लोकतंत्र की जगह लेता भीड़तंत्र!
कुछ सालों पहले तक जब आप सुबह उठ कर अपनी दहलीज़ या बालकोनी से अख़बार उठाते तो देश में चल रहे तमाम राजनीतिक समाजिक विमर्श के साथ साथ अपराध, अध्यात्म, कैरियर, फ़िल्म और खेल जगत की ख़बरों के साथ आपके दिन की शुरुआत होती थी लेकिन विगत कुछ सालों से एक और ख़बर लगभग प्रतिदिन अख़बारों के किसी न किसी पन्ने पर जगह बना रही है कि देश के किसी न किसी न कोने में एक हत्यारी भीड़ ने अलग-अलग कारणों की बुनियाद पर किसी न किसी की हत्या कर दी, उसे पीट-पीट कर मार डाला और दिनों दिन भीड़ द्वारा इस तरह की निर्मम हत्याओं का सिलसिला बढ़ता जा रहा है।
आपको बता दूँ के स्तिथि इतनी भयावह हो चुकी है कि केवल उत्तर प्रदेश में विगत 72 घंटों के अंदर अलग अलग स्थानों पर भीड़तंत्र की क्रूरता के लगभग 20 से ज़्यादा मामले हो चुके हैं। बिहार, और उत्तर प्रदेश में इस वक़्त बच्चा चोरी की अफ़वाह अपने चरम पर है और इसका शिकार, कमज़ोर मानसिक स्थिति कि ग़रीब महिलाएं, रेहड़ी फेरी वाले या भिखारी तो हो ही रहे हैं, अपने सगे रिश्तेदार तक हो रहे हैं। संभल, हापुड़, मेरठ, बुलंदशहर, मुजफ्फरनगर, रायबरेली, बरेली, जौनपुर और गोरखपुर जैसे शहरों में इस उन्मादी भीड़ का ख़ूनी चेहरा दुनिया के सामने आ चुका है।
उत्तर प्रदेश के संभल के चंदौसी में कुढ़ फ़तेहगढ़ थाना क्षेत्र के छाबड़ा गांव निवासी त्रिलोकी के सात वर्षीय बेटे रवि की तबियत सुबह ख़राब हुई और स्थानीय डॉक्टर की दवा से स्तिथि में कोई सुधार होता न देख कर बच्चे के दो चाचा रामौतार और राजू बीमार भतीजे रवि को ले कर बाइक से चंदौसी के अस्पताल के लिए निकले और दोपहर लगभग एक बजे जब वो दोनों असालातपुर जरई गांव से गुजर रहे थे तो वहां मौजूद ग्रामीणों की नज़र उन पर पड़ी। पेट दर्द से चीख़ रहे बच्चे को देखकर ग्रामीणों ने समझा के उसे जबरन उठा कर ले जाया जा रहा है। आनन-फ़ानन में क़रीब 300 लोगों की भीड़ मौक़े पर इकठ्ठा हो गई।
इसके बाद दोनों भाइयों को बिना पूछताछ के ही बच्चा चोर समझ कर लाठी-डंडों से पीटना शुरू कर दिया। रामऔतार और राजू इस हत्यारी भीड़ से चीख़ चीख़ कर ये कहते रहे कि बच्चा उनका भतीजा है, लेकिन हिंसा पर उतारू निर्मम भीड़ में से किसी ने उनकी एक न सुनी और उन दोनों को इतनी बेरहमी से पीटा गया के पुलिस द्वारा उन्हें भीड़ से बचा कर इलाज के लिए अस्पताल ले जाते वक़्त रास्ते में राजू ने दम तोड़ दिया और रामौतार अभी ज़िंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है।
इस तरह की एक घटना पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटे ग़ाज़ियाबाद के लोनी में हुई जहाँ लोगों ने महज़ इस बात पर बुजुर्ग महिला को पीट डाला क्योंकि उसका पोता गोरा था और वह सांवली और उस भीड़ के अनुसार दादी और पोते का रंग समान होना चाहिए था। वो बुज़ुर्ग महिला अपने पोते को ले कर बाज़ार से कुछ खरीदने आई थीं।
कल ही कानपुर के करीब फ़तेहपुर के गाज़ीपुर थाना क्षेत्र के खेसहन गांव में स्थानीय लोगों ने सरकारी स्वास्थ्य कर्मियों को बच्चा चोर समझकर पीटना शुरू कर दिया। वहाँ भीड़ इतनी उग्र थी के घटना की सूचना मिलते ही स्वास्थ कर्मियों को भीड़ से बचाने पहुंचीं पुलिस टीम तक उस भीड़ का शिकार हुई और तीन पुलिसकर्मी भी घायल हुए और पुलिस वाहन को क्षत्रिग्रस्त किया गया।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली में ही गुजरात से रस्सी बेचने आई पांच महिलाओं को भीड़ ने बच्चा चोर समझ कर पीट डाला जबकि वो महियलायें उस हिंसक भीड़ से गुहार लगाती रहीं के ये सभी उनके अपने बच्चे हैं। एसपी अजय कुमार पांडे द्वारा एएनआई को दिए गए ब्यान के अनुसार महिलाएं रस्सी और खिलौने बेच रही थीं और महिलाओं के बयान और विडिओ के आधार पर इस घटना में पांच लोगों को गिरफ़्तार किया गया है।
मेरठ में बच्चा चोरी के नाम पर एक युवक भीड़तंत्र का शिकार हुआ और स्थानीय प्रशासन के अनुसार इस मामले में आठ लोगों की गिरफ़्तारी और पचास अज्ञात के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की गयी है। बरेली में एक मानसिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति इसी भीड़तंत्र का शिकार हुआ और लोगों का आरोप था के वो बच्चे से पैसे छीन कर भाग रहा था।
कानपुर में भी ऐसे ही बच्चा चोरी के आरोप में दो बुज़ुर्गों की पिटाई की गई। उत्तरप्रदेश के एटा में भी एक ऐसी घटना घटी है। अधेड़ उम्र की एक महिला को बच्चा चोरी के शक में निर्मम भीड़ ने पीट दिया जब की महिला ख़ुद को बेगुनाह बताती रही और यहां तो केवल भीड़ ने उसे पीटा ही नहीं बल्कि उसका सर तक मुंडवाने का प्रयास किया गया।
केवल तीन दिन पहले 26 अगस्त को भी केवल 24 घंटे के अंदर उत्तर प्रदेश के हापुड़, बाराबंकी, मेरठ के किठौर में बच्चा चोरी के नाम पर अलग अलग लोग इसी भीड़ का शिकार हुए।
11 अगस्त को उत्तर प्रदेश के गोंडा में, 9 अगस्त को आगरा में भी ऐसी घटनाएं दर्ज की गईं।
बिहार और झारखंड में भी ऐसे कई मामले सामने आए और बिहार में जुलाई अंतिम सप्ताह और अगस्त प्रथम सप्ताह के लगभग 15 दिन के अंदर हिंसक भीड़ द्वारा हिंसा के तक़रीबन 12 मामले सामने आए और ताज़ा मामला बिहार के गया ज़िले का है जहाँ तीन लोग इसी बच्चा चोरी की अफ़वाह का शिकार हुए हैं।
इन घटनाओं की वजह क्या है?
विगत पांच सालों में कितने लोग भीड़ की हिंसा का शिकार हुए इसका आधिकारिक आंकड़ा शायद सरकार के पास भी न हो क्योंकि ऊपर हमने जिन घटनाओं की चर्चा की है उनमें केवल भीड़ द्वारा हिंसा की एक ही शैली यानी बच्चा चोरी के आधार पर भीड़ द्वारा हिंसा की गयी है। इसके अलावा मोदी पार्ट-1 के दौर में भाजपा की सरकार बनते ही गौरक्षा के नाम पर इसी तरह एक उन्मादी भीड़ सड़क पर उत्पात मचाती रही और दीमापुर के फ़रीदुद्दीन से जो सिलसिला शुरू हुआ वो अख़लाक़ पहलू, रकबर, अलीमुद्दीन से होता हुआ बुलन्दशहर के शहीद इंस्पेक्टर सुबोध तक पहुँचा। ऐसी ही अनगिनत घटनाएं हुई हैं जिसकी जानकारी तक शायद जनता तक न पहुंची।
मोदी सरकार 2014 की शुरुआत से ले कर जुलाई 2018 तक देश भर में तक़रीबन चार साल में 134 बार केवल गाय के नाम पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं हुई हैं जिसके शिकार मुसलमान और दलित हुए हैं। स्तिथि दिनों दिन इतनी भयावह होती गयी के सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं इस पर चिंतन करते हुए इसका संज्ञान लिया और भीड़तंत्र में तब्दील होते देश में भीड़ की हिंसा की रोकने के कारगर उपाय करने के लिए विगत वर्ष जुलाई 2018 में सभी राज्य सरकारों से कहा है कि वे प्रत्येक ज़िले में पुलिस अधीक्षक स्तर के वरिष्ठ अधिकारियों को नोडल अधिकारी मनोनीत करें और उन नोडल अधिकारियों के सहयोग के लिए उपाधीक्षक रैंक का एक अधिकारी भी नियुक्त किया जाए।
सरकार ने ये भी कहा है कि इन अधिकारियों के नेतृत्व में एक टास्क फ़ोर्स का गठन किया जाए।
इसके अलावा अधिकारी विगत पांच वर्ष में भीड़ द्वारा की गई हिंसा की ज़िलेवार सूची तैयार करें। राज्य के डायरेक्टर जेनरल ऑफ़ पुलिस, और गृह सचिव अन्य अधिकारियों के साथ प्रत्येक 3 महीने पर इस सम्बंध में एक मीटिंग करें और इस दिशा में उचित रणनीति बनाई जाती रहे। साथ ही कोर्ट का ये भी निर्देश है कि यदि कोई ज़िम्मेदार और इन घटनाओं की रोकथाम के लिए जवाबदेह अधिकारी इन निर्देशों का पालन करने में असफल रहता है या कोताही बरतता है तो इसे जान-बूझकर लापरवाही करने और अपने कर्तव्य के प्रति उदासीनता बरतने का दोषी माना जायेगा और इसके लिए उचित विभागीय कार्रवाई की जानी चाहिए जो छह महीने के अंदर किसी परिणाम तक जाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायलय ने केंद्र की सरकार से कहा था कि भीड़ की हिंसा के अपराधों से निपटने के लिए नए दंडात्मक प्रावधानों वाला क़ानून बनाने, उसे सख़्ती से क्रियान्वित करने और भीड़तंत्र द्वारा की गयी हिंसा के अपराधियों के लिए कठोर सज़ा का प्रावधान करने की दिशा में क़दम उठाये। न्यायापालिका द्वारा भीड़ की हिंसा के शिकार व्यक्ति और परिवार को राज्य सरकार द्वारा मुआवज़ा दिए जाने के सम्बंध में भी निर्देश दिया जा चुका है।
फिर पुनः अदालत ने सितम्बर 2018 में भी अपने निर्देशों पर अमल करने के लिए कहा और इसी साल जुलाई में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार, मानवाधिकार आयोग और ग्यारह राज्यों को नोटिस भेज कर द्वारा विगत वर्ष दिए गए निर्देशों के संबंध में जवाब तलब किया है लेकिन दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में शायद ही सरकारों द्वारा इस सम्बन्ध में कोई कारगर क़दम उठाया जाएगा। अलबत्ता राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने इस दिशा में क़ानून बनाया है और अब पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार भी इसकी तैयारी कर रही है और सम्भवतः इस सम्बंध में 30 अगस्त को बंगाल विधानसभा में प्रस्ताव पेश किया जा सकता है।
ये 'भीड़' क्या है?
भीड़ का इतिहास बहुत पुराना है और पूरी दुनिया में सबको अपने हिस्से की भीड़ चाहिए होती है। राजनेताओं से ले कर धर्मगुरुओं को नारे लगाने वाली ताली बजाने वाली भीड़ की ज़रूरत होती तो राजनीतिक दलों को शक्ति प्रदर्शन के लिए भीड़ की दरकार है।
लेकिन इसी तथ्य के साथ ये भी ध्यान रखना आवश्यक है के अलग अलग तरह की भीड़ का अलग अलग चरित्र भी होता है जैसे जब भीड़ क्रांतिकारियों की होती हैं तो उसका चरित्र सकारात्मक परिवर्तन की सोच के साथ निरंकुश तंत्र और अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह का होता है। और भीड़ जब हिंसा के लिए जमा होती है तो क्रूर हिंसक और विवेकहीन हो जाती है तथा उसकी मंशा और उद्देश्य भी नकारात्मक होता है।
नकरात्मक मंशा के साथ जमा होने वाली भीड़ कभी गौ रक्षा से ले मंदिर मस्जिद रक्षा और धार्मिक नारों के जबरन उद्घोष करवाने की आड़ में हिंसा करती है और कहीं भीड़ बच्चा चोरी, डायन प्रथा जैसी कुरीति या अन्य समाजिक पाखंड के आधार पर हिंसक होती है। साम्प्रदायिक आधार पर भीड़ द्वारा हिंसा के पीछे द्वेष नफ़रत और ख़ुद को श्रेष्ठ मानने की सोच होती है तो बच्चा चोरी या ऐसे कारणों के साथ हिंसक होती भीड़ के पीछे दोषियों को तुरन्त आनन फ़ानन में सज़ा देने जैसी सोच रहती है।
ऐसी भीड़ अफ़वाहों के आधार पर निर्मित होती है और सोशल मीडिया इस वक़्त अफ़वाह फ़ैलाने में काफ़ी सहायक सिद्ध हो रहा है। ये भी संज्ञान में रखना ज़रूरी है के अफ़वाह तंत्र एक ख़ास गिरोह द्वारा हमेशा संचालित किया जाता रहा है और वो इसके माध्यम से अपने उत्पाती केंद्र की ऊर्जा और सक्रियताओं का लिटमस टेस्ट करता रहा है। कभी मुंह नोचवा गिरोह की सक्रियता की अफ़वाह, कभी महिलाओं की चोटी काटने की अफ़वाह, कभी बच्चा चोरी और गौ मांस की अफ़वाहों के साथ अफ़वाह तंत्र का सफलतम प्रयोग किया जा चुका है। एक सुनियोजित तरीक़े से फ़र्ज़ी फ़ोटो, वीडियो,और ख़बरों का प्रसारण किया जाता है।
आज स्थिति इतनी विभत्स हो चुकी है के अगर हम अब भी न जागे तो हमारी आज़ादी के संघर्ष का स्वर्णिम इतिहास, लोकतंत्र का नैतिक मूल्य और वसुधेव कुटुंकम्भ की समाजिक अवधारणा और मानवता के सिद्धांत, सबकुछ की तिलांजलि हमारी आंखों के सामने ये नियंत्रणहीन भीड़ देती रहेगी और हम मूकदर्शक और तमाशबीन बने रहेंगे। फिर फ़ैसला ऑन द स्पॉट की प्रवृत्ति इसी तरह समाज मे अपनी जड़ मज़बूत करती रही तो भारत मे इंसाफ़ और न्यायपालिका का क्या औचित्य बच पायेगा!
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