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क्या है गिरफ्तार किये गए कार्यकर्ताओं का जुझारू जीवन ?

यह सरकार भीमा कोरेगांव के असली दोषियों को बचाने के मकसद में जी जान लगा रही है। इस तरह से यह सरकार अपने उन घोटालों और नाकामियों की ओर से ध्‍यान हटाने का काम कर रही है,जो कश्‍मीर से लेकर केरल तक फैली चुकी है।
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28 अगस्त 2018. महाराष्ट्र पुलिस ने अफवाहों के आधार पर आरोप लगाकर देशभर के कई मानवधिकार कार्यकर्ताओं के घरों पर छापे मारें और पांच मानवधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया। आरोप यह था कि इन कार्यकर्ताओं ने साल 2017 के अंतिम दिन एल्गर परिषद की सभा में एक दिन बाद होने वाले भीमा कोरेगांव दलित और आदिवासी सामरोह को हिंसक बनाने के लिए लोगों को उकसाया था. महाराष्ट्र पुलिस की इस कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका  दायर की गयी. याचिका में कहा कि महाराष्ट्र पुलिस की यह कार्रवाई असहमति को चुप कराने की कोशिश है, पूरे देश में समाज के दबेकुचले और वंचित लोगों की मदद करने वाले लोगों को रोकने की कोशिश है ताकि लोगों के मन डर पैदा किया जा सके. इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जज चंद्रचूड़ ने कहा कि असहमति लोकतंत्र में सेफ्टी वाल्व की तरह है. इस तरह की गिरफ्तारी दुर्भाग्यपूर्ण और गैर कानूनी है. पाँचों कार्यकर्ताओं को अंतरिम रिहाई दी जाती है और पांच सितम्बर तक अपने घर पर ही रहने का आदेश दिया जाता है. यह आज की दिनभर की उठापटक है. इस उठापटक को समझने के लिए 28 अगस्त 2018 तक भारत के माहौल को भी नेपथ्य में रखने की कोशिश करनी चाहिए ताकि पर्दे पर चल रही नाटक की मनः स्थिति समझी जा सके. माहौल यह है कि मोदी सरकार के कार्यकाल का अंतिम साल जारी है. अपने चार साल के कार्यकाल के दौरान मोदी सरकार ने कुछ किया हो या न किया हो लेकिन आम जनमानस में देशभक्त और देशद्रोही,नेशनल और एंटी नेशनल,नक्सलाइट और अर्बन नक्सलाइट जैसे खांचें जरूर भर दिए है. इन्हीं खांचों का अफवाह फैलाकर वह अपने 2019  की चुनावी राजनीति की बिसात  बिछा रही है.

इस माहौल को और पुख्ता करने के इरादे से जिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां की गई, एक बार  उनके जीवन यात्रा को समझने के कोशिश करते हैं ताकि यह भान लगाया जा सके कि राज्य जब समाज को अपनी तरह से हांकने की कोशिश करता है तो किस तरह के नागरिकों को निशाना बनाता है और उस आधार पर आजादख्याली और न्याय को कैसे कुचली  जाती है.

सुधा भारद्वाज - 57 साल की इस जुझारू महिला कार्यकर्ता की फरीदाबाद से गिरफ्तारी हुई। इनकी जन्मभूमि अमेरिका है और 11 साल में यह भारत में चली आयीं। 18 साल की उम्र में अमेरिका जैसी ऐशो आराम की नागरिकता छोड़कर भारत की नागरिक बन गई. भारद्वाज ने आईआईटी खड़गपुर से गणित में ग्रेजुएट की डिग्री हासिल की और पढ़ाई छोड़कर छत्तीसगढ़  मुक्ति मोर्चा की सहभागी बन गई. यह मुक्ति मोर्चा अविभाजित मध्य प्रदेश में मजदूर संघ के लिए काम करती थी.  लड़ाइयों की इन सहभागिताओं के दौरान ही साल 2000 में वकालत की डिग्री हासिल की. इसके बाद इन्होंने मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में मजदूरों के जायज अधिकारों के लिए खुलकर अदालती लड़ाई लड़नी शुरू कर दी. वर्तमान में बिलासपुर में बस्तर सोलडर्टी  नेटवर्क और जगदलपुर लीगल एड समूह से काफी नजदीकी से जुड़ी हुई हैं.कहने वाले कहते हैं कि सुधा भारद्वाज जैसी वकीलों की वजह से ही राष्ट्रीय मानवधिकार आयोग जैसी संस्थाएं अपना काम कर पाती है।

 इसलिए जरा सोचकर देखिए कि छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े इलाके में मजदूरों की हक की लड़ाई लड़ती एक जागरूक महिला जब सरकार और कॉरपोरेट की धांधली को उजागर करने के लिए जमकर काम करेगी तो कॉरपोरेट के दम पर चलने वाली सरकार का आलाकमान उसके साथ कैसा बरताव करेगा। बहुत सारी संभावनाएं है। जिसमें से एक संभावना का नाम है कि अर्बन नक्सलाइट का सिगूफा छोड़ा जाए।  देश के सामने इन्हें  देशद्रोही साबित करने की कोशिश  जाए। यकीन न हो तो रिपब्लिक चैनल देखिए, बड़े ही भद्दे तरीके से जनमत को जरूरी मुद्दों से भटकाकर अफवाही मुद्दों पर बांटने की कोशिश दिख जाएगी।

वरवर राव 

वरवर राव को हैदारबाद से गिरफ्तार किया गया। 78 साल का यह बूढ़ा शख्स एक प्रख्यात क्रांतिकारी कवि, साहित्यिक आलोचक और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता हैं, और वारंगल तेलंगाना में रहते है। इन्होंने आंध्र सरकार और माओवादी विरोध के बीच कई बार शांति का पुल बनाने के लिए काम किया है। यह 'विरासम' क्रांतिकारी लेखक मंच के संस्थापक हैं जो प्रगतिशील और आंदोलनरत साहित्य लिखने में यकीन रखते हैं और ऐसे साहित्य को फैलाने का काम करता है। इन्होंने तेलुगु भाषा में तकरीबन 15 कविताओं की किताब लिखीं हैं जिसका तकरीबन 20 भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। ओसमानिया विश्विद्यालय से ग्रेजुएट की डिग्री हासिल करने के बाद  दिल्ली के एक प्रकाशन संस्था में काम किया। लेकिन काम में मन नहीं रमा, काम छोड़ दिया, हैदराबाद लौट गए। कवि और कार्यकर्ता के तौर पर जीने का फैसला किया। साल 1974 में आंध्र सरकार ने सिकन्दराबाद षड्यंत्र मामलें में वरवर राव पर केस दायर किया गया। साल 1989 में फैसला आया और वरवर राव को बाइज्जत बरी कर दिया गया। 

 यानी कि एक कवि है जो अपने क्रांतिकारी लेखन के दम पर जन जागरूकता का काम करता है। सरकार के दमन के खिलाफ जनवाद की आवाज बनने का फैसला लेता है। लेखनी में आमजनता के साथ हो रही उत्पीड़न की आग है। ऐसे में सरकार को लगता है कि वरवर राव की लेखनी की लौ को प्रधानमन्त्री की हत्या के षड्यंत्र के तौर पर भी दिखाया जा सकता है और आम जनता में भ्रम पैदा किया जा सकता है। 

वेरनॉन गोंजाल्विस

वेरनॉन गोंजाल्विस को महाराष्ट्र से गिरफ्तार किया गया।दक्षिण मुंबई के किसी कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाते थे ,अपनी नौकरी छोड़ दिया और विदर्भ के मजदूरों के अधिकार के लिए काम करने लगे। गोंजाल्विस को सबसे पहले प्रतबंधित सीपीआई माओवादी  के सदस्य बनने के लिए गिरफ्तार किया गया ।बाद में इसे 2007 में अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया और ये छह साल तक जेल में रहे।

यानी जो पहले ही किसी मामले में गिरफ्तार हो चुके हैं, उन्हें अफवाहों को हवा देने के लिए शामिल किया जाए और जीवन के पिछले रिकॉर्ड के आधार पर अफवाहों को पुख्ता बनाने की कोशिश की जाए।

अरुण फरेरा 

48 वर्षीय अरुण फरेरा को महाराष्ट्र से गिरफ्तार किया गया। साल 2007 से यह व्यक्ति जेल के अंदर बाहर रहने का आदी हो चुका है। प्रतिबंधित सीपीआई के सदस्य बनने और इसकी विचारधार फैलाने के काम के आरोप में नागपुर पुलिस ने इसे  साल 2007 में गिरफ्तार किया। उसके बाद पुलिस ने इनपर  देश के  खिलाफ युद्ध छेड़ने के इरादे की वजह से  देशद्रोह के आरोप में तकरीबन 10 केस दर्ज किए। साल 2011 में जैसे ही एक मामले के आरोप में यह जेल से बाहर निकले किसी दूसरे आरोप में इन्हें फिर से जेल में डाल दिया गया। साल 2014 में सारे मामलों से बरी कर दिया गया। जेल में पुलिस द्वारा की गई प्रताड़ना के खिलाफ फरेरा ने 'कलर्स ऑफ द केज' नाम से किताब लिखी। 2015 में महाराष्ट्र और गोवा की बार कॉउन्सिल से वकालत का लाइसेंस हासिल किया और तबसे वकालत कर रहे हैं। 

अरुण फरेरा जैसे लोग जेल जाते हैं,अपनी जेल की यातनाओं पर किताब लिखते हैं, फिर वकील बनकर न्याय के लिए लड़ने लगते हैं, ऐसे लोगों पर अफवाहों का पुलिंदा बांधा जाता है,गिरफ्तार किया जाता है और अर्बन माओवाद के नाम पर जनमत को बांटने की कोशिश की जाती है।

गौतम नवलखा -

ग्वालियर में जन्में नागरिक अधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा पीपल यूनियन ऑफ डेमोक्रैटिक राइट्स के सक्रिय सदस्य है। इकोनॉमिक्स और राजनीति विज्ञान में प्रशिक्षित गौतम नवलखा 65 वर्षीय गौतम न्यूज क्लिक डिजिटल पोर्टल के लिए  पिछले कुछ सालों से संपादक सलाहाकर के तौर पर  काम कर रहे हैं। तकरीबन 30 साल तक इन्होंने अकादमिक क्षेत्र की विख्यात पत्रिका इकोनोमिक और पॉलिटीकल वीकली के साथ काम किया है।  कश्मीर पर किए गए इनके कामों से हर सरकार चिढ़ती है। यह कश्मीर में मानव अधिकार उल्लंघन के मुखर प्रवक्ता रह चुके हैं।  अभी हाल में छतीसगढ़, इनके काम का मुख्य  क्षेत्र है। इनके साथ काम करने वाले सहयोगियों का कहना है कि ऐसा पहली बार हुआ है कि गौतम को किसी मामालें में गिरफ्तार किया जा रहा है।

चूँकि आप न्यूज़क्लिक के पोर्टल पर यह लेख पढ़ रहे हैं और गौतम नवलखा न्यूज़क्लिक के ही सहयोगी हैं तो अंत में इस पूरे मामलें पर उनकी राय पढ़िए :

यह समूचा  मामला  कायर और बदले की मंशा से काम करने वाली इस सरकार द्वारा राजनीतिक असहमति के खिलाफ़ की गई राजनीतिक साजिश है । यह सरकार  भीमा कोरेगांव के असली दोषियों को बचाने के मकसद में जी जान लगा रही है। इस तरह से यह सरकार अपने उन घोटालों और नाकामियों की ओर से ध्‍यान हटाने का काम कर रही है,जो कश्‍मीर से लेकर केरल तक फैली चुकी है। एक राजनीतिक मुकदमे को राजनीतिक तरीके से ही लड़ा जाना चाहिए। मैं इस अवसर को  सलाम करता हूं। मुझे कुछ नहीं करना है। अपने राजनीतिक मालिकों की हुकुम पर काम कर रही महाराष्‍ट्र पुलिस की जिम्मेदारी है कि वह मेरे खिलाफ और मेरे संग गिरफ्तार हुए साथियों के खिलाफ अपना पक्ष  साबित करे। हमने पीयूडीआर में रहते हुए बीते चालीस साल के दौरान इकठ्ठा और  निडर होकर लोकतांत्रिक हक और हुकूक की लड़ाई लड़ी है और मैं, पीयूडीआर का हिस्‍सा होने के नाते ऐसे कई मुकदमे में शामिल हो चुका हूं। अब मैं खुद किनारे खड़े रह कर एक ऐसे ही राजनीतिक मुकदमे का गवाह बनने जा रहा हूं।

 

तू जि़ंदा है तो जि़ंदगी की जीत पर यक़ीन कर

अगर कहीं है स्‍वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर

ये ग़म के और चार दिन सितम के और चार दिन

ये दिन भी जाएंगे गुजर

गुजर गए हजार दिन 

तू जिंदा है ..

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