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जन मुद्दों पर चर्चा से क्यों घबराता है सत्ताधारी दल?

यह सही है कि इस समय आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू है लेकिन यदि लोग वोट देने से पहले आपस में इकट्ठे होकर अपने जनमुद्दों को चुनाव का एजेंडा बनाने पर कोई चर्चा-विमर्श करें तो उसे रोकने में पूरा प्रशासन मुस्तैद हो जाए, ये कौन सी लोकतांत्रिक प्रक्रिया है?
ज्यां द्रेज़

“...एक भी वोटर छूटे न...” जैसे नारों के साथ मतदाता जागरूकता का अभियान पूरे शबाब पर है। वर्तमान सत्ताधारी दल अपनी सरकारों व प्रशासन के अलावा स्वायत्त घोषित माननीय चुनाव आयोग के माध्यम से करोड़ों करोड़ रुपये खर्च कर आदर्श लोकतंत्र की मिसाल स्थापित करना चाह रहा है। यकीनन इसका खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए बशर्ते इस आदर्श आचरण की आड़ में इसके समानांतर कोई और साजिशपूर्ण कवायद नहीं हो!

ये तो सर्वविदित है कि आदर्श लोकतंत्र की कामयाबी के लिए मतदाताओं की चुनाव में अधिक से अधिक भागीदारी अत्यावश्यक है। लेकिन यह सिर्फ एक पहलू है, दूसरा और सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, मतदाताओं का जागरूक होना। क्योंकि यही वह अवसर होता है जब वे अपने जीवन के साथ साथ राज–समाज को प्रभावित करने वाले सभी ज़रूरी सवालों– समस्याओं के समाधान करने वाले जनप्रतिनिधि व सरकार का चुनाव करते हैं। चुनाव के समय इन सारे सवालों और मुद्दों पर बात अथवा चर्चा–विमर्श करना नितांत आवश्यक होता है। परंतु जाने क्यों वर्तमान सत्ताधारी दल जो एक ओर, लोगों को अधिक से अधिक चुनाव में भाग लेने का आह्वान कर रहा है लेकिन लोगों के ज़रूरी सवालों व मुद्दों पर चर्चा–विमर्श को अघोषित तौर से रोक भी रहा है। जो झारखंड में खुलकर दीख रहा है, जहां जन मुद्दों पर चर्चा अभियान चला रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं को या तो किसी कुख्यात अपराधी की तरह पकड़कर हिरासत में लिया जा रहा है अथवा उनपर ‘दंगा फैलाने की साजिश करने’ जैसा संगीन केस थोप दिया जा रहा है।

इसी 28 मार्च को देश के जाने माने अर्थशास्त्री, सामाजिक कार्यकर्ता तथा एआईपीएफ के राष्ट्रीय सलाहकार समिति के वरिष्ठ सदस्य ज्यां द्रेज़ को झारखंड के गढ़वा ज़िला स्थित बिशुनपुर थाना की पुलिस ने उनके साथियों समेत हिरासत में ले लिया। ये सभी बिशुनपुर के स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा बुलाई गयी ग्रामीणों की सभा में जनमुद्दों पर चर्चा में शामिल होने आए थे। जिसमें ग्रामीणों के राशन, पेंशन व अन्य विकास योजनाओं के सही वितरण नहीं होने से उत्पन्न संकटपूर्ण समस्या पर बात होनी थी। साथ ही वर्तमान चुनाव में जन संगठनों के देश स्तर पर जारी ‘जन घोषणा पत्र’ पर भी लोगों की राय लेनी थी। इस सभा की पूर्व सूचना स्थानीय थाने को एक सप्ताह पूर्व ही दे दी गयी थी। बावजूद इसके बिशुनपुर थाना की पुलिस कार्यक्रम स्थल पर पूरे दल बल के साथ ऐसे पहुँची मानो वहाँ कोई बेहद खतरनाक काम हो रहा हो। पुलिस अधिकारी ने आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने का हवाला दिया। ज्यां द्रेज़ व आयोजक साथियों ने कहा कि यह कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है और इसमें स्थानीय ग्रामीणों के सवालों पर चर्चा होनी हैं। जिसकी लिखित सूचना थाना को पहले ही दे दी गयी है। स्थानीय युवाओं ने तो यह भी कहा कि पिछले दिन ही बिना किसी प्रशासनिक अनुमति के सत्ताधारी दल से जुड़े लोगों ने रात भर जाति विशेष की बड़ी बैठक की तो उसपर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गयी? जिसका जवाब देने की बजाय पुलिस ज्यां द्रेज़ और उनके साथियों को हिरासत में लेकर थाने ले आयी। जहां किसी भी बाहरी से मिलने पर रोक लगाकर थाने के अंदर बिठाये रखा गया। किसी खतरनाक अपराधी जैसा सलूक करते हुए उल्टे–सीधे सवाल पूछे गए और संगीन केस में फंसाकर जेल भेजने की धमकी भी दी गयी। इसी दौरान सोशल साइट पर गिरफ्तारी की ख़बर देख–सुनकर कई अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं व गढ़वा भाकपा माले के कार्यकर्ता थाना के बाहर इकट्ठे होने लगे। अंतोगत्वा निजी बॉन्ड भरवाकर दोपहर बाद पुलिस ने सबको छोड़ दिया। (सूत्रों का कहना है कि “ऊपर” से फोन आने पर छोड़ा गया)

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15 मार्च को राजधानी रांची स्थित मुस्लिम बाहुल्य इलाका हिंदपीढ़ी में दर्जनों युवा और वरिष्ठ मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आपसी विमर्श हेतु बैठक की। जिसमें इस समुदाय की राजनीतिक हिस्सेदारी एवं चुनावी प्रतिनिधित्व पर चर्चा कर सभी राजनीतिक दलों से आबादी के अनुसार उनके भी उम्मीदवार को टिकट देने संबंधी एकमत राय बनी। यह कार्यक्रम भी कोई घोषित सार्वजनिक आयोजन नहीं था। लेकिन 17 मार्च को प्रशासन द्वारा इस कार्यकर्म में शामिल एआईपीएफ के बशीर अहमद व नदीम खान समेत 17 युवा मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ताओं पर “सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने” का संगीन आरोप लगाकर प्राथमिकी दर्ज़ कर दी गयी। जिसमें इनपर ‘एक वर्ग विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंचाने’ का भी आरोप लगाया गया।

यह सही है कि इस समय आदर्श चुनाव आचार संहिता के तहत जारी निर्देशों का पालन करना सबका दायित्व है। लेकिन यदि लोग वोट देने से पहले आपस में इकट्ठे होकर अपने जनमुद्दों को चुनाव का एजेंडा बनाने पर कोई चर्चा-विमर्श करें तो उसे रोकने में पूरा प्रशासन मुस्तैद हो जाय, ये कौन सी लोकतांत्रिक प्रक्रिया है? जबकि दूसरी ओर, सत्ताधारी दल शासित राज्यों व इलाकों में अचानक से सुनियोजित धार्मिक आयोजनों की भरमार और उसमें 'राजनीतिक दल विशेष' के नेता व कार्यकर्ताओं ज़ोरशोर से लगे होने को क्या समझा जाय? जहां वही नारे लग रहें हैं, जो ' दल विशेष' के जारी चुनावी अभियानों में लगाए जाते हैं। क्यों हर शै यह कोशिश है कि इस चुनाव में आम जन के मुद्दे चुनावी एजेंडा न बन सकें? वर्तमान सत्ताधारी दल जन के मुद्दों पर चर्चा से क्यों भाग रही है? सवाल तो बनता ही है!

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