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इतने सारे चौकीदार, फिर भी लूट ही लूट

हाल की रिपोर्टों से पता चलता है कि सार्वजनिक धन की कॉर्पोरेट लूट ने बड़ा रिकॉर्ड बना लिया है, फिर भी पीएम मोदी और उनके अनुयायी सार्वजनिक धन के 'चौकीदार' होने का दावा कर रहे हैं।
इतने सारे चौकीदार, फिर भी लूट ही लूट

पिछले कुछ दिनों में कुछ रिपोर्टें सामने आई हैं जिनमें पता चला है कि कॉर्पोरेट निकाय जनता के पैसे की लूट को चौंकाने वाले पैमाने तक ले गयी है। ज़रा ध्यान से देखें:

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच वर्षों ( यानि 2014 से 2018) में, बैंकों ने ख़राब ऋणों (एनपीए) की श्रेणी के 5.56 लाख करोड़ रुपये के ऋण को माफ़ किया है। यहाँ ‘माफ़ करने’ का अर्थ है कि ऋण को चुकाए बिना उसे वापस किए गए ऋण की श्रेणी में डाल दिया जाता है।

इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 200 से अधिक कंपनियों के फ़ोरेंसिक ऑडिट किए गए, जो दिवालियापन होने (इनसॉल्वेंसी) की कार्यवाही का सामना कर रही थी, इन ऑडिट में दिखाया गया है कि इन कंपनियों द्वारा एक लाख करोड़ रुपये की अनियमितताएँ बरती गयी थीं। इसमें निधियों का विचलन, बैंकों को धोखा देना, परिपत्र लेनदेन (धोखा करने के लिए पैसे के लेन-देन को खातों में घुमाना) आदि शामिल है।

इसमें बैंक धोखाधड़ी, विलफ़ुल डिफ़ॉल्टरों (जानबूझकर किया गया आर्थिक धोखा) और आर्थिक भगोड़ों पर इस साल की शुरुआत में संसद में मजबूरन सरकार द्वारा किए कुछ खुलासे भी शामिल हैं:

1 लाख करोड़ से अधिक की बैंक की धोखाधड़ी, जो 2015-16 में 4,693 करोड़ रुपये से बढ़कर 2016-17 में 5,076 करोड़ हो गई थी जो आगे चलकर  2017-18 में 5,917 करोड़ रुपये हो गई थी, इसके बारे में इस वर्ष फ़रवरी में राज्य सभा में प्रश्न संख्या 973 के जवाब में बताया गया था।

और:

इस साल जनवरी में राज्यसभा में प्रश्न संख्या 2125 के एक जवाब में, सरकार ने कहा कि 41 ऐसे आर्थिक अपराधी थे जिन्होंने बैंकों को धोखा दिया और विदेश भाग गए, जिनमें से 12 के पास 31 मार्च, 2017 तक 1,97,769 करोड़ रुपये की संचयी (इकट्ठी) बक़ाया राशि थी और शेष 29 लोगों के पास बक़ाया राशि 30 जून, 2017 तक 1,35,846 करोड़ रुपये थी। यह कुल राशि लगभग 3.34 लाख करोड़ रुपए बैठती है।

फ़रवरी में, राज्यसभा में एक और प्रश्न स. 969 के जवाब में खुलासा हुआ कि विलफ़ुल डिफ़ॉल्टरों द्वारा 1.55 लाख करोड़ रुपया बैंकों को देना है (जिसमें 25 लाख या उससे अधिक रुपये का ऋण शामिल है) ये वे हैं जिनके ख़िलाफ़ मुक़दमे दर्ज किए गए हैं।

इस सब को एक साथ जोड़ें, तो पिछले कुछ वर्षों में सार्वजनिक धन की हुई बेहिसाब लूट की एक सच्ची तस्वीर आपके सामने आ जाएगी - जो कि नरेन्द्र मोदी के वर्ष कहलाते हैं।

जैसा कि हम सभी जानते हैं, ख़राब ऋण या एनपीए (ग़ैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ) मोदी के शासन में तेज़ी से बढ़ी हैं, आंशिक रूप से लेखांकन के कड़े नियमों के कारण, जो अंतरराष्ट्रीय समझौतों ने अनिवार्य किए हैं, लेकिन मुख्य रूप से यह मुक्त ऋण की नीति के कारण ऐसा हुआ है। 31 दिसंबर, 2018 तक सकल एनपीए (कुल ग़ैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ) 8.64 लाख करोड़ रूपए तक पहुँच गयी हैं, इस बाबत भारतीय रिज़र्व बैंक ने वित्त मंत्रालय को अपने अंतिम आंकड़े दिए थे, जिन्हें राज्यसभा की प्रश्न संख्या 969 के जवाब में उसकी प्रतिक्रिया थी। यह सकल 63.21 लाख करोड़ रुपये की अग्रिम राशि का 13.6 प्रतिशत है।

मोदी सरकार के तहत धीरे-धीरे इसमें जो नया आयाम उभर कर आ रहा है, वह यह है कि जब प्रधानमंत्री स्वयं दावा करते हैं कि वे देश के ख़ज़ाने और सुरक्षा के चौकीदार हैं, तो उनके ही काल में इतने ऋण का गबन करने वाले पहले नहीं देखे गए हैं।

एनपीए को निपटाने के बहाने बैंकों ने उन्हें माफ़ करना शुरू कर दिया ताकि वे अपने खातों में दिखा सकें कि ख़राब क़र्ज़ की मात्रा कम हो गई है। यह भी सबको पता है कि बैंकों के ख़राब ऋण की लगभग 80 प्रतिशत राशि कॉर्पोरेट्स ने ज़ब्त की हुई है। यह मान लेना गलत नहीं होगा है कि ज़्यादातर क़र्ज़ माफ़ी में कॉरपोरेट उधारकर्ता शामिल हैं। तकनीकी रूप से, माफ़ किया गया ऋण अभी भी वसूला जा सकता है। लेकिन बैंकों को ऐसा करने में कोई दिलचस्पी नहीं है क्योंकि उन्होंने इसे पहले से ही अपने खातों की पुस्तकों से हटा दिया है। औसतन, एनपीए से माफ़ किए गए क़र्ज़ की वसूली लगभग 15 प्रतिशत है। इस प्रकार, 5.56 लाख करोड़ रुपये का तोहफ़ा कॉर्पोरेट्स को उपहार के रूप में सौंप दिया गया।

भाजपा सरकार ने दिवालियापन की जाँच के लिए बनी दिवालिया संहिता (आईबीसी) को ही उन कार्पोरेट के पक्ष में कर दिया ताकि दिवालिया होने वाली कंपनियों की अराजकता को रास्ते पर लाया जा सके, सरकार के इस क़दम से बैंक काफ़ी आहत हुए। जैसा कि यह पता चला है, कि आई.बी.सी. के संचालन के ज़रिये बड़ी मछलियों ने छोटी मछलियों को हड़पने का एक सुनहरा मौक़ा पा लिया है – वह भी सबसे नीचे के दामों पर। कथित तौर पर, दिवालिया प्रक्रिया से गुज़रने वाले 1,400 मामलों में से, लगभग 900 को अभी भी हल किया जाना है। लेकिन इकोनॉमिक टाइम्स की पहले की रिपोर्ट में उल्लेख मिला कि इन दिवालिया कंपनियों द्वारा लगभग 1 लाख करोड़ रुपये की अनियमितताएँ समाधान प्रक्रिया के वक़्त सामने आई थीं। यह उन कंपनियों के लिए है जो दिवालिया हो गई हैं, इसलिए आप सोच सकते हैं कि उन कंपनियों में क्या चल रहा है जो अभी भी सक्रिय हैं और काम कर रही हैं। अनियमितताओं में संपत्ति का अनाधिकृत निर्माण, संबंधित संस्थाओं के माध्यम से अघोषित लेनदेन (यहाँ आईएलएफ़ एंड एस को याद रखा जाना चाहिए), परिपत्र लेन-देन, पसंदीदा समूह के साथ लेन-देन को तरजीह देना, परियोजनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना, क़र्ज़ देने वालों को धोखा देना और धन को गबन कर जाना आदि शामिल हैं।

फिर, निश्चित रूप से, आपके पास 41 आर्थिक भगोड़े हैं (जैसे नीरव मोदी, विजय माल्या, मेहुल चोकसी, आदि) जो लगभग 3 करोड़ 40 लाख रुपये लेकर ग़ायब हो गए हैं और ख़ुशी से विदेश में घुम रहे हैं। माल्या और मोदी हाल ही में (चुनाव से ठीक पहले) ब्रिटेन में पकड़े गए और उनका प्रत्यर्पण का मामला जारी है। लेकिन पैसा तो चला गया।

अन्य सभी डिफ़ॉल्टरों  के बारे में, जिन पर मुक़दमा दायर नहीं हुआ है, आरबीआई ने उन डिफ़ॉल्टरों की पहचान बताने से इनकार कर दिया है जिन्होंने एक  करोड़ रुपये या उससे अधिक की धोखाधड़ी की है और ग़ैर-मुक़दमा दायर विलफ़ुल डिफ़ॉल्टरों जिन्होंने 25 लाख या उससे अधिक की धोखाधड़ी की है को भी "गोपनीय" रखा, इनके बारे में आरबीआई ने भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 की धारा 45ई के तहत सूचना देने से इनकार कर दिया है। आरबीआई ने 500 करोड़ रुपये से ऊपर के बकाएदारों की एक सूची सुप्रीम कोर्ट में एक सीलबंद कवर में दी है और कहा है कि उक्त जानकारी गोपनीय है और अनुरोध किया गया है कि इसे जनता के सामने प्रकट नहीं किया जाए। केवल एक चीज़ जो आरबीआई ने बताई है वह है विलफ़ुल डिफ़ॉल्ट की राशि – जो क़रीब 15.5 लाख करोड़ रुपये है। शुक्रवार को, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय बैंक को डिफ़ॉल्टरों की सूची और निरीक्षण रिपोर्ट जारी करने के लिए कहा है, यह कहते हुए कि "इस तरह की जानकारी का खुलासा न करना राष्ट्र के आर्थिक हित के लिए हानिकारक होगा।"

हालांकि, यह सारी की सारी लूट ख़ुद हमारे महान चौकीदार की चौकस नज़र के नीचे हुई है! इस धन का उपयोग उन किसानों के ऋण के निपटान के लिए किया जा सकता था जो आत्महत्या कर रहे हैं, या इसे ग्रामीण नौकरी की गारंटी योजना मनरेगा में लगाया जा सकता था, ताकि बेरोज़गारी से पीड़ित लाखों लोगों को कुछ राहत मिल सके, या इसका इस्तेमाल मज़बूत और सार्वभौमिक राशन प्रणाली को बनाने के लिए किया जा सकता था। या सार्वजनिक भलाई के कई अन्य कार्यों के लिए किया जा सकता था। लेकिन यह सब बड़े कॉरपोरेट और क्रोनियों के लिए अच्छे दिन लाने के लिए किया गया है।

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