मनरेगा पर मंडराते संकट के बादल
हाल ही में केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने लोकसभा में मनरेगा को लेकर कहा, 'मनरेगा बहुत ही जन-उपयोगी योजना है और जब से मोदी सरकार आयी है तब से यह योजना और भी ज्यादा उपयोगी हो गयी है… लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वो हमेशा मनरेगा को चलाने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि मनरेगा देश की गरीब जनता के लिए है और बीजेपी सरकार का मकसद देश से गरीबी को खत्म करना है।'
मंत्री जी का यह बयान सुनने में तो बहुत अच्छा है लेकिन यह कई सवाल भी खड़े करता है।
सबसे पहला सवाल तो यही कि क्या बीजेपी सरकार सच में देश की गरीबी मिटाना चाहती है?
क्योंकि गरीबी को रोजगार के जरिये ही मिटाया जा सकता है, लेकिन जब हम आंकड़ों की कसौटी पर मंत्री जी का बयान कसते हैं तो पता चलता है कि सबसे ज्यादा बेरोजगारी मोदी कार्यकाल में ही बढ़ी है। यहां तक कि इसे रोकने के लिए केंद्र की तरफ से कोई ठोस कदम भी अब तक नहीं उठाया गया है।
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस यानी एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार बेरोज़गारी दर 2017-18 में 45 साल के उच्च स्तर 6.1 प्रतिशत पर पहुंच गयी थी। द इंडियन एक्सप्रेस ने एनएसएसओ के 2017-18 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) रिपोर्ट पर आधारित अपने लेख में बताया है कि देश में 2011-12 में पुरुष कामगारों की संख्या 30.4 करोड़ थी जो 2017-18 में घटकर 28.6 करोड़ हो गयी है।
अब कौन सा फार्मूला मंत्री जी के पास हैं जो वास्तविकता से परे जाकर देश की बेरोज़गारी और गरीबी को मिटा सके।
मनरेगा की स्थिति
महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) में 2018-19 के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार 8.5 करोड़ से अधिक लोगों ने रोजगार की मांग की है। यह मांग साल-दर-साल लगातार बढ़ रही है। अब एक ओर जहां ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा की मांग इतनी तेजी से बढ़ रही है तो ऐसे में मनरेगा को कमजोर करना करोड़ों मजदूरों के रोजगार से खिलवाड़ करना होगा।
मोदी सरकार के केंद्र में आने के समय से ही मनरेगा पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। अपने दूसरे कार्यकाल में भी इस सरकार ने आवंटन राशि बढ़ाई जरूर है लेकिन मनरेगा में रोजगार की मांग करने वाले परिवारों तथा जिन परिवारों को रोजगार मिला हैं उनके बीच का अंतर बहुत बड़ा है। यह अंतर लगातार बना हुआ है।
2014-15 में 46.55 लाख काम की मांग करने वाले परिवारों को रोजगार नहीं मिला था। यह आंकड़ा कुल परिवारों का 10.7 प्रतिशत था। 2018-19 में यह आंकड़ा बढ़कर 57.99 लाख परिवारों का हो गया। इसका मतलब यह हुआ कि अभी 57 लाख से अधिक ऐसे परिवार हैं जिन्होंने काम की मांग की थी लेकिन उन्हें रोजगार नहीं मिला। उन्हें खाली हाथ घर वापिस आना पड़ा।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 में कहा गया था कि ग्रामीण क्षेत्रों की गरीब और बेरोजगार जनता को कम से कम 100 दिन रोजगार दिया जायेगा। हालांकि सच्चाई ये है कि जब से योजना लागू हुई है उसी समय से लेकर अब तक सभी सरकारें साल का औसतन 50 दिन भी रोजगार नहीं दे पाई हैं। 2014-15 में सभी परिवारों को औसतन 40 दिन का ही काम दिया गया था। यह आंकड़ा 2018-19 में औसतन 51 दिन का था।
इस हिसाब से साफ-साफ नजर आता है कि जब सरकार मनरेगा का बजट बनाती है उस समय वह मनरेगा में काम की मांग करने वाले परिवारों और उनको 100 दिन का रोजगार देने में आने वाले लागत को ध्यान में नहीं रखती है। इसके चलते काम की मांग करने वाले और वास्तविकता में काम पाने वाले परिवारों में अंतर रह जाता है।
हर साल जिन परिवारों को काम मिला हैं उनके श्रम की देय धनराशि हर साल शेष रह जाती हैं जोकि 2015-2016 में 1,233 करोड़ देय थी और 2018-2019 में बढ़ कर 5,042 करोड़ हो गयी थी यानि सरकार नये साल के आवंटित बजट में से पहले देय धनराशि की कटौती करती हैं उसके बाद शेष धनराशि को वित्तीय वर्ष के लिए आवंटित करती है।
यह सभी सरकारों की विफलता है कि वे देश की बेरोजगार जनता को रोजगार दे पाने में नाकाम रहे हैं। मनरेगा को ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दूर करके रोजगार की गारंटी देने वाली योजना के रूप में जाना जाता है। ऐसे में जब जब तक नई नौकरियों के लिए कदम नहीं उठाये जाते तब तक मनरेगा में सरकारी खर्च को बढ़ाये जाने की खास जरूरत है। जिससे इस योजना के माध्यम से ग्रामीण जनता को राहत मिलती रही।
हालांकि कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि मनरेगा में हर साल कम से कम 80,000 करोड़ रुपये खर्च करने की जरूरत है लेकिन सरकार द्वारा जो आवंटन व खर्च किया जा रहा है वह काफी कम है।
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में योजना को मजबूत करने के लिए किसी उपाय की तलाश नहीं की गई और न ही दूसरे कार्यकाल में ऐसी कोई कोशिश नजर आती है। अब तो केंद्रीय मंत्री खुले तौर पर योजना को बंद करने की वकालत करते नजर आते हैं।
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