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बड़े शहरों के विकसित होने के साथ पैदा हुआ था खसरे का वायरस

पुराने शोधों में पता चला था कि इस वायरस का इतिहास 11वीं और 12वीं शताब्दी ईसापूर्व में शुरू हुआ था। पर अब एक नई तस्वीर उभरी है।
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खसरा दुनिया की सबसे ज़्यादा फैलने वाली बीमारी है। अकेले 2017 में खसरा ने 1,42,000 लोगों की जान ले ली। हर साल दुनिया की एक बड़ी आबादी खसरा के वायरस हमले से प्रभावित होती है। लेकिन एक अहम बात है कि खसरा का वायरस रोगी में जीवन भर के लिए प्रतिरोधक क्षमता का निर्माण कर देता है।

इसका मतलब है कि खसरा के वायरस को जिंदा रहने के लिए एक बड़ी इंसानी आबादी को संक्रमित करना पड़ता है। एक वक्त में खसरा करीब 2,50,000 लोगों को संक्रमण का शिकार बनाकर ही खुद को विलुप्त होने से बचा सकता है। यहीं पैथोलॉजिस्ट, संक्रमणकारी बीमारियों का अध्ययन करने वाले इतिहासकार और एपिडेमिओलॉजिस्ट की दिलचस्पी बढ़ जाती है। वे सवाल उठाते हैं कि कब खसरा का वायरस एक मानवीय रोगाणु बनकर उभरा?

एक हालिया रिसर्च पेपर में खसरा वायरस की रोगजन्यता के इतिहास और इसके विकास पर प्रकाश डाला गया है। यह पेपर 'प्री प्रिंट सर्वर bioRxiv' में प्रकाशित हुआ है। इसके मुताबिक़ चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में यह वायरस इंसानी आबादी में पहुंचा। पहले के शोध में इस अवधि को 11वीं और 12वीं शताब्दी ईसापूर्व बताया जाता था।

शोधार्थियों ने रिसर्च में बर्लिन म्यूज़ियम ऑफ मेडिकल हिस्ट्री में 1912 से रखे फेंफड़ों से आरएनए निकाला और उसका विश्लेषण किया। 3 जून, 1912 को दो साल की बच्ची को निमोनिया हुआ। उसके बाद चैरिट यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में बच्ची की खसरे से ग्रसित होकर मौत हो गई। डॉक्टर ने उसके फेफड़ों को फॉर्मेलिन में संरक्षित कर लिया। एक शताब्दी बाद रॉबर्ट कोच इंस्टीट्यूट के बॉयोलॉजिस्ट कालविग्लनैक स्पेंस और उनकी टीम ने फेंफड़ों से सैंपल लिया औऱ इससे आरएनए निकाला।  

यूनिवर्सिटी ऑफ एरिज़ोना के बॉयोलॉजिस्ट माइक वोरोबी के मुताबिक़, 'तकनीकी तौर पर यह शानदार काम है। पुराने और गीले स्पेशीमेन से खसरे का वायरस निकालना अद्भुत है। इससे आगे शानदार काम का आधार बना है।'

इससे पहले खसरे के वायरस की उम्र का अंदाजा जापान के शोधार्थियों ने लगाया था। उन्होंने 2010 में बताया था कि यह वायरस 11वीं और 12वीं शताब्दी ईसापूर्व में पैदा हुआ। खसरे का वायरस, रिंडरपेस्ट वायरस से निकला है, यह रिंडरपेस्ट वायरस जानवरों- गायों, भैसों, बकरियों आदि में पाया जाता है।

रिंडरपेस्ट सीधे इंसानों को प्रभावित नहीं करता। इसलिए अगर किसी वायरस के पुराने वायरस से अलग होने का पता लगा लिया जाए, तो उम्र का पता लगाया जा सकता है। जापानी शोधार्थियों का विश्लेषण उस वक्त तक मौजूद खसरे के जीनोम और रिंडरपेस्ट वायरस पर निर्भर था। उन्होंने एक फायलोजेनेटिक ट्री बनाया। यह कुछ स्पेशीज़ के इतिहास के निर्माण और उनके अपने पुरखे वायरस से अलग होने के वक्त का विश्लेषण करता है।

खसरे के वायरस का मानव रोगजन्य बनने के इतिहास में सबसे बड़ी बाधा इसके जीनोम की बेहद कम उपलब्धता थी। 1990 से पहले के केवल तीन जीनोम ही मौजूद थे। जिनमें सबसे पुराना 1954 का था। इसे ही पहले खसरे के टीके के तौर पर विकसित किया गया था। अब जो स्पेंसर ने अलग किया है, वो सबसे पुराना बन चुका है।

स्पेंसर की टीम ने एक नया फायलोजेनेटिक ट्री बनाया। इसमें 1912 और 1960 से लेकर अभी तक के सभी जीनोम को शामिल किया गया। इससे पता चला कि खसरे का वायरस पहली बार इंसानी आबादी में 345 ईसा पूर्व में घुसा होगा। यह वह वक्त था, जब इंसानी आबादी अपनी क्रिटिकल साइज में पहुंच चुकी थी, अनुमान है कि खसरे को विलुप्त होने से बचने के लिए इतनी ही आबादी की जरूरत थी।

फॉर्मेलिन में डूबे फेंफडों के टिशू से आरएनए निकालना आसान काम नहीं था। फॉर्मेलिन से अलग-अलग प्रोटीन और दूसरे बड़े बॉयोमोलेक्यूल, जैसे आरएनए की क्रास लिकिंग हो जाती है। इसके ज़रिए यह कोशिकाओं को जोड़ता है और संबंधित अंग को लंबे समय तक सुरक्षित रखता है। टीम को इसे 15 मिनट के लिए 98 डिग्री पर रखना पड़ा था। इस गर्मी से क्रास लिकिंग टूट जाती है। लकिन इससे आरएनए कण भी टूटते हैं। टीम ने इन टूटे कणों को इकट्ठा कर क्रम बनाया।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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