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क्या मोदी ने अप्रैल 2015 में रफ़ाल की कीमत खुद ही तय की थी?

सार्वजनिक डोमेन में मौजूद सभी सूचनाओं की घटनाओं के अनुक्रम जोड़ें, तो यह स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न केवल इस सौदे को तय किया बल्कि रफ़ाल की कीमत भी खुद ही तय की
rafale

अप्रैल 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा फ्रांस से बहुत हल्के अंदाज़ में 36 रफ़ाल खरीदने की घोषणा के बाद की घटनाओं के अनुक्रम से संकेत मिलता है कि उन्होंने न केवल एकतरफा सौदे की घोषणा की बल्कि अपने दम पर हवाई जहाजों की कीमत भी तय की थी। और इस सबसे कुछ ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य केवल निजी क्षेत्र की भारतीय रक्षा कंपनी का पक्ष लेना था। कैसा भी अनुमान लगाए इसके लिए कोई पुरस्कार नहीं है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए,हमने जो कुछ करने की कोशिश की है, उसमें वे सूचनाओं शामिल है जो पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में हैं। याद रखें, कि मई 2016 में, तत्कालीन रक्षा मंत्री, मनोहर परिकर ने मीडिया को बताया था कि "36 रफ़ाल  'लड़ाकू विमानों की आपूर्ति के नियम और शर्तों पर बातचीत हुयी, जिसमें कुल लागत, वास्तविक वितरण समय और गारंटी अवधि पर अंतिम निर्णय शामिल नहीं है”।उसी महीने में, एक कॉर्पोरेट इंटेलिजेंस समाचार पोर्टल, इंटेलिजेंस ऑनलाइन द्वारा प्रकाशित (4 मई, 2016) एक लेख में पढ़ा गया कि: “वसंत ॠतु की समाप्ति से पहले, भारतीय रक्षा मंत्री 36 डसॉल्ट-निर्मित राफेल (जिस पर लेख में जोर दिया गया है) लड़ाकू विमान के लिए 7.8 अरब यूरो  ऑर्डर पर हस्ताक्षर करने से पहले अंतिम मुद्दे को हल कर सकते थे। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यालय और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल का इस समझौते को तय करने के लिए भारतीय सेना पर भारी दबाव रहा है, जो सभी फ्रांसीसी सौदे पर आश्चर्यजनक रूप से उत्सुक थे। लेकिन फ्रांसीसी कंपनियां और टीम रफ़ाल सत्तारूढ़ पार्टी को रिझाने के हर सम्भव  प्रयास कर रही थी।”

यहां दो प्रमुख मुद्दे हैं। एक तो 36 वायुयानों की कीमत है-7.8 बिलियन डॉलर का मुद्दा है। क्या यह महज एक संयोग है कि अंतिम कीमत – जिसपर कि अब खुलकर चर्चा हो रही है - क्या वास्तव में ऐसा ही है? दूसरा, अगर इंटेलिजेंस ऑनलाइन की रिपोर्ट का कोई आधार है, तो रक्षा सौदे में भाजपा नेतृत्व, पीएम और यहां तक कि एनएसए, श्री डोभाल की भूमिका क्या है और सौदे में अनिल अंबानी के लिए उनका समर्थन का क्या औचित्य  हो सकता है?

रफ़ाल  सौदे में अनिल अंबानी की रक्षा उद्यम में प्रवेश को लेकर और उसकी इसमें भूमिका पर डसॉल्ट की अनिच्छा थी। इसका "समाधान" अनिल अंबानी की भूमिका को रफ़ाल निर्माण में नहीं बल्कि अन्य डसॉल्ट परियोजनाओं में शामिल कर किया गया। सितंबर 2015 में, रक्षा मंत्रालय के सूत्रों के हवाले से पता चला कि जिस बारे में फाइनेंशियल डेली इकोनॉमिक टाइम्स ने बताया कि ऑफसेट परियोजना दायित्व रक्षा क्षेत्र पर नहीं होगा, बल्कि वह एक असैनिक परियोजना होगी।

“हाइब्रिड ऑफसेट पर एक व्यापक समझौते के साथ गतिरोध को तोड़ा गया जिसमें अन्य मेक इन इंडिया परियोजनाओं में फ्रेंच निवेश को ऑफसेट दायित्वों को पूरा करने के रूप में भी माना जाएगा। भारत में निवेश में असैनिक परियोजनाएं शामिल की जा सकती हैं जिन्हे डसॉल्ट और थेल्स जैसी कंपनियां अपना रही हैं। मेक इन इंडिया निवेशों के तहत एक फ्रेंच फाल्कन कार्यकारी जेट के घटकों के निर्माण के साथ-साथ थेल्स की स्मार्ट सिटी परियोजनाओं में भी शामिल होने की संभावना है।”

यदि हम वित्तीय क्षमताओं के आधार पर भारत सरकार द्वारा अनुशंसित निजी कंपनी के साथ साझेदारी करने के लिए डसॉल्ट के आरक्षण को मानते हैं और फिर इसे केवल एक असैनिक परियोजना में निवेश करने के लिए क्यों चुना जाता है, तो चीजें दिन के उजाले की तरह स्पष्ट हो जाती हैं।एक अन्य विश्वसनीय स्रोत यह स्पष्ट तस्वीर पेश करता है कि कैसे मोदी के राफेल सौदे को तैयार किया गया था ताकि एक संघर्षशील भारतीय पूंजिपति की मदद की जा सके।

समीक्षकों द्वारा प्रशंसित और अच्छी तरह से शोध की गई अपनी पुस्तक - ए फिस्त ऑफ वल्चर - में फ्रांस के साथ अंतर सरकार समझौते (IGA) पर हस्ताक्षर करने से दो महीने पहले प्रकाशित हुयी, में एक खोजी पत्रकार जोसी जोसेफ एक कॉफी शॉप की बातचीत का जिक्र करते हैं जिसे उन्होंने पुस्तक “इनसाइडर एंड आउटलॉ”  के अध्याय में एक राजनयिक के साथ की थी। 

उन्होंने कहा “मैंने फोन पर कॉल का जवाब दिया। राजनयिक ने उन्मत्त ध्वनि में कहा कि; यह बेहद महत्वपूर्ण है कि हम तुरंत मिलें। शाम हो गई थी – ये एक अखबार के कार्यालय में सबसे अधिक अराजक घंटे होते हैं- और मैं काम की समय सीमा को पूरा करने के लिए जद्दोजहद कर रहा था। फिर भी, मैं उनके  स्वर को सुनकर  हैरान रह गया था। इस अंदाज़ में बात करना उनका तरीका नहीं था। अब तक, वे हमेशा मुझसे वक्त रहते  संपर्क किया करती थी, और हम इत्मीनान से दोपहर के भोजन पर मिलते थे। अगली सुबह, मैं एक कॉफी शॉप में उनसे मिलने के लिए रुका। वह पहले से ही वहां इंतजार कर रही थी। बात बिना किसी अभिवादन के शुरू हुई:  आप जानते हैं, हम थोड़ा भ्रमित हैं। सरकार और पार्टी के कुछ लोग इस सौदे का उत्साहपूर्वक समर्थन कर रहे हैं, हम नहीं जानते कि वे बदले में हमसे क्या उम्मीद कर रहे हैं। 'उनका देश दोनों सरकारों के बीच बहु-अरब डॉलर के सौदे पर बातचीत करने के बहुत उन्नत चरण में है। जिसके लिए आपूर्ति निजी कंपनियों से होनी थी। भारतीय प्रधान मंत्री और उनके समकक्ष के बीच एक शिखर बैठक के दौरान सौदे की आश्चर्यजनक आधिकारिक घोषणा ने व्यस्त गतिविधि को तेज़ कर दिया था। कई खिलाड़ी काम में शामिल हो गए थे: इस गतिविधि में एक भारतीय अरबपति जो इस सौदे का हिस्सा बनने की उम्मीद कर रहा था, और एक उच्च-प्रोफ़ाइल पीआर कार्यकारी और विभिन्न अन्य बाहरी लोग शामिल हो गए थे। हालांकि, जो विदेशी देश के लिए एक बहुत ही आश्चर्य की बात थी, और मेरे राजनयिक परिचित, प्रमुख लोगों के एक झुण्ड द्वारा दिखाए गए उत्साह से अधिक उत्साहित थे। इनमें से एक सत्ताधारी पार्टी का एक महत्वपूर्ण व्यक्ति था जो प्रधानमंत्री के विश्वास के व्यक्ति के रुप में जाना जाता था, और दूसरा एक सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी था जिसे नई सरकार ने एक महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया हुआ था। पार्टी के पदाधिकारी ने स्वेच्छा से इस सौदे के लिए राजनयिक के सहयोगियों का समर्थन किया था। वह बहुत उत्साह से इस सौदे का समर्थन कर रहा था, और वह दिन के किसी भी समय हमारे लिए उपलब्ध रहता था और सौदे का बहुत बारीकी से पालन कर रहा था, 'उन्हौने बताया। इस बीच, सरकारी अधिकारी ने दूसरे देश की यात्रा के दौरान सौदे पर चर्चा करने पर जोर दिया। हम आश्चर्यचकित इसलिए थे क्योंकि यह उसका दायरा  नहीं था। बेशक, हम खुश थे, "उसने स्वीकार किया।"

हालांकि जोसी ने इसमें शामिल व्यक्तियों के नाम, राष्ट्रीयता या किसी अन्य विवरण का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन राफेल सौदे के बारे में जो लोग जानकारी रखते हैं उनके लिए स्पष्ट संकेत हैं रक्षा सौदा से संबंधित किन और कौनसे राजनयिक का उल्लेख किया जा रहा है। सूत्रों के अनुसार, वह राफेल सौदे के बारे में बोल रही थी, और जिन लोगों का उसने उल्लेख किया, वे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष अमित शाह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और जनसंपर्क के मास्टर सुहेल सेठ थे। अगर यह सच है, तो शाह रक्षा सौदे को तह करने के लिए क्यों उत्सुक थे? डोभाल की दिलचस्पी क्या थी? क्या वे और सेठ अनिल अंबानी और उनके समूह की पैरवी कर रहे थे, जिसमें डसॉल्ट ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी?

पिछले कई अवसरों पर, यह बताया गया है कि तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर राफेल निर्णय के हिस्सेदार  नहीं थे, और उन्होंने बार-बार यह भी स्पष्ट किया है कि यह निर्णय अकेले मोदी ने लिया था।13 अप्रैल, 2015 को एक साक्षात्कार में, पर्रिकर ने कहा था कि फ्रांस से 36 राफेल को खरीदने का निर्णय "एक नेता का निर्णय था जो जानता है कि नेतृत्व क्या है और उसने एक साहसिक निर्णय लिया है" वह स्पष्ट रूप से संकेत दे रहे थे कि इसमें उनकी कोई भूमिका नहीं है।फ्रांस से सौदे के बारे में मोदी की घोषणा के कुछ दिनों बाद एक अन्य साक्षात्कार में, पर्रिकर ने कहा, "प्रधानमंत्री मोदी और फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के बीच" 36 विमानों की खरीद का निर्णय संभवतः उनकी चर्चा का परिणाम था। "

भारतीय वायु सेना से परामर्श के बिना 126 की जगह केवल 36 के लिए वैश्विक निविदा को रद्द करने के इस निर्णय का प्रभाव अब अच्छी तरह से समझा जा सकता है। अक्टूबर 2015 में, भारतीय वायु सेना (IAF) के वरिष्ठ अधिकारियों के हवाले से, द हिंदू ने लिखा: " भारतीय वायु सेना का कहना है कि यह संख्या पर्याप्त नहीं है, और कई लोग एयर फोर्स में कहते हैं कि दो राफेल स्क्वाड्रन से वायु सेना का बजट पर काफी दबाव पड़ने की संभावना हैं। पेरिस में 36 राफेल खरीद की घोषणा लगभग अचानक हो गई थी, और वायु सेना को कई स्रोतों के अनुसार, वे इस फैंसले से स्तब्ध रह गए थे। ”उन्हौने IAF के एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी को उद्धृत करते हुए कहा कि, जोक126 के पहले के प्रस्ताव के का एक हिस्सा था। उन्हौने कहा, "प्रस्ताव 126 लड़ाकू विमानों के लिए था, वर्तमान संख्या आईएएफ पर थोपी गई है"।

हिंदू रिपोर्ट आगे कहती है: "एक अन्य सूत्र ने कहा कि सरकार ने" ग्राहक यानि कि एयर फोर्स की आवश्यकताओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया है। "उन्होंने कहा कि इस कदम से नतीजे लम्बे समय तक हो सकते हैं - लड़ाकू विमानों के मिश्रण से उनके रखाव पर खर्च और एक महत्वाकांक्षी स्वदेशी एयरोस्पेस औद्योगिक बेस  विकसित करने में  कठिनाई होगी । "

उसी लेख में तत्कालीन वायु सेनाध्यक्ष, एयर चीफ मार्शल अरूप राहा के हवाले से लिखा गया है कि: '' मैं यह नहीं कह सकता कि मैं केवल राफेल को चाहता हूं। मैं राफेल-जैसे प्रकार के विमान की क्षमता चाहता हूं। इसलिए, सरकार की इस पर एक नज़र जरूर होगी और तात्कालिकता और डसॉल्ट एविएशन के साथ अनुबंध के प्रकार के आधार पर, आगे के निर्णय सरकार द्वारा लिए जा सकते हैं। "

यह इंगित करता है कि मोदी सरकार के फैसले के बारे में वायु सेना प्रमुख का बहुत कुछ कहना नहीं था और उन्हें फ्रांस के साथ भारत द्वारा हस्ताक्षरित अनुबंध के विवरण के बारे में भी जानकारी नहीं थी।पूर्व वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल पीवी नाइक के हवाले से कहा गया था कि "छोटी संख्या का मतलब है कि कुछ समय बाद उन्हें लड़ाकू विमानों अलविदा कहना पड़ेगा - और 36 जैसी छोटी संख्या के लिए बाकी बेड़े के साथ पुर्जों और उपकरणों की कोई विनिमेयता नहीं है इसके बहुत सारे नुकसान हैं ”, यह दिखाता है कि IAF से सौदे की घोषणा से पहले मोदी सरकार द्वारा उचित परामर्श नहीं दिया गया था।
भारतीय सेना के सेवानिवृत्त मेजर जनरल और डिफेंस प्लानिंग स्टाफ (अब इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ) के संस्थापक सदस्य अशोक के मेहता ने रक्षा विश्लेषक को लिखा, “सरकार अनुबंध को 126 से 36 पर ला रही है, यह असली घोटाला है। राफेल की तुलना में बोफोर्स तो केवल मुर्गे का चारा है। "वह आगे कहते हैं:" इस निर्णय में केवल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल शामिल थे। तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को आखरी वक्त में शामिल किया गया था। यहां तक कि एयर चीफ मार्शल अरुप राहा से भी परामर्श नही किया गया था, यह बात जोर देकर कही गयी।

मेहता ने कहा, “नियत प्रक्रिया का उल्लंघन किया गया है। CAG के एक अधिकारी और एक पूर्व सचिव, रक्षा वित्त ने मुझे पेरिस में मोदी की अनुबंधित संविदात्मक अनुचित घोषणा के बारे में बताया। बातचीत के तहत 126 राफेल अनुबंध को गलत ठहराया गया और यूरोफाइटर टाइफून को नए अनुबंध से बाहर रखा गया, जिससे एकल-विक्रेता खरीद गैर-प्रतिस्पर्धी हो गई थी। कानूनी और तकनीकी मुद्दों के सन्योजन से इस अनुबंध के औचित्य की भरपाई की गई है। ”जब इस सौदे से सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी एचएएल को हटाने की बात आती है, तो सितंबर 2015 में प्रकाशित एक लेख में हिंदू ने इसका पहला कारण बताया था।

रक्षा मंत्रालय के सूत्रों का हवाला देते हुए, लेख में कहा गया है कि, “चीजों की जानकारी में एक अधिकारी ने कहा कि फ्रांसीसी पक्ष को कई चिंताएं हैं जो दोनों पक्षों की विशिष्ट वार्ता में खैला कर सकती हैं। उनमें से प्रमुख  सवाल था कि सौदे में एक प्रमुख भारतीय निजी समूह की क्या भूमिका होगी। समूह पर किए सारे खोज के मुताबिक सरकार के एक वर्ग ने दृढ़ता से इसकी सिफारिश की थी, फिर भी इसकी वित्तीय क्षमताओं पर सवाल उठे। ”आगे कहा कि: “दोनों पक्ष में  ऑफसेट क्लॉज के सौदे को लेकर गंभीर संकट हो सकता है। जबकि MMRCA (मीडियम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट) सौदा - वर्तमान राफेल सौदे के अग्रदूत - 50 प्रतिशत ऑफसेट था, और इसके अधिकांश विमान भारत में बनने थे, बातचीत के तहत सौदा ऑफ-द-शेल्फ है जिसमें फ्रांस से 36 विमानों की खरीद शामिल है।”

हमें संदिग्ध वित्तीय क्षमताओं वाले "प्रमुख भारतीय निजी समूह" के नाम का अनुमान लगाने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा है "जिसे सरकार के एक वर्ग ने बड़ी ही दृढ़ता से अनुशंसित किया है"।अब विमान की असली कीमत भी सामने आ गई है जिस पर बहुत गोपनीयता रखी गई थी।इन सभी बिंदुओं को जोड़े तो यह स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि मोदी ने न केवल सौदे की घोषणा की, बल्कि खुद ही उनकी कीमत भी तय की थी, वह भी संबंधित अधिकारियों से पूर्व अनुमोदन के बिना। और अगर रिपोर्ट सही है, तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और एनएसए अजीत डोभाल इस सौदे में एक अतिरिक्त संवैधानिक भूमिका निभा रहे थे।

इसलिए, यहाँ बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार ने अपनी भागीदारी को छिपाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को गलत जानकारी दी? और क्या न्यायालय ने तथ्यों की पुष्टि किए बिना, एक निर्णय लिखा जिसमें सरकारी अधिकारियों को शामिल किया गया था, जिससे उनकी अपनी प्रतिष्ठा को गंभीर नुकसान पहुंचा है?रवि नायर ने राफेल घोटाले की कहानी का पर्दाफाश किया था और इस विषय पर वे एक किताब भी लिख रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

 

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