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जीत-हार के चुनावी सबक

गुजरात में भाजपा की जीत में उसकी हार छिपी है और कांग्रेस की हार में उसकी जीत छिपी है, लेकिन हिमाचल प्रदेश का सबक स्पष्ट है कि सत्ता में रहते हुए भी यदि आपने जनता से संपर्क नहीं रखा तो जनता आपको सिंहासन से उतार देगी।
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हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनाव अपने आप में अनोखे रहे। पहली बार ऐसा हुआ कि चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद हम सबको गहराई से सोचने पर विवश किया। बहुत से विश्लेषण हुए और विद्वजनों ने अपनी-अपनी राय रखी। सच तो यह है कि हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा के चुनाव परिणामों में मतदाताओं ने सत्तारूढ़ दल, विपक्ष और चुनाव आयोग को अलग-अलग संदेश दिये हैं। आइये, इन संदेशों को समझने का प्रयत्न करते हैं।

नरेंद्र मोदी ने गुजरात जीत कर दिखा दिया है लेकिन उनकी जीत में हार का कसैला स्वाद भी शामिल है। यह एक कटु सत्य है कि भाजपा गुजरात हार चुकी थी और अमित शाह की रणनीति तथा ब्रांड मोदी के प्रभामंडल ने भाजपा को गुजरात वापिस उपहार में दिला दिया। अमित शाह और नरेंद्र मोदी न होते तो गुजरात किसी भी हालत में भाजपा की झोली में न जाता। सौराष्ट्र का जल संकट, किसानों के लिए अलाभप्रद होती जा रही खेती, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में लूट का आलम, बढ़ती बेरोज़गारी और विभिन्न आंदोलनों आदि की गंभीरता को अमित शाह और नरेंद्र मोदी भी तभी समझ पाये जब चुनाव प्रचार के दौरान उनका मतदाताओं से सामना हुआ, अन्यथा वे सिर्फ अपनी नीतियों का ढोल पीटने में ही मशगूल थे। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने जीएसटी के नियमों में तुरत-फुरत परिवर्तन किया और व्यापारियों की नाराज़गी दूर करने में सफल हुए। मोदी ने मणिशंकर अय्यर द्वारा ‘नीच’ शब्द के प्रयोग को खूब भुनाया। जमीन पर कांग्रेस का संगठन न होना, पाटीदारों का बँट जाना और नरेंद्र मोदी का गुजराती होना भी उनके काम आया। अमित शाह ने हमेशा की तरह इस चुनाव में भी बूथ-स्तर तक स्वयं को जोड़ा और संगठन शक्ति के कारण सत्ता में वापिस आये। इस बार पहली बार मतदान का प्रतिशत 71.3 प्रतिशत से घटकर 68.5 प्रतिशत पर आ गया, और महिलाओं तथा ग्रामीण क्षेत्रों में इसका स्पष्ट प्रभाव देखने को मिला। भाजपा और कांग्रेस, दोनों के वोट प्रतिशत बढ़े। भाजपा का वोट प्रतिशत सन् 2012 के 47.8 प्रतिशत से बढ़कर 49.1 प्रतिशत हो गया जबकि इसी दौरान कांग्रेस का वोट प्रतिशत 38.9 प्रतिशत से बढ़कर 41.4 प्रतिशत हो गया। लेकिन इसमें जो बड़ा पेंच है, वह यह है कि भाजपा का वोट बैंक शहरी क्षेत्रों में इतना अधिक बढ़ा कि उसने उसके कुछ वोट प्रतिशत को बढ़ा दिया जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा को वोट प्रतिशत में जबरदस्त हानि हुई है। यही कारण है कि उसे शहरी क्षेत्र की 85 प्रतिशत सीटों पर जीत मिली जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस उस पर हावी रही।

दूसरी ओर, किसी बड़े स्थानीय नेता तथा संगठन के अभाव ने कांग्रेस को शहरी क्षेत्रों में मात दिलाई। हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर के समर्थन का कांग्रेस को लाभ मिला। यह कहना सरासर गलत है कि हार्दिक पटेल फैक्टर फेल हो गया। कांग्रेस को हार्दिक पटेल के समर्थन का भी लाभ मिला ही है। गुजरात में कांग्रेस-नीत गठबंधन एक मजबूत विपक्ष के रूप में उभरा है। देखना यह होगा कि अगले पाँच सालों में इसकी भूमिका क्या रहती है और वे सत्तारूढ़ पक्ष की नीतियों को जनता के हक में कितना प्रभावित कर पाते हैं।

गुजरात में प्रधानमंत्री के गृहनगर में भाजपा हारी है, भाजपा के 6 मंत्री चुनाव हार गए हैं और हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए हैं। संदेश स्पष्ट है कि यदि आप अपनी नीतियों को लेकर सिर्फ गाल बजाते रहेंगे और जनता की बात नहीं सुनेंगे तो जनता भी आपको नकार देगी फिर चाहे नेता कितना ही बड़ा क्यों न हो। सन् 2014 के लोकसभा चुनाव के समय राहुल गांधी को अमेठी में इसी स्थिति का सामना करना पड़ा था जब प्रियंका को मैदान में आकर स्थिति संभालनी पड़ी थी, लेकिन उसके बाद कोई और रचनात्मक कार्य न होने के कारण नतीजा यह रहा कि अमेठी में स्थानीय निकायों के चुनाव में कांग्रेस का सफाया हो गया। राहुल गाँधी के लिए जनता का स्पष्ट संदेश है कि वे संगठन मजबूत करें और जनता से संपर्क बनायें। गुजरात में राहुल ने इसकी अच्छी शुरुआत की है और लगता है कि अब वे संगठन की मज़बूती पर भी काम करेंगे। उनकी कार्यशैली ही उनका और कांग्रेस का भविष्य तय करेगी। फिलहाल राहुल गाँधी को जो सबसे बड़ा लाभ मिला है वह यह है कि वे न केवल वरिष्ठ कांग्रेसजनों का विश्वास फिर से हासिल करने में कामयाब हुए हैं बल्कि शेष विपक्ष भी अब उन्हें नई निगाह से देखने लगा है और कोई बड़ी बात नहीं कि आने वाले वर्षों में वे यूपीए के चेयरमैन के रूप में भी वैसे ही स्वीकार्य हो जायें जैसी कि सोनिया गाँधी रही हैं।

यह लोकतंत्र का सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण क्षण है कि इस देश में पहली बार चुनाव आयोग को शक की निगाह से देखा गया है। खबर यह भी है कि मुख्य चुनाव आयुक्त अरुण कुमार जोती, ईवीएम के चिप बनाने वाली कंपनी से जुड़े रहे हैं। यह लोकतंत्र पर बड़ा धब्बा है। नरेंद्र मोदी सभी संवैधानिक संस्थाओं को प्रभावहीन बनाने की जुगत में हैं जो बहुत खतरनाक है और इसके दूरगामी परिणाम होंगे। चुनाव आयोग को शक के दायरे से बाहर होना चाहिए। तकनीक के इस युग बैलेट पेपर पर वापिस लौटने की ज़िद बेमानी है लेकिन ईवीएम पर यदि शक की सुई है तो इसे दूर होना ही चाहिए।

मतदाताओं ने स्पष्ट रूप से बता दिया है कि यदि नेता, जनता से कट जाते हैं और अपने बड़े कद की खुमारी में रहते हैं तो जनता भी उन्हें सबक सिखाने में गुरेज़ नहीं करेगी। अमेठी में कांग्रेस की हार, वडनगर में भाजपा की हार और हिमाचल प्रदेश में धूमल की हार का सबक यही है कि जनता किसी को माफ नहीं करेगी, फिर वह चाहे प्रधानमंत्री हो या सबसे बड़े राष्ट्रीय दल का नेता ही क्यों न हो। अमित शाह ने गुजरात में हर स्तर पर मतदाताओं से संपर्क साधा और उन्हें आश्वस्त किया, मोदी ने जीएसटी के नियम ढीले किये, तब जाकर वे सत्ता बनाये रख पाने में सफल हुए। देखना यह है कि मोदी शेष नियम और नीतियाँ तय करते समय भी गुजरात का सबक याद रखेंगे या नहीं। जनता का एक और संदेश बहुत स्पष्ट है कि घोषणाओं से उसका पेट नहीं भरता, योजनाओं का ज़मीनी अमल ही परख की एकमात्र निशानी है। मीडिया लंबे समय से बताता आ रहा है कि घोषणाओं का कार्यान्वयन न के बराबर है, प्रधानमंत्री मोदी की "मेक इन इंडिया", "स्किल इंडिया", "स्टार्ट-अप इंडिया", "स्टैंड-अप इंडिया", "स्वच्छ भारत अभियान", "नमामि गंगे", "स्मार्ट पुलिस", "स्मार्ट सिटी" आदि घोषणाएँ फाइलों की धूल फाँक रही हैं और इनकी असफलता ने नरेंद्र मोदी को सही अर्थों में जुमलेबाज़ बना डाला है।

गुजरात में भाजपा की जीत में उसकी हार छिपी है और कांग्रेस की हार में उसकी जीत छिपी है, लेकिन हिमाचल प्रदेश का सबक स्पष्ट है कि सत्ता में रहते हुए भी यदि आपने जनता से संपर्क नहीं रखा तो जनता आपको सिंहासन से उतार देगी। कांग्रेस के विधानसभा चुनावों में उत्तरोत्तर हार का यह एक बड़ा कारण है। इससे कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही सबक सीख सकते हैं। लेकिन वे कितना सीखेंगे, कितना मंथन करेंगे और मंथन का कितना नाटक करेंगे, यह कहना इसलिए मुश्किल है क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और बड़े नेताओं के सामने कोई मुँह खोलने की हिम्मत नहीं करता। राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र के बिना असली परिवर्तन की गुंजाइश बहुत कम है। हम आशा ही कर सकते हैं कि नेतागण इस स्थिति में सुधार के लिए अहंकार का परित्याग करके कुछ ठोस काम करेंगे। आमीन!            v

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पीकेखुराना :: एक परिचय

पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे। वे मीडिया उद्योग पर हिंदी की प्रतिष्ठित वेबसाइट 'समाचार4मीडिया' के प्रथम संपादक थे।

सन् 1999 में उन्होंने नौकरी छोड़ कर अपनी जनसंपर्क कंपनी "क्विकरिलेशन्स प्राइवेट लिमिटेड" की नींव रखी, उनकी दूसरी कंपनी "दि सोशल स्टोरीज़ प्राइवेट लिमिटेड" सोशल मीडिया के क्षेत्र में है तथा उनकी एक अन्य कंपनी "विन्नोवेशन्स" देश भर में विभिन्न राजनीतिज्ञों एवं राजनीतिक दलों के लिए कांस्टीचुएंसी मैनेजमेंट एवं जनसंपर्क का कार्य करती है। एक नामचीन जनसंपर्क सलाहकार, राजनीतिक रणनीतिकार एवं मोटिवेशनल स्पीकर होने के साथ-साथ वे एक नियमित स्तंभकार भी हैं और लगभग हर विषय पर कलम चलाते हैं।          

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