टेंस/रिफैम्पिसिन-प्रतिरोधी टीबी के भी सबसे अधिक 1.2 लाख मामले थे। 2019 में, भारत एचआइवी से जुड़ी टीबी श्रेणी के तहत टीबी/एचआइवी के अनुमानित 71,000 मामलों के साथ विश्व में दक्षिण अफ्रीका के बाद दूसरे नंबर पर रहा था। 

कोविड-19 के साथ, स्थिति और बदतर हो गई है। हालांकि इंडिया टीबी रिपोर्ट-2021 कहती है कि दिसंबर के मुकाबले स्थिति में सुधार हुआ है। लेकिन निक्षय पोर्टल के आंकड़ों का कहना है कि 2021 में भी टीबी के बारे में कम सूचनाएं दर्ज की गईं। मई-जून 2021 में सूचनाएं सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में संयुक्त रूप से 2.67 लाख थीं। यह संख्या 2020 में मई-जून के समान महीनों में दर्ज 2.78 लाख सूचनाओं से कम है। 

इन संबंधित आंकड़ों और इसके विपरीत सबूतों के बावजूद, सरकार उत्साहित है, जैसा कि उसका दावा है कि वह 2025 तक टीबी मुक्त भारत बनाने के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। 

दवाएं एवं अन्य कमी पर सरकार से कोई जवाब नहीं 

यद्यपि सरकार "जन-जन को जगाना है, टीबी को भगाना है" के नारे लगा रही है, पर ऐसा लगता है कि वह टीबी कार्यकर्ताओं और नागरिक सोसायटी की तरफ से स्वास्थ्य मंत्रालय और राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) को लिखी गई चिट्ठियों पर कुंभकर्णी निद्रा में है। 

कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज संगठनों ने 30 सितंबर, 2021 को लिखे एक पत्र में, टीबी से बचे लोगों, सरकार को डेलमानिड (Delamanid),  सीबीएनएएटी परीक्षण किट के स्टॉक-आउट तथा बच्चों एवं देश के विभिन्न हिस्सों में एचआइवी के साथ जीवन जी रहे लोगों (PLHIV) की जांच के लिए टीबी स्क्रीनिंग टूल के उपलब्ध न होने के बारे में सचेत किया था। कुमार बताती हैं कि धरातल पर यह स्थिति लगातार गंभीर बनी हुई है। 

हालांकि, आज तक, सरकार की ओर से उन पत्रों की बाबत कोई जवाब नहीं आया है। इसे देखते हुए कार्यकर्ता फिर से एक पत्र भेजने की योजना बना रहे हैं। न्यूज़क्लिक ने भी एनटीईपी को एक प्रश्नावली भेजी है और सरकार के जवाब का इंतजार कर रही है। 

ब्लेसीना कुमार का कहना है कि सरकार को कम से कम इस बात की तो जानकारी देनी चाहिए कि मौजूदा स्थिति क्या है, उन रोगियों तक बेरोकटोक पहुंच बनाने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं, जिन्हें दवा की सख्त जरूरत है और कि, इस काम में नागरिक समाज और समुदाय सरकार का क्या समर्थन कर सकते हैं। कुमार कहती हैं कि जिन लोगों को डेलमानिड रेजिमेन पर रखा गया है और जिन्हें इस दवा की तत्काल आवश्यकता है। सरकार को उनके लिए जल्द से जल्द दवा की व्यवस्था करनी चाहिए। 

इसी तरह की स्थिति की सूचना 2020 की शुरुआत में मिली थी, जब डेलमानिड की आपूर्ति घट गई थी या उसे लेकर एक अनिश्चितता बनी हुई थी। अनुदान में मिली खुराक खत्म हो रही थी और इसके एकमात्र आपूर्तिकर्ता, माइलान इंक के माध्यम से खरीद का आदेश आने में समय लग रहा था। 

डेलमानिड डब्ल्यूएचओ की आवश्यक दवाओं की मॉडल सूची-2019 में दर्ज है। यह दवा प्रतिरोधी टीबी के इलाज के लिए विकसित एक महत्त्वपूर्ण टीबी दवा है। यह खाने वाली दवा है, जो टीबी के मरीजों को भयानक दुष्प्रभाव वाले पीड़ादायक इंजेक्शन से राहत देती है। 

एक टीबी से नीरोग हुए गणेश आचार्य, जो एक कार्यकर्ता भी हैं, उनका कहना है, “2020 में, केवल 400 खुराक (कोर्स) ही उपलब्ध थी। हमने इसकी अधिक खुराकों की खरीद के लिए सरकार को कोई प्रयास करते भी नहीं देखा है। सिर्फ मुंबई में ही हर साल 5,000-6,000 एमडीआर टीबी के मामले सामने आते हैं। इसके केवल एक छोटे से हिस्से को ही उपचार नसीब हो पाता है। उत्तर प्रदेश में, उन्होंने सिर्फ दो मरीजों को यह दवा दे रहे हैं, जबकि इतने सारे मामले तो बस छूटे ही जा रहे हैं। झारखंड में, अब वे 1-2 लोगों को खाने वाली दवा देने की योजना बना रहे हैं।” 

“ठाणे में, एक्सडीआर टीबी से पीड़ित एक 14 वर्षीय लड़की को डेलमानिड की जरूरत थी, लेकिन उसे इंजेक्शन लगाए गए हैं। यह इंजेक्शन बहुत ही दर्दनाक है और इसके गंभीर दुष्प्रभाव होते हैं। हमने इस बारे में हर सरकारी विभाग को लिखा था लेकिन कहीं से कोई जवाब नहीं मिला। फिर हमें देश में स्थित डब्ल्यूएचओ के स्थानीय कार्यालय से इन दवाओं की व्यवस्था करने का अनुरोध करना पड़ा,”आचार्य कहते हैं। 

धरातल पर ऐसी हताशाकारी और निराशाजनक स्थिति '2025 तक टीबी मुक्त भारत' जैसे नारों का मजाक उड़ाती है। आचार्य के अनुसार, "यह बहुत ही खेदजनक स्थिति है कि हमें हर एक मरीज के दवा-दारू के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उस लड़की के लिए डेलमानिड पाने में 3-4 महीने लग गए। और हम पिछले 10-20 सालों से ऐसे ही हालात में जी रहे हैं। पिछले 50 वर्षों में, टीबी के लिए केवल एक-दो दवाएं ही विकसित हुई हैं, इस क्षेत्र में शोध के लिए कोई निवेश नहीं है।” 

दवा का स्टॉक न होने के अलावा, सीबीएनएएटी किट्स, विशेष रूप से जीनएक्सपर्ट मशीन का स्टॉक खत्म हो गया है, क्योंकि एनटीईपी ने उनकी खरीद प्रक्रिया को विकेंद्रीकृत कर दिया था। इन चीजों को राज्य सरकारों पर छोड़ने का मतलब है कि इस मुद्दे पर कोई केंद्रीकृत प्रतिक्रिया नहीं होगी जिससे मरीजों की जमीनी स्थिति और खराब हो जाएगी। कार्यकर्ताओं के पत्र में कहा गया है कि यह टीबी और डीआर-टीबी की अग्रिम स्क्रीनिंग के लिए एक गंभीर झटका है, जैसा कि ड्रग-रेसिस्टेंट टीबी दिशानिर्देश 2021 के प्रोग्रामेटिक मैनेजमेंट द्वारा वादा किया गया था। इसलिए कार्यकर्ताओं ने केंद्र/एनटीईपी से उन राज्यों को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करने की मांग की है, जो किट्स को खरीदने में असमर्थ रहे हैं।

अनिवार्य लाइसेंस से इनकार: सरकार द्वारा झूठे दावे? 

डेलमानिड एक पेटेंट दवा है, जिसकी बाजार में कीमत बहुत ज्यादा है। जापानी फार्मा कंपनी ओत्सुका फार्मास्युटिकल्स का इसके पेटेंट पर एकाधिकार है, जो अक्टूबर 2023 तक वैध है। देश में डेलमानिड का एकमात्र आपूर्तिकर्ता माइलान इंक है, जो एक अमेरिका-आधारित कंपनी है, जिसे ओत्सुका ने इसके विपणन का विशेष अधिकार दिया हुआ है। नतीजतन, वैकल्पिक आपूर्तिकर्ताओं को इन दवाओं की कम लागत वाले जेनेरिक संस्करण उत्पादन और उन्हें बनाने के काम से बाहर रखा गया है। 

जैसा कि न्यूज़क्लिक ने पहले बताया था, मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंट (एमडीआर) और एक्सट्रीम ड्रग रेसिस्टेंट (एक्सडीआर) टीबी के मरीजों के लिए डेलमानिड और बेडाक्विलाइन जैसी नई टीबी दवाएं उपलब्ध कराने के लिए 2020 में एक जनहित याचिका (पीआइएल) बॉम्बे हाईकोर्ट में दायर की गई थी। इस पीआइएल को मुंबई के दो टीबी पीड़ितों-मीरा यादव और ब्रिनेल डिसूजा (जन स्वास्थ्य अभियान, मुंबई की ओर से याचिकाकर्ता) ने दायर किया है, जिसमें पेटेंट अधिनियम 1970 के तहत बेडाक्विलाइन और डेलमानिड के लिए अनिवार्य लाइसेंस/सरकारी उपयोग प्राधिकरण प्रदान करने की मांग की गई है।

हालांकि, सरकार इस आधार पर ऐसी अनिवार्य लाइसेंस (सीएल) देने से इनकार कर रही है कि देश में इन दवाओं की पर्याप्त आपूर्ति है, जिनसे मरीजों की जरूरतों को पूरी की जा सकती है। पर मौजूदा स्टॉकआउट को देखते हुए सरकार का दावा धराशायी हो जाता है। टीबी से स्वस्थ हुए लोगों और नागरिक समाज संगठनों के पत्र में कहा गया है कि "2021 में 1275 अमरीकी डॉलर प्रति खुराक की दर से डेलमानिड की माइलन से आपूर्ति के एक प्रस्ताव की फाइल स्वास्थ्य मंत्री के कार्यालय में लंबित है, जबकि साल का तीन चौथाई समय बीत गया है।"

आचार्य को यह घोर दुष्टता लगती है कि जहां एक ओर भारत ने कोविड-19 की दवाओं और निदान के लिए विश्व व्यापार संगठन (WTO) में TRIPS में छूट देने का एक प्रस्ताव दिया है, वहीं सरकार देश में टीबी दवाओं के उत्पादन के लिए अनिवार्य लाइसेंस देने का ही विरोध कर रही है, जबकि फार्मा कंपनियां लोगों के जीवन को वरीयता देने की बजाए अकूत मुनाफा कूतने की मंशा रखी हुई हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

India’s Fight against TB: Govt’s Eerie Silence over Worsening Situation, Drug Stockouts

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