इतवार की कविता : "हम सामईं पे क़हर न ढाएँ जहां-पनाह..."
इतवार की कविता में आज पढ़िये शायर अहया भोजपुरी की 2 ग़ज़लें।
1.
मतलब का कोई शे'र सुनाएँ जहाँ-पनाह
हम सामईं पे क़हर न ढाएँ जहाँ-पनाह
बच्चों को भूके पेट सुलाने के बाद हम
कैसे ग़ज़ल के शेर सुनाएँ जहाँ-पनाह
हर सू बिखेरता हो बराबर सी रौशनी
ऐसा भी इक चराग़ जलाएँ जहाँ-पनाह
पर्दे के पीछे बैठ के खेलेंगे कब तलक
पर्दे के सामने भी तो आएँ जहाँ-पनाह
गर जान की अमाँ हो तो दरख़्वास्त है मिरी
फूलों को ख़ार से न मिलाएँ जहाँ-पनाह
2.
तुम्हारी तारीख़ कोई बदले उसे मिटाए तो सर उठाओ
अगर शराफ़त न काम आए न हक़ दिलाए तो सर उठाओ
कहीं उजाला कहीं अंधेरा बग़ैर साज़िश नहीं है मुमकिन
चराग़ जब रौशनी बराबर न बाँट पाए तो सर उठाओ
किसी के हिस्से की बारिशें जब किसी की फ़स्लों को लहलहाएँ
और उस की साज़िश का शक हवा पर अगर न जाए तो सर उठाओ
अगर हो काँटों की क़द्र-ओ-क़ीमत किसी चमन में गुलों से बढ़ कर
और उस का माली दलील दे उस को हक़ बताए तो सर उठाओ
क़लम उठाओ नज़र मिलाओ तुम अब लब-ए-एहतिजाज खोलो
मुख़ालिफ़त से मुनाफ़िक़त को कोई बुलाए तो सर उठाओ
किसी की बातों में तुम न आओ न सर उठाओ न सर झुकाव
अगर तुम्हारा ज़मीर जागे तुम्हें जगाए तो सर उठाओ
ये क्या कि हर वक़्त जी-हुज़ूरी में सर झुकाए हुए हो अहया
अगर बग़ावत का पर तुम्हारा भी फड़फड़ाए तो सर उठाओ
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