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कश्मीर पर यूएन की रिपोर्टः भारत, पाकिस्तान और सशस्त्र समूहों के ख़िलाफ़ चौंकाने वाला एक दस्तावेज़

'पक्षपात' को अधिकारियों द्वारा ख़ारिज किए जाने के बावजूद कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र की ये रिपोर्ट भारत, पाकिस्तान और सशस्त्र समूहों के ख़िलाफ़ एक चौंकाने वाला दस्तावेज है जो पिछले 30 वर्षों से इस क्षेत्र में सक्रिय हैं।
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संयुक्त राष्ट्र कार्यालय द्वारा कश्मीर पर जारी किया गया रिपोर्ट इस अशांत प्रदेश के लिए एक अंतरराष्ट्रीय सांविधिक संस्था की शायद पहली गंभीर रिपोर्ट है। ये रिपोर्ट नियंत्रण रेखा (एलओसी) के दोनों तरफ रहने वाले लोगों की वास्तविकताओं को बताती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान के नियंत्रण के क्षेत्र में मानवाधिकार उल्लंघन 'संरचनात्मक' हैं जिसका मतलब है कि पाकिस्तान में क़ानून लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ नागरिक स्वतंत्रता की अवहेलना के लिए इस्तेमाल किया जाता है। जबकि भारतीय क्षेत्र में ये उल्लंघन नागरिकों के ख़िलाफ़ सशस्त्र बलों के ईर्द गिर्द बड़े पैमाने पर रहता है।

हालांकि एलओसी के भारतीय क्षेत्र में कश्मीर की स्थिति अक्सर मुख्यधारा की मीडिया में कानून और व्यवस्था के मुद्दे के रूप में व्याख्या की जाती है, इस रिपोर्ट से पता चलता है कि ऐसा दृष्टिकोण सच्चाई से काफी दूर है। 'भारत प्रशासित कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन' (Human right violations in Indian-Administered Kashmir) के शीर्षक के तहत इस रिपोर्ट में संबंधित उप-शीर्षकों के अधीन 14 विशिष्ट उल्लंघनों का ज़िक्र किया गया है। इस रिपोर्ट की शुरूआत बुरहान वानी की मौत और इसके बाद हुए विरोध प्रदर्शन की घटना से की गई है। इसके बाद ख़तरनाक 'पेेलेट गन' और असंतोष दबाने के लिए सशस्त्र बल (जम्मू-कश्मीर) विशेष बल अधिनियम, 1990 (एएफएसपीए) के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर लोक सुरक्षा अधिनियम, 1978 (जेकेपीएसए) के इस्तेमाल के बारे में बताया गया है।

इस रिपोर्ट ने सशस्त्र बल (जम्मू-कश्मीर) विशेष बल अधिनियम, 1990 (एएफएसपीए) के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर लोक सुरक्षा अधिनियम, 1978 (जेकेपीएसए) पर भी आलोचना की है। एएफएसपीए की आलोचना इसकी धारा 4 और 7 के तहत अपने दोहरे प्रावधानों नागरिकों के लिए न्याय को अस्वीकार करने और सरकारी दंड को बढ़ावा देने के लिए की गई। धारा 4 सुरक्षा बलों को न केवल आत्मरक्षा के लिए शक्तियों के इस्तेमाल इजाज़त देता है, बल्कि इकट्ठा होने के ख़िलाफ़ उनके आदेशों का पालन न करने पर भी इसकी इजाज़त देता है। दूसरी तरफ धारा 7 केंद्र सरकार से पूर्व मंजूरी के बिना सेना के ख़िलाफ़ मुक़दमा करने से रोकती है। इन दोनों प्रावधानों को एक साथ पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि जब तक कोई दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं होती है तब तक पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की अनुपस्थिति में नागरिक इस कानून के लागू रहते हुए न्याय की अपेक्षा नहीं कर सकते हैं। जेकेपीएसए स्थानीय नागरिक अधिकारियों को लोगों को इकट्ठा होने से रोकने के लिए प्रतिबंध लगाने और आदेशों का उल्लंघन करने वाले लोगों को हिरासत में लेकर इन प्रतिबंधों को लागू करने की शक्ति प्रदान करता है। इस क़ानून का मूल यह है कि इस तरह की हिरासत न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं आता है।

पीड़ित नागरिकों के न्याय को सुनिश्चित करने में उसकी असमर्थता को लेकर सैन्य न्यायालयों और न्यायाधिकरणों की भी निंदा की गई है। प्रकृति रूप में प्रशासनिक और नागरिक न्यायिक निरीक्षण से मुक्त होने के चलते यह साफ है कि उनकी कार्यवाही अपारदर्शी बनी हुई है। भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा सेना को कथित मानवाधिकार उल्लंघन के लिए अपनी जांच और मुक़दमा की अनुमति देने के बाद उनकी अस्पष्टता और अधिक स्पष्ट हो गई। जून 2017 में जनरल सिक्योरिटी फोर्स कोर्ट ने साल 2010 में 16 वर्षीय ज़ाहिद फारूक शेख की हत्या के मामले में सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के दो सदस्यों को बरी कर दिया। अगले ही महीने बारामूला ज़िले के माछिल में तीन लोगों की हत्या के मामले में कोर्ट मार्शल द्वारा दोषी ठहराए जाने के बावजूद सशस्त्र सेना न्यायाधिकरण ने पांच सैन्य कर्मियों के उम्र क़ैद को रद्द कर दिया और ज़मानत दे दी।

इस रिपोर्ट ने सरकार द्वारा बलों के अत्यधिक इस्तेमाल को लेकर आलोचना भी किया है। इस रिपोर्ट में इशारा किया गया है कि भारत के ब्यूरो फॉर पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट द्वारा तैयार किए गए 'गैर-घातक कार्यवाही के साथ सार्वजनिक आंदोलनों से निपटने के लिए मानक संचालन प्रक्रियाएं' अनुशंसा करती हैं कि सुरक्षा बल गैर-घातक या घातक शक्तियों का इस्तेमाल करने से पहले प्रदर्शनकारियों को चेतावनी देना है; इस सिफारिश को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया। क़ानून प्रवर्तन एजेंसियों ने बिना किसी पूर्व चेतावनी के सभी प्रकार के शक्तियों का इस्तेमाल किया है, संभावना है कि इसने पहले से ही लोगों के विचलित मिज़ाज को बढ़ावा दिया है जिसके परिणामस्वरूप विरोध एक वर्ष से अधिक समय तक चलता रहा।

वर्ष 2018 में हुई हत्याओं का ज़िक्र किया गया है जो आमतौर पर दो परिस्थितियों में हुईं: मुठभेड़ के इलाक़ों के आस पास और विरोध के दौरान। बुरहान वानी की मौत के बाद से जम्मू-कश्मीर में लोगों के मिजाज़ को देखते हुए यह उम्मीद की जा सकती है कि इन परिस्थितियों में बल का सख़्त इस्तेमाल किया जाए। हालांकि इस रिपोर्ट ने सवाल उठाए हैं जैसे कि इस तरह की हत्याएं न्यायेत्तर थीं या नहीं। इन दो परिस्थितियों में सरकार की स्थिति साफ तौर पर ज़ाहिर होगी कि मारे गए लोग सुरक्षा बलों को उनके कर्तव्यों को निर्वाह करने से रोक रहे थे। सवाल फिर यह है कि ऐसा क्यों लगता है कि पूरी आबादी इसमें शामिल है? उन्हें अब तक किन चीज़ों ने धकेला है?

पेलेट-गन के इस्तेमाल को लेकर इस पूरे रिपोर्ट में आलोचना की गई है। इसे तथाकथित 'पेलेट-गन' आखिरकार कहा जाता है जो कि यह वास्तव में एक 12 गेज पंप-एक्शन शॉटगन है। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि भरे हुए गोली की प्रकृति के चलते गोली के प्रक्षेपण को किसी विशेष दूरी से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। इसका मतलब यह है कि भले ही सुरक्षा बलों ने नीचे की तरफ निशाना लगाया तो कोई भी यह सुनिश्चित नहीं कर सकता है कि गोली किसी की आंखों को नुक़सान नहीं पहुंचाएगी।

इस रिपोर्ट में मनमाने ढंग से बच्चों सहित लोगों की गिरफ्तारियों का भी उल्लेख किया गया है। गिरफ्तारी की ये प्रकृति इन्टरनेशनल कोवेनएंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स (आईसीसीपीआर) के साथ-साथ यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन द राईट ऑफ (यूएनसीआरसी) का उल्लंघन करता है। भारत इन दोनों दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने वाला देश है, इस तरह जम्मू-कश्मीर के मामले में भारत का ये राज्य अपने स्वयं के लागू अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का उल्लंघन कर रहा है।

यातनाएं देना इस भारतीय राज्य की एक अन्य कार्रवाई है जो आईसीसीपीआर का उल्लंघन करती है। इस रिपोर्ट में 'मानव ढाल' की घटना सहित यातना के तीन उदाहरणों का उल्लेख किया गया। सबसे पहला शबीर अहमद मंगू की मौत थी जो कि विश्वविद्यालय में लेक्चरर थें जिनकी मौत सुरक्षा बलों के जवानों द्वारा की गई पिटाई से हो गई थी। 'मानव ढाल' की घटना को देखा में देखा गया कि फारूक अहमद डार को सेना की जीप से बांधकर चलाया गया था। स्पष्ट मानवाधिकार उल्लंघन जो कि संयोग से युद्ध-अपराध भी है उस पर ध्यान देने के बजाय वे सैनिक जिन्होंने ढाल के रूप में डार का इस्तेमाल किया था उन्हें पुरस्कार मिला। तीसरी घटना एक मज़दूर की थी जिसे 27 राष्ट्रीय राइफल्स द्वारा उठाया गया था उसे यातनाएं दी गई और छोड़ दिया गया। यातना के सभी मामलों में उल्लेख किया गया कि पुलिस जांच के अलावा ज़्यादातर मामलों में दोषियों के ख़िलाफ़ कभी भी कोई कार्रवाई नहीं की गई थी।

इन यातनाओं के अलावा एक अन्य मामला लोगों की गुमशुदगी का है। जम्मू-कश्मीर में नागरिक समाज और मानवाधिकार समूहों का आरोप है कि गुमशुदगी के 8,000 मामले हैं। सरकार इससे इनकार करती है और इस संख्या को कम करके 4,000 बताती है। सरकार का कहना है कि ये लोग पाकिस्तान में हथियारों का प्रशिक्षण लेने के लिए लापता हो गए हैं। हालांकि, इस रिपोर्ट में उत्तरी कश्मीर में पाए गए सामूहिक क़ब्र के बारे में भी ज़िक्र किया गया जहां से लगभग 1,200 शवों को निकाला गया था।

इस रिपोर्ट में स्वास्थ्य के अधिकार के उल्लंघन का भी उल्लेख किया गया है। यह इंटरनेशनल कोवेनएंट ऑन इकॉनोमिक सोशल एंड पॉलिटिकल राइट्स (आईसीईएससीआर) का उल्लंघन करता है जबकि भारत इस अंतर्राष्ट्रीय समझौता का एक भागीदार है। इस उल्लंघन में सरकार और नागरिक दोनों शामिल हैं। वे नागरिक जो एम्बुलेंस को अस्पताल जाने और दवाओं को पहुंचाने रोकते हैं। इस रिपोर्ट में इस तथ्य का भी उल्लेख किया गया है कि विरोध प्रदर्शन के दौरान 'पेलेट-गन' की गोलियों से ज़ख़्मी हुए लोग गिरफ्तारी के डर से अस्पतालों में इलाज कराने से बचते हैं।

दूसरा उल्लंघन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंधों की व्याख्या करता है। इसमें मोबाइल और इंटरनेट सेवाओं के ब्लॉक करने के साथ-साथ क़रीब तीन महीने तक 'कश्मीर रीडर’ पर प्रतिबंध का ज़िक्र किया गया। कथित रूप से विरोध प्रदर्शन के दौरान सरकार की आलोचना को लेकर इस अख़बार पर प्रतिबंध लगाया गया था।

शिक्षा के अधिकार भी उल्लंघन किया गया है। एक तरफ बुरहान वानी की मौत के बाद विरोध प्रदर्शन के परिणामस्वरूप हिंसा के चलते शैक्षणिक संस्थान बंद हो गए वहीं दूसरी तरफ, इस रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि सुरक्षा बलों ने कई अवसरों पर स्कूलों को अपनी कार्रवाई के लिए इस्तेमाल किया था। ऐसी परिस्थितियों में जहां सुरक्षा बलों की उपस्थिति के बावजूद बच्चे लगातार स्कूल जा रहे थे तो एक जोखिम यह था कि स्कूल हथियारबंद समूहों के लिए एक लक्ष्य बन सकता था।

इस रिपोर्ट में कुनान-पोशपोरा की पृष्ठभूमि में यौन हिंसा की विशेष रूप से चर्चा की गई थी। फरवरी 1991 में चौथी राजपूताना राइफल्स के जवानों ने कथित तौर पर कुपवाड़ा ज़िले के कुनान और पोशपोरा गांवों की 23 महिलाओं के साथ गैंग रेप किया था। आज तक इन पीड़ितों को न्याय का इंतज़ार है। एएफएसपीए को संशोधित करने के लिए अपील की गई है ताकि यौन हिंसा की जांच और मुक़दमा नागरिक अदालतों में चलाया जा सके और यौन अपराधों के लिए मंजूरी की आवश्यकता को ख़त्म किया जा सके। हालांकि, लगता है कि सरकार रेप के दोषियों को बचाना चाहती है क्योंकि ऐसा कोई प्रस्ताव अभी तक नहीं लाया गया है।

यह रिपोर्ट जम्मू-कश्मीर में संचालित 'सशस्त्र समूहों' कि लिए समान रूप से आलोचनात्मक थी। हालांकि, भारत सरकार ने उन्हें 'आतंकवादियों' के बजाय 'सशस्त्र समूह' के रूप में पेश करने का विरोध किया है, फिर भी यह जम्मू-कश्मीर के लोगों पर हुई हिंसा की परिमाण को नहीं बदलता है। वर्ष 1980 के दशक के अंत में सशस्त्र विद्रोह के प्रारंभिक चरणों के दौरान कश्मीरी पंडितों की नस्लीय सफाए को लेकर इस रिपोर्ट में गंभीर रूप से आलोचना की गई है।

इस रिपोर्ट के महत्व को शब्दावली और कार्यप्रणणाली पर आपत्तियों के शोर में लुप्त नहीं होना चाहिए। यूएनओएचसीआरएच ने जम्मू-कश्मीर और गिलगिट बाल्तिस्तान तक अप्रतिबंधित प्रवेश के लिए भारत और पाकिस्तान दोनों सरकारों से बार-बार अनुरोध किया था। भारत सरकार ने इनकार कर दिया और पाकिस्तान सरकार ने कहा कि भारत-प्रशासित क्षेत्रों में यूएनओएचसीएचआर को अनुमति देते हुए भारत पर प्रवेश सशर्त थी। राजनीतिक दिखावा के इस खेल में सामान्य रूप से यह आम लोग हैं जो कुचले जाते हैं। संभावना है कि सरकार या सशस्त्र समूह इस रिपोर्ट पर काम करेंगे और हालांकि, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को विशेष रूप से इसे फिलिस्तीन के समान उल्लेख करते हुए ध्यान रखना चाहिए।
 

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