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जम्मू-कश्मीर : भारत, पाकिस्तान और संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका

यह विवाद अगर बहुत लम्बे समय तक बना रहा तो जिस तरह से वैश्विक स्थितियां बदलेंगी, उस तरह से कश्मीर के लिए विश्व का नज़रिया बदलेगा।
UNSC
image courtesy:The Hindu

कश्मीर से आनन फानन में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद विरोध तो स्वाभाविक था। और यह भी स्वभाविक था कि यह मसला संयुक्त राष्ट्र संघ तक पहुंचेगा। लेकिन इतनी जल्दी पहुंचेगा इसका अंदाज़ा कम था। अमेरिकी समय के तहत न्यूयॉर्क में शुक्रवार सुबह 10 :30 बजे यानी भारतीय समय के अनुसार शाम 7 :30 बजेइंडियापकिस्तान क्वेश्चन के नाम से इस विषय पर इनफॉर्मल मीटिंग तय की गयी। पाकिस्तान ने इस मसले पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को 13 अगस्त को चिट्ठी लिखी। पाकिस्तान ने लिखा कि भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के बाद इमरजेंसी मीटिंग की जरूरत है। इस मसले पर पाकिस्तान का चीन के सिवायसुरक्षा परिषद के किसी भी सदस्य ने समर्थन नहीं किया। 

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के नियम 37 के तहत सुरक्षा परिषद के सदस्यों के अलावा कोई और भी सुरक्षा परिषद के औपचारिक मीटिंग में बोलने की अनुमति हासिल कर सकता है। लेकिन सुरक्षा परिषद की औपचारिक या फॉर्मल मीटिंग बुलाने की भी शर्त है। शर्त यह है कि जब तक सुरक्षा परिषद के15 अस्थायी सदस्यों में से बहुमत की राय फॉर्मल मीटिंग की नहीं होती, तब तक फॉर्मल मीटिंग नहीं बुलाई जा सकती है। इस तरह से यह मीटिंग केवल चीन के समर्थन से ही हुई और यह फॉर्मल मीटिंग नहीं थी। एक तरह की इनफॉर्मल मीटिंग है। इनफॉर्मल मीटिंग इसलिए क्योंकि मीटिंग के बाद जो कुछ भी निकलेगाउसका यह मतलब नहीं होगा कि सभी सदस्यों की उसपर हामी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रोसीजर से परिचित लोग तो यहां तक कहते हैं कि इनफॉर्मल मीटिंग के बाद सुरक्षा परिषद (UNSC) के अध्यक्ष द्वारा कोई बयान तभी जारी होगा जब सुरक्षा परिषद के सभी सदस्यों की उसपर सहमति हो।

मीटिंग हो चुकी है। और नियम के तहत न ही इस मीटिंग में पाकिस्तान शामिल था और न ही भारत शामिल था। और सुरक्षा परिषद की इस बैठक के बाद परिषद का कोई स्टेटमेंट बाहर नहीं आया। अनौपचारिक बैठक पूरी होने के बाद संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने मीडिया से कहा कि भारत का रुख  था कि संविधान के अनुच्छेद 370 संबंधी मामला पूर्णतया भारत का आतंरिक मामला है और इसका कोई बाह्य असर नहीं है।

बयान देने के बाद अकबरुद्दीन ने संवाददाताओं के प्रश्नों के उत्तर दिए जबकि चीन और पाकिस्तान के दूत अपने बयान देने के बाद तुरंत चले गए। उन्होंने संवाददाताओं को प्रश्न पूछने का मौका नहीं दिया।

उन्होंने पाकिस्तान का नाम लिए बगैर कहा कि कुछ लोग कश्मीर में स्थिति को ‘भयावह नजरिए’ से दिखाने की कोशिश कर रहे हैंजो वास्तविकता से बहुत दूर हैउन्होंने कहा, ‘वार्ता शुरू करने के लिए आतंकवाद रोकिए।

अकबरुद्दीन ने कहा कि जब देश आपस में संपर्क या वार्ता करते हैं तो इसके सामान्य राजनयिक तरीके होते हैं। ‘यह ऐसा करने का तरीका हैलेकिन आगे बढ़ने के लिए आतंकवाद का इस्तेमाल करने और अपने लक्ष्यों को पूरा करने जैसे तरीके को सामान्य देश नहीं अपनातेयदि आतंकवाद बढ़ता है तो कोई भी लोकतंत्र वार्ता को स्वीकार नहीं करेगा। आतंकवाद रोकिएवार्ता शुरू कीजिए।

बैठक के बाद चीनी और पाकिस्तानी दूतों के मीडिया को संबोधित करने के बारे में अकबरुद्दीन ने कहा, ‘सुरक्षा परिषद बैठक समाप्त होने के बाद हमने पहली बार देखा कि दोनों देश (चीन और पाकिस्तानअपने देश की राय को अंतरराष्ट्रीय समुदाय की राय बताने की कोशिश कर रहे थे। बैठक के बाद संयुक्त राष्ट्र में चीन के राजदूत झांग जुन ने भारत और पाकिस्तान से अपने मतभेद शांतिपूर्वक सुलझाने और ‘एक दूसरे को नुकसान पहुंचा कर फायदा उठाने की सोच त्यागने’ की अपील की। चीन ने कहाभारत के एकतरफा कदम ने उस कश्मीर में यथास्थिति बदल दी हैजिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक विवाद समझा जाता है। लद्दाख को लेकर चीन के कहा कि भारत के इस कदम ने चीन के संप्रभु हितों को भी चुनौती दी है और सीमावर्ती इलाकों में शांति एवं स्थिरता बनाने को लेकर द्विपक्षीय समझौतों का उल्लंघन किया है चीन काफी चिंतित है।

रूस के उप-स्थायी प्रतिनिधि दिमित्री पोलिंस्की ने बैठक कक्ष में जाने से पहले संवाददाताओं से कहा कि मॉस्को का मानना है कि यह भारत एवं पाकिस्तान का ‘द्विपक्षीय मामला’ है। बैठक यह समझने के लिए की गई है कि क्या हो रहा है

इतिहास की नज़र से

कश्मीर के मसले पर संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़ाव का इतिहास लम्बा रहा है। अभी हाल में चल रही घटनाओं को इतिहास के सिरे से भी जोड़कर समझना चाहिए। कश्मीर के मसले की शुरुआत 2019 से नहीं होती है बल्कि आज़ादी से पहले भारत के एकीकरण के मसले से शुरू होती है। भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 ( इंडियन इंडिपेंडेंट एक्ट, 1947 ) के तहत भारत को आजादी मिली। इसी अधिनियम के तहत उस समय भारत में दो तरह के राज्य थे। पहला जो ब्रिटिश प्रशासन और नियंत्रण के अधीन और दूसरा देशी रियासते या रजवाड़े। जिनपर ब्रिटिश हुकूमत रेजिडेंट के सहारे राज करती थी। ये रजवाड़े बिना इन रेजीडेंटों के पूछे कोई महत्वपूर्ण फैसला नहीं ले सकते थे। जब भारत आजाद हुआ तो ब्रिटिश प्रशासन के अधीन राज्य भारत और पाकिस्तान का स्वतः हिस्सा बन गए। लेकिन देशी रियासतों को तीन रास्ते में से किसी एक को चुनने के लिए कहा गया या तो भारत का हिस्सा बन जाए या पाकिस्तान का या स्वतंत्र रह जाएं।

भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 ( इंडियन इंडिपेंडेंट एक्ट, 1947 ) में इसका उल्लेख किया गया है। इस अधिनियम का सेक्शन 6 (A ) कहता है कि दो देश एक दूसरे से इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन के सहारे जुड़ेंगे और इस पत्र में उन शर्तों का भी उल्लेख करेंगेजिन शर्तों के आधार पर एक-दूसरे से जुड़ रहे हैं। इस तरह से इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन वह दस्तावेज हैजिसमें उन शर्तोंशक्तियों के बंटवारे का उल्लेख होगाजिसके तहत देशी रियासतें भारतीय सरकार से जुड़ी थी। और अगर इंट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन यानी दोनों देशों के बीच करार टूटता है तो जनमत संग्रह होगा और उसके आधार पर फैसला होगा।

रियासतों को एक करने की जिम्मेदारी सरदार पटेल को सौंपी गयी। सरदार पटेल उस समय भारत के उपप्रधामंत्री थे,गृह मंत्री थे और रियासत मंत्रालय भी उनके पास था। देश का तकरीबन 40 फीसदी हिस्सा रियासतों के हाथ में था। साथ में पांच इलाके फ़्रांस के कब्जे में थे और कुछ इलाके पुर्तगाल के कब्जे में थे। यह कोई आसान बात नहीं थी,यह बहुत मुश्किल था कि सबको मिलाकर एक देश बनाया जाए। पटेल और बीपी मेनन ने बड़े ही प्रभावी तरीके से सारी रियासतों को एक किया। 'गाजर और छड़ी की नीति' अपनाई। यानी लालच भी दिया और डर भी दिखाया। सबसे कहा कि ब्रटिश शासन में भी डिफेन्सकम्युनिकेशन और एक्सटर्नल अफेयर्स आपके हाथ में नहीं थाब्रिटिश हुकूमत के हाथ में थाबस इसे ही हमें दे दीजिये। बाकि आप अपने पास रखियेइसके साथ हम आपके लिए प्रिवी पर्स की सुविधा देगी। और अगर यह बात नहीं मानी तो सख्ती दिखाकर भारत में शामिल किया गया। त्रावणकोरभोपाल और कोच्चि इसके उदाहरण हैं। इन्हे सीधे-सीधे सख्ती दिखाकर शामिल किया गया। तीन जगह मामले फंसे। जूनागढ़,हैदराबाद और कश्मीर। 

जूनागढ़ सौराष्ट्र में था। यहां का शासक मुस्लिम था लेकिन बहुसंख्यक आबादी हिन्दू थी। शासक पाकिस्तान की तरफ जाना चाह रहा था और जनता भारत की तरफ। लेकिन पटेल ने हस्तक्षेप किया। जनमत संग्रह हुआ और जनमत संग्रह के तहत तक़रीबन 99 फीसदी जनता ने भारत में शमिल होने का मत दिया और एक फीसदी से कम जनता ने इसके खिलाफ मत दिया। स्वाधीनता संघर्ष की खूबी यह थी कि जनता केवल ब्रिटिश हुकूमत से ही आजाद नहीं होना चाहती थी बल्कि उनपर शासन कर रहे शासकों से भी आजाद होना चाह रही थी। जूनागढ़ से जुड़ा यह सारा काम सितंबर 1947 मेंपूरा हो गया।

इसी समय हैदराबाद की बात आयी। हैदराबाद बहुत बड़ी रियासत थी। इसमें आज के कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के हिस्से शामिल थे। इस रियासत को निजाम फैसला नहीं कर पा रहे थे कि किधर शामिल हों। भौगोलिक आधार पर वह पाकिस्तान से बहुत दूर और अलग-थलग था। लेकिन जब हैदरबाद ने नवंबर 1947 में कश्मीर और पाकिस्तान के बीच लड़ाई की स्थिति देखी तो उसने एक साल का स्टैंडस्टील एग्रीमेंट का फैसला किया। यानी वह तकरीबन एक साल बाद फैसला करेगा कि वह किधर शामिल होगा।

सितम्बर 1948 में नवाब ने यह कहना शुरू कर दिया कि हैदराबाद स्वतंत्र रहेगा और यह भी सुगबुगाहट सुनाई दी कि वह पाकिस्तान में शामिल होंगे। इनके समर्थक थे मजलिस--इतिहादुल मुसलमीन जिनके सदस्य रजाकार कहे जाते थे।

इतिहासकार कहते हैं कि स्टैंडस्टील के दौरान रजाकरों ने अपने पक्ष में स्तिति बनाने के लिए बहुत हिंसा की। इसको काबू में करने के लिए भारत की तरफ से सेना भेजी गयी और सेना द्वारा की गयी कार्यवाई की जाँच के लिए बने सुंदरलाल आयोग का कहना है कि पांच दिनों में तकरीबन 20 से 40हजार रजाकरों को मार दिया गया। कुछ पत्रकार तो कहते हैं कि यह आँकड़ा लाख पहुँच गया था। नवाब इस मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ पहुँच गएजहां पर इसे भारत ने पुलिस कार्रवाई बताया। हालांकि इसके बाद जमनत संग्रह हुआ और हैदराबाद ने भारत में शामिल होने का फैसला लिया। कहा जाता है कि इस वजह से नेहरू पर बहुत अधिक दबाव था कि वह किसी दूसरे रियासत को शमिल करने में इतनी सख्ती का समर्थन न करे। इसलिए कश्मीर के मसले पर जनमत संग्रह का मन बनाया गया।

एकीकरण के इन तरीकों से यह भी दिखता है कि भारत ने कई व्यवहारिक कदम उठाये। जनमत संग्रह भी करवायाढील भी दी और सख्ती भी दिखा

जहां तक कश्मीर की बात थी तो उस समय वहां के राजा हरि सिंह थे। कश्मीर की  समाजिक स्थिति ऐसी थी कि मुस्लिम बहुल आबादी में सत्ता के सारे स्तरों पर पंडितों की मौजूदगी थी। यानी भारत के आजादी के समय तक मुस्लिम आबादीहिन्दुओं के विरोध में खड़ी हो गयी थी। इसलिए साल1945 में राजा के खिलाफ मुस्लिमों ने विरोध के स्वर छेड़ दिए। इस विरोध को दबाने के लिए राजा ने दूसरे राज्यों से सेना मंगाई इतिहासकरों का कहना है कि इस समय जम्मू के दक्षिण इलाके में तकरीबन लाख मुस्लिमों को मार दिया गया। 

इसके बाद साल 1947 में इण्डिया इंडिपेंडेस एक्ट के तहत कश्मीर को भी यह फैसला करना था कि वह किधर जाए। इसी समय पाकिस्तान के वज़ीरस्तान की तरफ से  बिना सुप्रीम कमांडर की अनुमति से कबायली सेना ने श्रीनगर पर हमला कर दिया। इसी हमले में पाकिस्तानी सेना ने मुजफ्फराबाद पर कब्ज़ा कर लिया। जो आज पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की राजधानी है। इस हमले से डरकर राजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी। भारतीय सेना ने मदद की। और श्रीनगर से पाकिस्तानी सेना को बाहर कर दिया। यहां यह समझने वाली बात है कि उस समय भारत और पाकिस्तान की कोई अपनी सेना नहीं थी। भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की सेना का नियनत्रण लार्ड माउंट बेटन के पास था। इसके पीछे तर्क यह था कि दोनों देश हाल में ही आजाद हुए हैं और दोनों देश के बीच आपसी कटुता बहुत अधिक है।  अगर इन्हें खुला छोड़ दिया जाएगा तो दोनों एक दूसरे से बहुत अधिक लड़ाइयां लड़ेंगे। इसलिए बिना लार्ड माउंट बेटन की अनुमति से सेना का इस्तेमाल नहीं  किया जा सकता था।

लार्ड माउंट बेटन ने कहा कि कश्मीर भारत का हिस्सा है ही नहीं इसलिए भारत की तरफ से सेना का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस बात पर भारत को सेना इस्तेमाल करने की अनुमति दी कि माहौल शांत होने पर जनमत संग्रह से यह फैसला होगा कि कश्मीर किधर जाएगा। इसपर नेहरू ने भी सहमति जताई। और नेहरू ने भी लड़ाई के बाद घोषित कर दिया कि शान्ति स्थापित हो जाने के बाद जनमत संग्रह के बाद यह फैसला होगा कि कश्मीर की स्थिति क्या होगीजानकारों का कहना है कि नेहरू को भरोसा था कि उस समय घाटी में राजशाही के बजाय लोकशाही के संघर्ष में प्रसिद्ध हो रहे शेख अब्दुल्ला के साथ जनता आएगी और कश्मीर भारत का हिस्सा बनेगा। साथ में नेहरू को यह भी स्वीकार नहीं था कि अभी अभी आज़ाद हुआ मुल्क किसी दूसरे देश पर साम्राज्यवादी देश की तरह काम करेकिसी दूसरे को उपनिवेश बना ले।

लेकिन यहां पर पूछा जा सकता है कि बहुत सारी दूसरी रियासतों को भी सख्ती दिखाकर भारत में शामिल करवा लिया गया था तो कश्मीर को क्यों नहींइसका सीधा जवाब है कि कश्मीर बॉर्डर पर मौजूद राज्य थाजिसकी बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम थी हालांकि कश्मीर के साथ जिस तरह की उलझने पैदा हुई, उससे कठिन उलझने दूसरे रियासतों के साथ भी पैदा हुई लेकिन वह बॉर्डर रियासत नहीं थी। उस पर पाकिसतन की तरफ से वैसा दावा नहीं किया गया जैसा कश्मीर पर किया गया।  पाकिस्तान ने भारत का कश्मीर पर दावा मानने से इंकार कर दिया। सीधे कहा कि भारत ने जोर जबरदस्ती से कश्मीर को अपने में शामिल किया है। हम इसे स्वीकार नहीं करते हैं। यहां पर जनता की राय होनी चाहिए जैसी कि जूनागढ़ पर राय ली गयी। इस मतभेद के बीच भारत और पाकिस्तान के बीच तकरीबन एक साल युद्ध चला।

तभी इस मसले को लेकर नेहरू संयुक्त राष्ट्र संघ पहुँच गए। यहां पर चैप्टर की बजा चैप्टर के तहत अर्जी दाखिल की। चैप्टर के तहत अर्जी दाखिल करने का यह मतलब होता है कि अमुक देश संयुक्त राष्ट्र के फैसले को मानने के लिए बाध्य नहीं हैजबकि चैप्टर के तहत संयुक्त राष्ट्र के फैसले को मानना जरूरी होता है। सिक्योरिटी काउंसिल की मीटिंग हुईअमेरिका और इंग्लैण्ड ने भारत के खिलाफ फैसला ले लिया। जबकि नेहरू को भरोसा था कि ऐसा नहीं होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने संकल्प पत्र निकाला। 

संकल्प पत्र

संकल्प पत्र के तीन हिस्से हैं। पहला है सीज फायरदूसरा है ट्रूस एग्रीमेंट और तीसरा है अदर्स। इन तीनों हिस्सों के तहत कुछ कदम उठाये जाने थे। पहला सीज फायर के अनुसार यह बात है कि जहां युद्ध विराम होगा वहीं पर मान लिया जाएगा कि दोनों देश की सीमा है। इसी के तहत लाइन ऑफ़कंट्रोल (एलओसी) बनी। दूसरी बात यानी ट्रूस एग्रीमेंट है जो भारत के पक्ष में जाता है। माउंट बेटन ने पाकिस्तान को युद्ध लड़ने की इजाजत नहीं दी थी। लेकिन पाकिस्तान ने युद्ध लड़ा। भारत ने  साबित भी किया। इसलिए ट्रूस ग्रीमेंट में यह बात की गयी कि जब पाकिस्तान अपनी सेनाएं हटाएगा और इस बात की पुष्टि हो जाएगी तब भारत अपनी सेनाएं हटाएगाउसके बाद जनमत संग्रह होगा। लेकिन पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर से अपनी सेना नहीं हटाई, न कोई फैसला हुआ। पाकिस्तान ने कभी सेना हटाई नहीं और जनमत संग्रह हुआ नहीं। जनमत संग्रह तभी हो सकता था जब पाकिस्तान अपनी सेना हटाए। और अदर्स में ये था कि पाकिस्तानपाकिस्तान की तरफ से लड़ने वाले जनजातियों के जीवन यापन की व्यवस्था करेगा। 

इतिहासकार यह भी कहते है कि इंट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेसन सारी रियासतों के साथ हुआ था। जब उन्हें विलय कर लिया गया तो कश्मीर के साथ भी नहीं लागू होगा कि इंट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन को तोड़ा गया है। लेकिन इसी बात को काटते हुए दूसरे इतिहासकार कहते हैं कि इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेसन के साथ जहाँ विवाद हुआ वहां जनमत संग्रह भी हुआ और तब उन्हें भारत में शामिल किया गया। जैसे जूनागढ़ और हैदराबद। दोनों जगह जनमत संग्रह होकर भारत में शामिल होने के फैसला लिया गया। इस तरह से कोई अगर करार टूटने पर जनमत संग्रह की बात उठाये तो ऐतिहासिक तौर पर इसमें कोई गलत बात नहीं है। 

उसके बाद साल 1971 में बांग्लादेश बनने के समय कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र संघ में उठा। लेकिन इसपर कोई फैसला नहीं हुआ। अभी हालिया विवाद पर अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे का कहना है कि पांच वीटोधारी इस बात पर ज़ोर देंगे कि भारत और पाकिस्तान आपसी तनाव न बढ़ाएं। चीन कश्मीर पर ज़ोर नहीं देगा क्योंकि झिंगझियांग का मसला पहले से चर्चा में हैइसे हवा मिल जाएगी। उसका भारत और पाकिस्तान से अच्छा व्यापारिक संबंध है। लद्दाख पर बयान देकर वह औपचारिकता की भूमिका निभाता रहेगा। रूसब्रिटेन और फ़्रांस भी दोनों में से किसी एक पक्ष में नहीं दिखना चाहेंगे।

संयुक्त अरब अमीरात के रुख से इस्लामिक देशों के संगठन के रुख का अनुमान लगाया जा सकता है। सुरक्षा परिषद में वे भी ज़ोर न लगाएंगे। वे बस कश्मीर में नागरिकों के साथ ज़्यादती न होने की अपील जारी कर देंगे। अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान का साथ चाहिए और भारत से भी उसके रिश्ते ठीक हैं। उसे F-16/21 भी बेचना है। पहले भारत को बेचेगाफिर पाकिस्तान को बेचेगा। इस लड़ाकू जहाज के बारे में इसको बनानेवाली कंपनी लॉकहीड मार्टिन का क़रार टाटा ग्रुप से है। विदेश मंत्री जयशंकर मंत्री बनने से पहले टाटा के ग्लोबल कॉरपोरेट अफ़ेयर्स के मुखिया थे। तोमतलब ये 370 पर कुछ नहीं होगा। दक्षिण एशिया में शांति का अनुरोध होगा।

फिर भी इस मसले पर कुछ नहीं कहा जा सकता है। बस कयास लगाए जा सकते हैं कि कुछ नहीं होगा। लेकिन यह विवाद अगर बहुत लम्बे समय तक बना रहा तो जिस तरह से वैश्विक स्थितियां बदलेंगी, उस तरह से कश्मीर के लिए विश्व का नज़रिया बदलेगा। 

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