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जनरल साहब! यौन उत्पीड़न या प्रेग्नेंसी के लिए महिला जिम्मेदार नहीं है

“सेनाध्यक्ष बिपिन रावत का बयान बहुत ही आपत्तिजनक है। और ये स्पष्ट करता है कि महिलाओं के बारे में उनकी समझ बिल्कुल ग़लत है, रूढ़िवादी है और वे जानते भी नहीं हैं कि इतिहास में महिलाओं ने युद्ध क्षेत्र में कैसे-कैसे कारनामे किए हैं।”
ARMY CHIEF BIPIN RAWAT
Image Courtesy: ndtv

हमारे भारत देश की राष्ट्रपति और तीनों सेनाओं थल सेना, जल सेना और वायु सेना की सर्वोच्च कमांडर एक महिला बन सकती है...

(हमारे देश में राष्ट्रपति ही सेना के तीनों अंगों का प्रमुख होता है। और प्रतिभा पाटिल हमारे देश की राष्ट्रपति रह चुकी हैं)

देश की प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री भी एक महिला बन सकती है...

(इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री रह चुकी हैं। वर्तमान में निर्मला सीतारमण रक्षामंत्री हैं)।

लेकिन सेना में युद्ध की भूमिका महिला को नहीं मिल सकती।

क्यों?

क्योंकि... हमारे यहां के मर्दों की सोच बेहद पिछड़ी है।

क्योंकि हमारे सेनाध्यक्ष का मानना है कि महिलाओं का पहला काम बच्चे पालना है और ज्यादातर जवान जो गांव के हैं वे भी एक महिला के नेतृत्व में काम करना पसंद नहीं करेंगे।

समाचार चैनल न्यूज़ 18 को दिए एक विशेष इंटरव्यू में सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने कहा कि "महिलाओं का पहला काम बच्चे पालना है और फ्रंटलाइन पर वो सहज भी महसूस भी नहीं करेंगी और जवानों पर कपड़े बदलते समय अंदर ताक-झांक किए जाने का आरोप भी लगाएंगी। इसलिए उन्हें कॉम्बैट रोल के लिए भर्ती नहीं किया जाना चाहिए।"

रावत ने कहा कि वो सेना में औरतों को कॉम्बैट रोल देने के लिए तैयार हैं लेकिन शायद सेना इसके लिए तैयार नहीं है क्योंकि अधिकतर जवान गांव के रहने वाले हैं और वो कभी नहीं चाहेंगे कि कोई और औरत उनकी अगुवाई करे।

अब जब ऐसी सोच हमारे महान देश की महान सेना के प्रमुख की है तो आम जवानों के लिए क्या कहा जाए।

इस बयान को क्यों न लैंगिक भेदभाव और महिला विरोधी माना जाए?

महिलाएं उन बच्चों को तो जन्म दे सकती है जो सेना में जवान और अफसर बनते हैं लेकिन उनकी अगुआई नहीं कर सकती। अब इसे क्या कहा जाए।

ऐसी ही किसी महिला ने सेनाध्यक्ष बिपिन रावत को भी जन्म दिया होगा। लेकिन वे सोचते हैं कि ये सब महिलाओं के लिए नहीं है।

महिलाएं किसान हो सकती हैं, महिलाएं जवान हो सकती हैं, लेकिन युद्ध नहीं लड़ सकतीं, युद्ध क्षेत्र में जवानों की अफसर नहीं हो सकतीं। ऐसा कैसे सोचा जा सकता है, जबकि दुनिया में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी के साथ स्वीडन, स्पेन जैसे तमाम देशों में महिलाएं सेना और युद्ध क्षेत्र में प्रमुख भूमिकाएं निभा रही हैं। 

दरअसल यह हमारी पितृसत्तात्मक सोच है जो हर मामले में महिलाओं को पुरुषों से कमतर मानती है और कमज़ोर साबित करना चाहती है, जबकि आज समाज के हर क्षेत्र में ज़मीन से लेकर आसमान तक महिलाएं बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं, अपना परचम लहरा रही हैं। महिलाओं के तमाम क्षेत्रों में आगे आने के बावजूद पुरुष महिलाओं का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।

पितृसत्तात्मक या पुरुषवादी सोच इतनी व्यापक है कि बहुत महिलाएं भी इसकी शिकार या पोषक होती हैं। दरअसल इसे ही सोशल कंडीशनिंग कहा जाता है। जैसे अभी पिछले दिनों हमारी केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर बहुत ही महिला विरोधी बयान दिया। उन्होंने महिलाओं की एक प्राकृतिक स्थिति माहवारी को पवित्रता-अपवित्रता से जोड़ दिया और पीरियड्स यानी माहवारी के दौरान महिलाओं के मंदिर जाने को ग़लत बताया। इसी तर्क के आधार पर बहुत सी महिलाएं ही सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की विरोधी हैं। इसे ही ब्राह्मणवादी पितृसत्ता कहा जाता है जो धर्म-जाति-लिंग के आधार पर दूसरों के साथ लोगों को अपने भी खिलाफ खड़ा कर देता है।  

जनरल बिपिन रावत के बयान पर हमने महिला अधिकारों के लिए लड़ रहीं कई नेताओं से बात कर उनकी राय जानी।

पूर्व सांसद और अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एडवा) की अध्यक्ष सुभाषिनी अली का कहना है सेनाध्यक्ष बिपिन रावत का बयान बहुत ही आपत्तिजनक है। और ये स्पष्ट करता है कि महिलाओं के बारे में उनकी समझ बिल्कुल ग़लत है, रूढ़िवादी है और वे जानते भी नहीं हैं कि इतिहास में महिलाओं ने युद्ध क्षेत्र में कैसे-कैसे कारनामे किए हैं।

सुभाषिनी के मुताबिक इसके लिए बाहर जाने की ज़रूरत नहीं है बल्कि इसके लिए सुभाष चंद्र बोस और उनकी आज़ाद हिंद फ़ौज का उदाहरण ही काफी है। सुभाषिनी ने कहा कि सुभाष चंद्र की ये ज़िद थी कि महिलाओं की एक ब्रिगेड होनी चाहिए और उन्होंने रानी लक्ष्मी रेजिमेंट बनाई और उसको वही ट्रेनिंग मिली जो पुरुषों को मिलती थी। वही खाना मिलता था जो पुरुषों को मिलता था। उसी तरह के बैग को वो अपनी पीठ पर रखकर दौड़ती थीं, उसी तरह की बंदूकों की ट्रेनिंग मिलती थी। उन्होंने बिल्कुल सिद्ध कर दिया कि भारतीय महिलाएं भी फ़ौज में वह सबकुछ कर सकती हैं, जो भारतीय पुरुष कर सकते हैं।

आपको बता दें कि सुभाषिनी अली की मां डॉ. लक्ष्मी सहगल ही आज़ाद हिंद फ़ौज की रानी लक्ष्मी रेजिमेंट की कमांडर थीं।

सुभाषिनी के मुताबिक एक और बात ख़तरनाक़ बिपिन रावत ने कही वो ये है कि उनके मुताबिक अगर महिलाएं यहां आ जाएंगी तो दूर-दराज़ के इलाकों के जो पुरुष सैनिक हैं वो वहां ताक-झांक करेंगे।

सुभाषिनी पूछती हैं कि इस बात के जरिये वो पुरुष सैनिकों के बारे में क्या कहना चाहते हैं कि भारतीय सैनिक इस तरह का व्यवहार करते हैं? क्या पुरुष सैनिकों के ऊपर बिल्कुल विश्वास नहीं किया जा सकता। इस तरह तो जो बाते कही जाती हैं, जो आरोप लगाए जाते हैं उन्हें बहुत गंभीरता पूर्वक लिया जाना चाहिए और अफस्पा को तो तुरंत ख़त्म कर दिया जाना चाहिए।

सुभाषिनी के मुताबिक जनरल बिपिन रावत का बयान हर तरफ़ से बहुत आपत्तिजनक है और बहुत सवाल खड़े करता है।

अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (ऐपवा) की सचिव कविता कृष्णन का कहना है कि जनरल बिपिन रावत जो तर्क दे रहे हैं वो बहुत ही दकियानूसी किस्म के तर्क हैं। कविता के मुताबिक महिलाएं आर्मी ज्वाइंन करेंगी या नहीं करेंगी ये अलग बात है, लेकिन ये तर्क देना कि पुरुष उनका नेतृत्व स्वीकार नहीं करेंगे या छेड़छाड़ होगी, ये तर्क बेहद आपत्तिजनक हैं। इसका मतलब है कि आप यौन शोषण के लिए महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। इसका ये भी अर्थ है कि आपकी सेना में जवान अनुशासित नहीं है। और ये कहना कि यौन शोषण होगा इसलिए किसी क्षेत्र में महिलाएं ही न रहें ये किसी भी तर्क से उचित नहीं है।

जनरल बिपिन रावत की महिलाओं के बच्चे पालने और उसके लिए मैटरनिटी लीव (मातृत्व अवकाश) लेने की बात पर भी कविता कड़ी आपत्ति जताती हैं। उनके मुताबिक आप महिलाओं को क्या समझ रहे हैं? महिलाएं बच्चा पैदा करती हैं तो क्या अपनी मर्जी से करती हैं। क्या पुरुष इसमें शामिल नहीं होता। क्या इसमें उसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही नहीं है। और इस वजह से महिलाओं को किसी नौकरी से वंचित रखना कैसे जायज हो सकता है।

कविता के मुताबिक ये तर्क ही बेहद गलत है। और व्यवहारिकता के नाम इसे सही ठहराना तो और भी गलत है। अगर इस तर्क को जायज मानेंगे तो ये तो फिर हर जगह लागू किया जा सकता है।

इसी मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह का कहना है कि इससे बुरा बयान कोई दे नहीं सकता। इसका मतलब ये है कि जनरल बिपिन रावत खुद अंदर से गैरबराबरी में विश्वास रखते हैं। ऐसे बड़े पद पर रहकर ऐसा स्त्री विरोधी बयान देना ये दिखाता है कि कहीं से भी जो जेंडर संवेदनशीलता की ट्रेनिंग है, वो उन्हें छूकर भी नहीं गई है। पहले ये कहा जाता था कि इस तरह की बातें गांव-देहात के लोग करते हैं, लेकिन इससे ये साफ होता है कि पितृसत्ता किस हद तक काबिज़ है और पिछले चार-साढ़े चार सालों में शीर्ष पदों पर जो लोग बैठे हैं, वो इस तरह की भाषा राजनीतिक वरदहस्त की वजह से बोल रहे हैं। क्योंकि उनको पता है कि जो उनसे ऊपर बैठे हैं, वे भी इसी में विश्वास करते हैं।

भाषा सिंह के मुताबिक दु:ख की बात ये भी है कि रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण का एक शब्द का बयान भी इस पर नहीं आता है। इससे ये साफ है कि इससे उन लोगों को कोई दिक्कत नहीं है। भाषा के मुताबिक हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के बयान महिला विरोधी बयान और जनरल रावत के बयान को एक ही क्रम में देखा जाना चाहिए।

भाषा ने कहा एक तरह से तो सारा समाज ही महिला विरोधी है। सारे दफ्तर ही महिला विरोधी हैं, इसका तो ये मतलब है कि महिला को हर क्षेत्र से वंचित कर दिया जाए। उनके मुताबिक ये पितृसत्ता की सोच को ही आगे बढ़ाने वाला बयान है। इसमें सबसे बड़ी जवाबदेही मौजूदी सरकार की, रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री की है कि वो इसके खिलाफ क्या कदम उठाते हैं। लेकिन हर तरफ चुप्पी है। और ये पहली बार नहीं है। जब भी इस तरह के बयान आते हैं तो ये लोग चुप्पी साध लेते हैं। इस तरह ये डिसकोर्स सेट किया जा रहा है कि महिलाओं का काम घर में रहना, बच्चे पालना है। ये एक तरह से पूरे महिला वर्ग के खिलाफ साजिश है। महिलाओं ने जो अधिकार बड़ी मुश्किल से हासिल किए हैं उन्हें एक तरह से फिर पीछे ले जाना है। दरअसल ये एक बर्बर और मध्ययुगीन सोच है, जिसका हर स्तर पर विरोध होना चाहिए।  

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