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जटिल है जनसंख्या नियंत्रण का प्रश्न

जनसंख्या नियंत्रण एक अत्यंत महत्वपूर्ण, आवश्यक और संवेदनशील मसला है किंतु इसका उपयोग सरकार द्वारा आर्थिक मोर्चे पर अपनी नाकामी को छिपाने अथवा धार्मिक समुदायों के मध्य संघर्ष को बढ़ावा देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। 
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : प्रभात ख़बर

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर अपने उद्बोधन में यह संकेत दिए कि सरकार जनसंख्या नियंत्रण के लिए निकट भविष्य में अनेक कड़े कदम उठा सकती है। उन्होंने कहा- हमारे यहां जो जनसंख्या विस्फोट हो रहा है, ये आने वाली पीढ़ी के लिए अनेक संकट पैदा करता है। लेकिन ये भी मानना होगा कि देश में एक जागरूक वर्ग भी है जो इस बात को अच्छे से समझता है। ये वर्ग इससे होने वाली समस्याओं को समझते हुए अपने परिवार को सीमित रखता है। ये लोग अभिनंदन के पात्र हैं। ये लोग एक तरह से देशभक्ति का ही प्रदर्शन करते हैं। सीमित परिवारों से ना सिर्फ खुद का बल्कि देश का भी भला होने वाला है। जो लोग सीमित परिवार के फायदे को समझा रहे हैं वो सम्मान के पात्र है। घर में बच्चे के आने से पहले सबको सोचना चाहिए कि क्या हम उसके लिए तैयार हैं।

प्रधानमंत्री जी का जनसंख्या विषयक दृष्टिकोण पिछले एक वर्ष में अचानक परिवर्तित हो गया सा लगता है। उन्होंने 15 अगस्त 2018 के अपने संबोधन में कहा था- आज हमारे देश की 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 से कम उम्र की है, इसलिए सारे विश्व की नज़र हम पर बनी हुई है। मोदी जी अपने पिछले कार्यकाल में बारंबार भारत की विशाल युवा जनसंख्या को देश को एक आर्थिक महाशक्ति बनाने हेतु अनायास मिले एक वरदान की भांति प्रस्तुत करते रहे हैं। बहरहाल प्रधानमंत्री जी के जनसंख्या विषयक इस परिवर्तित दृष्टिकोण के बाद स्वयं को वास्तविक और एकमात्र राष्ट्रवादी कहने वाले लोगों की नई पौध चौक चौराहों पर होने वाली चर्चा और सोशल मीडिया की बहसों में अपना हर्ष व्यक्त करती नजर आ रही है, इनके हर्ष का कारण इनकी यह धारणा है कि अब प्रधानमंत्री जी अल्पसंख्यकों द्वारा अपनी जनसंख्या बढ़ाकर देश पर कब्जा करने के षड्यंत्र को नाकामयाब करने में जुट गए हैं।

स्वतंत्रता के बाद से अब तक जनसंख्या नियंत्रण से संबंधित 35 प्राइवेट मेंबर बिल संसद में लाए गए हैं। इनमें से सर्वाधिक 16 बिल कांग्रेस के सांसदों द्वारा लाए गए हैं जबकि भाजपा के 8 सांसद और क्षेत्रीय दलों के 11 सांसद इस प्रकार के बिल ला चुके हैं। 

इनमें से नवीनतम बिल भाजपा के तब के सांसद और आज के मंत्री संजीव बालियान द्वारा दिसंबर 2018 में 125 सांसदों के समर्थन से लाया गया। संजीव बालियान द्वारा लाया गया यह बिल टैक्स पेयर्स एसोसिएशन ऑफ भारत के प्रमुख मनु गौर द्वारा जनसंख्या नियंत्रण हेतु दंडात्मक प्रावधानों की हिमायत करने वाले अभियान से प्रभावित प्रतीत होता है। मनु गौर दो से अधिक संतानों वाले व्यक्तियों को चुनाव प्रक्रिया में भागीदारी और सरकारी नौकरियों से वंचित करने की वकालत करते रहे हैं। गौर के अनुसार दो बच्चों की सीमा रेखा का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों पर प्रति अतिरिक्त संतान के हिसाब से दुगना जीएसटी लिया जाना चाहिए। संजीव बालियान के बिल और मनु गौर के विचारों में रिस्पांसिबल पैरेंटिंग पर जोर दिया गया है। प्रधानमंत्री जी भी अपने भाषण में इसी ओर संकेत करते हैं। देखना यह है कि रिस्पांसिबल पैरेंटिंग की ओर समाज को अग्रसर करने हेतु क्या प्रधानमंत्री दंडात्मक प्रावधानों का समर्थन करेंगे अथवा इस संबंध में वे अब तक चली आ रही स्वेच्छा, सहमति और जागरूकता की नीति का अनुसरण करेंगे। 

असम सरकार इस तरह के दंडात्मक प्रावधानों का प्रयोग कर रही है जिसमें दो से अधिक संतान वाले व्यक्तियों को स्थानीय निकाय के चुनावों में भाग लेने से रोकना और सरकारी नौकरी से वंचित करना शामिल है। 

भारत के लोकतंत्र की शक्ति ने आपातकाल के समय के बलपूर्वक चलाए गए परिवार नियोजन कार्यक्रम को खतरनाक रूप लेने से रोका था। अनेक जनसंख्या विशेषज्ञ यह मानते हैं कि भारत के जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम का स्वैच्छिक प्रजातांत्रिक स्वरूप भारत की जनसंख्या में एक संतुलित कमी लाने में सहायक रहा है, यही कारण है कि हमारी 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम आयु की है। जबकि चीन में जहाँ पर दबाव आधारित वन चाइल्ड पालिसी अपनाई गई वहां की जनसंख्या असंतुलित रूप से कम हो गई और एक बड़ी आबादी समृद्धि के दर्शन करने से पूर्व ही वृद्ध होने वाली है।

जनसंख्या विषयक विमर्श जटिल है। सर्वप्रथम हमें यह तथ्य ज्ञात होना चाहिए कि भारत अब जनसंख्या विस्फोट की स्थिति से बाहर आ चुका है। वैश्विक स्तर पर जनसंख्या को स्थिर करने हेतु 2.1 प्रतिशत की प्रजनन दर को रिप्लेसमेंट रेट माना गया है। अर्थात यदि एक महिला औसतन 2.1 बच्चे पैदा करेगी तो विश्व की जनसंख्या स्थिर बनी रहेगी। 2015-16 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार इस समय हमारी प्रजनन दर 2.2 प्रतिशत है और हम रिप्लेसमेंट रेट प्राप्त करने के बहुत निकट हैं। जब 2018- 19 में हुए अगले सर्वेक्षण के आंकड़े आएंगे तो शायद हम रिप्लेसमेंट रेट प्राप्त कर चुके होंगे। संयुक्त राष्ट्र ने भी अपने उस अनुमान में सुधार किया है जिसके अनुसार भारत चीन की जनसंख्या को 2022 में पीछे छोड़ देता, संशोधित अनुमान के अनुसार अब ऐसा 2027 में होगा। स्वयं मोदी सरकार की इकॉनॉमिक सर्वे रिपोर्ट प्रधानमंत्री के जनसंख्या विस्फोट विषयक कथन से एकदम अलग तस्वीर प्रस्तुत करती है। 

रिपोर्ट के “वर्ष 2040 में भारत की जनसंख्या” नामक अध्याय में यह बताया गया है कि भारत के दक्षिणी राज्यों एवं पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, असम, पंजाब, हिमाचल प्रदेश में जनसंख्या वृद्धि की दर 1 प्रतिशत से कम है। जिन राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर अधिक थी, वहां भी इसमें कमी देखने में आई है। बिहार, उत्तरप्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में तो खासकर जनसंख्या वृद्धि दर में अच्छी गिरावट आई है। आने वाले दो दशकों में जनसंख्या वृद्धि की दर तेजी से कम होगी और अनेक राज्य तो वृद्धावस्था की ओर अग्रसर समुदाय का स्वरूप ग्रहण कर लेंगे। 

देश की कार्य करने योग्य आयु की जनसंख्या में वृद्धि की वार्षिक दर 2021 से 2031 की अवधि की तुलना में 2031 से 2041 की अवधि में आधी हो जाएगी। यह सर्वे रिपोर्ट नीति निर्माताओं को यह सुझाव देती है कि वे वृद्धावस्था की ओर अग्रसर समाज के लिए नीतियां बनाने हेतु तैयार रहें।

भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर अलग अलग राज्यों में पृथक पृथक है। यदि बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड के अपवादों को छोड़ दिया जाए तो पूरे देश में जनसंख्या वृद्धि की दर तेजी से कम हुई है। दक्षिण के राज्यों में यह 1.7 से 2.1 प्रतिशत है लेकिन बीमारू कहे जाने वाले राज्यों में यह अब भी 3.5 प्रतिशत या इससे अधिक है। केरल और तमिलनाडु में तो ऋणात्मक जनसंख्या वृद्धि की स्थिति आ गई है। दक्षिण के राज्यों का उदाहरण यह दर्शाता है कि यहां हर जाति और हर धर्म के लोगों की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आई है। इसी प्रकार बीमारू राज्यों के आंकड़े बताते हैं कि यहां हर जाति और हर धर्म के लोगों की जनसंख्या वृद्धि दर अधिक है। 

जनसंख्या वृद्धि की दर को धर्म के साथ जोड़ा जाना अनुचित और शरारत पूर्ण है। एनएफ़एचएस के आंकड़े बताते हैं कि देश में हिंदुओं का फ़र्टिलिटी रेट 2.1 जबकि मुस्लिमों का 2.6 है। 1.2 बच्चे प्रति दंपति के आंकड़ों के साथ न्यूनतम फ़र्टिलिटी रेट जैन समुदाय में है। सिख समुदाय में फ़र्टिलिटी रेट 1.6, बौद्ध समुदाय में 1.7 और ईसाई समुदाय में 2 है। यदि जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट की बात करें तो हिन्दू समुदाय की तुलना में मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या वृद्धि दर अधिक तेजी से कम हुई है। यदि 2004-2005 के आंकड़ों को आधार बनाएं तो हिन्दू समुदाय की फर्टिलिटी रेट तब 2.8 थी जो अब 2.1 पर आ गई है जबकि मुस्लिम समुदाय की फर्टिलिटी रेट तब 3.4 थी जो घटकर अब 2.6 रह गई है। 1992-93 में हिंदुओं की प्रजनन दर 3.3 और मुस्लिम समुदाय की प्रजनन दर 4.4 थी।

जनसंख्या विशेषज्ञों में एक उक्ति प्रचलित है -विकास सर्वश्रेष्ठ गर्भनिरोधक है। 2011 की जनगणना के आधार पर सामान्य रूप से देखा जाए तो वे प्रदेश और समुदाय जो बुनियादी स्वास्थ्य रक्षा मानकों और शिक्षा स्तर तथा आर्थिक समृद्धि के आधार पर अच्छी स्थिति में हैं उनमें फर्टिलिटी रेट अपने आप कम हुई है। इसका उनकी धार्मिक मान्यताओं से कोई लेना देना नहीं है। यह हमारा सौभाग्य है कि देश की जनता साध्वी प्राची और साक्षी महाराज की हिंदुओं से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील पर ध्यान नहीं देती न ही वह मुस्लिम धर्म गुरुओं के कहने पर चलती है जो परिवार नियोजन को धर्म विरुद्ध बताते हैं। हमारे देश के नागरिक गर्भ निरोधकों के प्रयोग के संदर्भ में धार्मिक मान्यताओं को दरकिनार कर इनका खुलकर प्रयोग करते हैं और अपने परिवार को अपनी आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार नियोजित करने का प्रयास करते हैं।

प्रधानमंत्री जी के भाषण के बाद जनसंख्या नियंत्रण के संबंध में जो भी नीति बनाई जाती है उसका आधार प्रादेशिक विकास परिदृश्य होना चाहिए न कि कुछ धार्मिक समुदायों के विरुद्ध तथ्यहीन दुष्प्रचार। हमारी जनसंख्या नियंत्रण नीति में अनेक विसंगतियां हैं। महिलाओं को अपने परिवार के आकार और दो संतानों के बीच अंतर को तय करने की निर्णय प्रक्रिया से बाहर रखा जाता है। 2015-16 का नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे बताता है कि 3 करोड़ महिलाएं विभिन्न कारणों से गर्भ निरोधकों तक अपनी पहुंच न बना सकीं। इसी अवधि में विवाहित लोगों में जिन 47.8 प्रतिशत ने गर्भनिरोधक उपायों का प्रयोग किया उनमें से 88 प्रतिशत महिलाएं और केवल 12 प्रतिशत पुरुष थे। इन 88 प्रतिशत महिलाओं में से 75 प्रतिशत का बंध्यकरण ऑपेरशन हुआ जबकि 12 प्रतिशत पुरुषों में से केवल 0.6 प्रतिशत पुरुषों ने नसबंदी कराई। 
लैंसेट का अध्ययन बताता है कि 2015 में 1.56 करोड़ महिलाओं को गर्भपात की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। नेशनल हेल्थ मिशन फाइनेंसियल मैनेजमेंट रिपोर्ट 2016-17 के अनुसार इस अवधि में परिवार नियोजन के लिए निर्धारित 577 करोड़ रुपए के बजट का 85 प्रतिशत महिलाओं की नसबंदी पर जबकि केवल 2.8 प्रतिशत पुरुष नसबंदी पर खर्च किया गया। 

सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं यह बताया है कि 2010 से 2013 की अवधि में 363 महिलाएं (जो मुख्यतया ग्रामीण परिवेश से आने वाली निर्धन आय वर्ग और जातीय दृष्टि से वंचित और पिछड़ी जातियों की थीं) नसबंदी शिविरों के कुप्रबंधन के कारण असमय मृत्यु को प्राप्त हो गईं। 
हरियाणा जैसे प्रदेशों में यदि जनसंख्या वृद्धि की दर घटी है तो इसके साथ लिंगानुपात भी बिगड़ा है और महिलाओं की संख्या में पुरुषों की तुलना में चिंताजनक गिरावट देखने में आई है। यह दर्शाता है छोटे परिवार का आग्रह तो है लेकिन पुत्र रखने की चाह में कन्या भ्रूण से गैर कानूनी रूप से छुटकारा पाया जा रहा है। 

क्या प्रधानमंत्री जनसंख्या समस्या के निदान हेतु बनने वाली भावी नीतियों को पितृसत्ता के वर्चस्व से मुक्त कर पाएंगे? यह प्रश्न हम सभी के मन में है।

दक्षिण भारत से असंतोष के स्वर

प्रधानमंत्री जी के वक्तव्य के बाद दक्षिण भारत से असंतोष के स्वर आ रहे हैं। दक्षिण भारत के राजनीतिक हलकों में यह चर्चा जोरों पर है कि दक्षिण भारत तो वैसे ही जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण पा चुका है अतः उसे जनसंख्या वृद्धि की समस्या से ग्रस्त राज्यों को लक्ष्य कर बनाई गई किसी नीति से संचालित करना ठीक नहीं है। वर्तमान में किसी राज्य में सांसदों और विधायकों की संख्या उस राज्य की जनसंख्या और जनसंख्या घनत्व द्वारा निर्धारित होती है। राज्य के जिस क्षेत्र में जनसंख्या घनत्व अधिक होता है उसे अधिक सीटें मिलती हैं। दक्षिण भारत के राज्य अब उस स्थिति की ओर अग्रसर हैं जिसमें उनकी जनसंख्या में कमी आनी प्रारंभ हो जाएगी।

कर्नाटक जनसंख्या के आधार पर सीटों के निर्धारण के इस पैमाने का उपयोग करने पर 2026 के बाद होने वाले संभावित पुनर्निर्धारण में अपनी 6 लोकसभा सीटें गंवा कर 22 पर सीमित हो जाएगा और केरल के पास 20 की बजाए 15 लोकसभा सीटें रह जाएंगी। जबकि उत्तरप्रदेश के पास 80 के बजाए 100 सीटें हो जाएंगी और वह भारतीय राजनीति में निर्णायक स्थिति प्राप्त कर लेगा। 

2017 में जब वित्त आयोग ने 2011 की जनगणना के आंकड़ों को केंद्र से राज्यों को मिलने वाले फण्ड के वितरण का आधार बनाने का निर्णय लिया तो दक्षिण के राज्यों ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए 1971 की जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाए रखने की मांग की क्योंकि इन राज्यों में जनसंख्या कम हुई है और वित्त आयोग का यह निर्णय उन्हें नुकसान पहुंचाता। स्थिति यह है कि कर्नाटक यदि केंद्र को 100 रुपए का योगदान देता है तो अपने विकास के लिए उसे महज 45 रुपए वापस मिलते हैं, जबकि उत्तरप्रदेश अपने 100 रुपए के योगदान के बदले 125 रुपए के लाभ प्राप्त करता है। प्रधानमंत्री जी यदि परिवार के बड़े या छोटे आकार के आधार पर दंड या पुरस्कार का निर्धारण करते हैं तो फिर उन्हें राज्यों के लिए भी यही पैमाना अपनाना होगा।

प्रधानमंत्री ने कहा कि सीमित परिवार रखने वाले लोग एक तरह से देशभक्ति का परिचय देते हैं। प्रधानमंत्री का कथन सत्य है, निश्चित ही ऐसे जागरूक नागरिक देश को मजबूती देते हैं। किंतु प्रधानमंत्री जी को यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए था कि निर्धनता, अशिक्षा और बेरोजगारी का अभिशाप झेल रहे तथा अस्वास्थ्यप्रद दशाओं में निवास करने को विवश वंचित समुदाय के लोगों का परिवार यदि बड़ा है तो इसके लिए देश की शासन व्यवस्था को ही दोषी ठहराना चाहिए न कि इन अभागे लोगों को। 

यह कहना कि यह वंचित शोषित तबका सुशिक्षित, साधन संपन्न, समर्थ उच्च वर्ग से कम देशभक्त है क्योंकि इसका परिवार बड़ा है, इसके साथ अन्याय करना है। 

क्या कहते हैं अंतरराष्ट्रीय इंडेक्स?

2019 के ग्लोबल हेल्थ इंडेक्स में हम 169 देशों में वर्ष 2017 की तुलना में एक पायदान की गिरावट के साथ 120 वें नंबर पर रहे। हमारा प्रदर्शन चीन (52), श्रीलंका (66), बांग्लादेश(91) और नेपाल (110) से भी नीचे रहा। यह प्राइमरी हेल्थ केअर के क्षेत्र में हमारी नाकामी को दर्शाता है। 

2019 के जेंडर इक्वलिटी इंडेक्स में हम 129 देशों में 95 वें स्थान पर रहे। एशिया पैसिफिक रीजन के 23 देशों में हम 17 वें स्थान पर रहे। यह संधारणीय विकास के आकलन के 51 पैमानों पर हमारी विफलता का सूचक है। यूएनडीपी द्वारा सितंबर 2018 में जारी वर्ल्ड ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में हम एक स्थान के सुधार के साथ 189 देशों में 130 वें स्थान पर रहे। इससे ज्ञात होता है कि स्वास्थ्य, शिक्षा और आमदनी बढ़ाने के क्षेत्र में अभी हम बहुत पीछे हैं। विकास का यह परिदृश्य यह दर्शाता है कि जनसंख्या वृद्धि के लिए सरकारें अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकतीं क्योंकि विकास मानकों पर उनका प्रदर्शन बहुत लचर रहा है।

जनसंख्या नियंत्रण एक अत्यंत महत्वपूर्ण, आवश्यक और संवेदनशील मसला है किंतु इसका उपयोग सरकार द्वारा आर्थिक मोर्चे पर अपनी नाकामी को छिपाने अथवा धार्मिक समुदायों के मध्य संघर्ष को बढ़ावा देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री जी 130 करोड़ देशवासियों के मुखिया हैं और आशा की जानी चाहिए कि आने वाली जनसंख्या नीति वैज्ञानिक एवं प्रजातांत्रिक मूल्यों पर आधारित होगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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