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क्या उत्तर प्रदेश ही बाधा है भाजपा के विजयपथ में?

आख़िर यूपी में क्या कुछ बदल रहा है?, क्यों तमाम अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद आज केंद्र में सरकार बनाने में सबसे बड़ी बाधा यूपी ही नज़र आ रहा है? क्यों चुनाव बाद योगी की विदाई की बात की जा रही है? ख़ास विश्लेषण...
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: Business Today

लोकसभा चुनाव प्रक्रिया अंतिम चरण में पहुँचते पहुँचते अचानक उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हलकों में चर्चा ज़ोर पकड़ने लगी कि चुनाव के बाद क्या योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद से हटाया जायेगा। इस चर्चा में एक तर्क यह भी आता है कि भारतीय जनता पार्टी लोकसभा में उत्तर प्रदेश से कितनी सीटें पाती है, यह संख्या योगी का भविष्य निर्धारित करेगी।  साफ़ है कि पूरे देश के साथ साथ भाजपा का कलेजा भी उत्तर प्रदेश में ही अटका है और 2019 के चुनाव में केंद्र सरकार की रूपरेखा 80 लोकसभा सीट वाले उत्तर प्रदेश से ही तय होनी है। 

अब वापस योगी आदित्यनाथ पर आते हैं और उनके शासनकाल की ओर नज़र डालते हैं और फिर दूसरी दृष्टि डालते हैं भाजपा की चुनावी व्यूह-रचना पर। योगी को उत्तर प्रदेश (यूपी) में शासन करते हुए दो वर्ष हुए हैं।  उन्हें एक भगवाधारी महंत के रूप में प्रदेश का मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया और ऐसा आभास दिया कि वह भाजपा के हिंदुत्व की मशाल थामकर हिन्दुओं के पहरुए के रूप में अपनी छवि बनाएंगे।  किसी हद तक ऐसा हुआ भी और गोवध जैसे तमाम मुद्दे सामने आ गए और योगी कट्टर हिंदूवाद के पर्यायवाची के रूप में देखे जाने लगे। 

मतलब यह कि सब कुछ भाजपा की योजना और रणनीति के अनुसार हुआ। केंद्र में भाजपा, प्रदेश में बड़े बहुमत के साथ भाजपा, दोनों ही स्थानों पर विपक्ष कमज़ोर अर्थात राजनीतिक रूप से बेहद आरामदेह स्थिति।  पिछले विधानसभा चुनाव का बहुमत देखते हुए और 2014 लोकसभा में 80 में से 73 (भाजपा 71 और 2 सहयोगी दल) सीटें पाने के बाद भाजपा के दोनों हाथ घी में लग रहे थे। 

यह भाजपा के लिए विडंबना ही कही जाएगी कि इतनी अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद आज केंद्र में सरकार बनाने में सबसे बड़ी बाधा उत्तर प्रदेश ही नज़र आ रहा है।  समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन ने भाजपा के सामने जो कड़ी चुनौती पेश की है उसे देखते हुए योगी के हिंदुत्व पर एक दो सवाल तो उठाये ही जा सकते हैं।  देखा जाये तो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को तीन बार लगातार करीब 13 बरस मुख्यमंत्री रहने के बाद ही हटाया जा सका, राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की सरकार को भी अलोकप्रिय होने में समय लगा लेकिन योगी के सिर्फ दो साल के कार्यकाल में ऐसी स्थिति क्योंकर हो गयी कि भाजपा अगर 73 से घटकर 45-50 सीटें ही पा ले तो अपने को धन्य समझेगी।  यह बिलकुल सत्य है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा सीटों की संख्या पर ही केंद्र में भाजपा सरकार का भविष्य टिका है। 

अब स्वाभाविक प्रश्न यह है कि योगी सरकार ने ऐसा क्या कर दिया जो उत्तर प्रदेश भाजपा की लीडरशिप के लिए फाँस बन गया है। वास्तविकता यह है कि योगी सरकार ने कुछ भी नहीं किया यानी ऐसा कुछ नहीं किया जिससे जनता वाह-वाह कर उठे।  शुरू से ही नकारात्मकता धारण किये योगी सरकार ने अपनी योजनाओं पर ध्यान न देते हुए पिछली सरकार की कमियां ढूढ़ने में इतना अधिक वक्त लगा दिया कि उन्हें आभास ही नहीं हुआ कि समय मुट्ठी में रेत  की तरह फिसलता है। हिंदुत्व की ओवरडोज़ में वह और पार्टी यह भूल गए कि इतने बड़े बहुमत की मांग कुछ और ही है। 

दो साल, जी हाँ! दो साल में योगी आदित्यनाथ ने यह स्थिति ला दी है कि भाजपा को सोचना पड़ेगा कि क्या हिंदुत्व के किसी विशेष चेहरे की उसे आवश्यकता भी है कि नहीं।  अगर यह सही कदम था तो लोकसभा चुनाव में उसे उत्तर प्रदेश में इतना संघर्ष क्यों करना पड़ रहा है।  कल तक पार्टी के आँख का तारा बने योगी आज अपनी ही पुरानी सीट गोरखपुर के बारे में भी पूर्णतया आश्वस्त नहीं होंगे। उनको हटाने की चर्चा ग़लत भी हो सकती है लेकिन अगर है तो क्यों उठी, वह भी इस समय जब लोकसभा चुनाव अपने अंतिम चरण में है।  एक बात तो तय है कि मतदाता सकारात्मक विकास चाहता है, झंडे और झंडाबरदारों को किनारे करने में उसे तनिक भी देर नहीं लगती है। 

आने दीजिये 23 मई और उत्तर प्रदेश के परिणाम निश्चित रूप से भारतीय राजनीति की एक दिशा निर्धारित करेंगे और आने वाले समय में मुद्दों का भी। 

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