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डराये-धमकाये जा रहे मीडिया संगठन, लेकिन पलटकर लड़ने की ज़रूरत

अगर मीडिया अपनी ज़मीन पर खड़ा रहे, तो भारत में लोकतंत्र का संकट कम विकट होगा, ख़ासकर जिस समय हुकूमत की तरफ़ से या उसके संरक्षण में पत्रकारों पर हमला किया जा रहा हो।
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भारत की मौजूदा हुकूमत ने तमाम तरह के आलोचनात्मक स्वरों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ी हुई है। मुख्यधारा के मीडिया के अहम तबक़ों को डराने-धमकाने या फिर अधीन कर लिए जाने के बावजूद यह स्थिति टेलीविजन में बड़े पैमाने पर है। सबसे हालिया हमलों में मुखर आलोचक राणा अय्यूब के ख़िलाफ़ किया गया हमला है। राणा अय्यूब खोजी रिपोर्टर और स्तंभकार हैं। उन्हें 29 मार्च को यूनाइटेड किंगडम और इटली की यात्रा करने से रोक दिया गया। उन्हें जाने की अनुमति तबतक नहीं दी गयी, जब तक कि एक अदालत ने उनके ख़िलाफ़ आरोपों को खारिज नहीं कर दिया।

लेकिन,,आकार पटेल इतने ख़ुशनसीब नहीं थे। केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) की ओर से जारी लुकआउट सर्कुलर के आधार पर व्याख्यान देने के लिए इस पूर्व पत्रकार और एमनेस्टी इंडिया के प्रमुख को 6 अप्रैल को संयुक्त राज्य की यात्रा करने से रोक दिया गया था। आख़िरकार, दिल्ली की एक अदालत ने उन्हें उस यात्रा की अनुमति दे दी और अधिकारियों से कहा कि वे उनसे माफ़ी मांगे। अपील किये जाने पर पटेल को फिर से यात्रा करने से रोक दिया गया, और 12 अप्रैल को केंद्र ने सीबीआई को विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम से जुड़े एक मामले में मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी। पटेल ने कहा है कि उन्हें सर्कुलर के बारे में सूचित नहीं किया गया था और उनकी हालिया किताब, ‘प्राइस ऑफ़ द मोदी इयर्स’ के कारण उन्हें निशाना बनाया जा रहा है। इस किताब में इस हुक़ूमत की आलोचना की गयी है।

इससे भी कम भाग्यशाली वह पत्रकार था, जिसके ट्विटर हैंडल के ख़िलाफ़ दिल्ली पुलिस ने 6 अप्रैल को बुराड़ी, दिल्ली में एक अनधिकृत बैठक की रिपोर्टिंग करते हुए उनके साथ और छह अन्य पत्रकारों के साथ मारपीट के बाद मामला दर्ज कर लिया था। ग़ाज़ियाबाद में रहने वाले एक उकसाने वाले शख़्स यति नरसिंहानंद सरस्वती सहित कई लोगों ने उस बैठक में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरे भाषण दिये थे। सरस्वती और अन्य के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज कर ली गयी है, लेकिन कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है।

कश्मीर के पत्रकार आसिफ़ सुल्तान का मामला तो शायद और भी दुर्भाग्यपूर्ण है। तीन साल आठ महीने जेल में बिताने के बाद राष्ट्रीय जांच एजेंसी की एक विशेष अदालत ने 5 अप्रैल को उन्हें ज़मानत दे दी । अदालत ने कहा है कि उनके ख़िलाफ़ लगाये गये आतंकवादियों को पनाह देने के आरोप का समर्थन में कोई सबूत नहीं है। हालांकि, अधिकारियों ने उन्हें रिहा नहीं किया। 10 अप्रैल को जम्मू और कश्मीर में लागू सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 के कड़े प्रावधानों के तहत आरोपित किये जाने के बाद उन्हें "फिर से गिरफ़्तार" कर लिया गया। इस तरह, उन्हें चार दिनों के लिए ग़ैर-क़ानूनन क़ैद में रखा गया।

जो पत्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व वाले शासन के घुटनों पर चलने के लिए कहने के बावजूद रेंग नहीं रहे थे, उनके ही ख़िलाफ़ कार्रवाई की गयी है। ‘ज़मानत मानक हो और जेल अपवाद हो’ जैसी दिल को भीतर तक छू देने वाली बातों के बावजूद, यह सिद्धांत महज़ हुकूमत से माफ़ी मांगने वालों और पक्षपात करने वालों के पक्ष में काम करता प्रतीत होता है। मसलन, एक मलयालम मीडिया संगठन के लिए काम करने वाले पत्रकार सिद्दीक़ी कप्पन ग़ैरक़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत डेढ़ साल से ज़्यादा समय से जेल में हैं। उन्हें अक्टूबर, 2020 में उत्तर प्रदेश की 19 साल की महिला के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और उनकी हत्या पर रिपोर्ट करने को लेकर हाथरस दौरे के दौरान गिरफ़्तार कर लिया गया था।

व्यावहारिक रूप से सभी सत्तावादी/बहुसंख्यक लोकलुभावन नेता और समूहों का यही कहना होता है कि वे पीड़ित हैं और उनके साथ "जागृत" पूर्वाग्रहों से ग्रस्त वाम/उदार शासन और/या मीडिया समूहों की ओर से भेदभाव बरता जाता है।

इसमें कोई शक नहीं कि यह एक बहुत बड़ा झूठ है। भारत में तो बहुसंख्यक हिंदुत्व का कारोबार करने वाले वे लोग ही हमलावर हैं, जो नाज़ियों की याद दिलाती रणनीति के साथ अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने की कोशिश कर रहे हैं। मीडिया मुख्य रूप से मौजूदा हुक़ूमत और उन आपराधिक तत्वों का समर्थन करता है, जो इसे प्रोत्साहित और सुविधा मुहैया कराते हैं। एंग्लो-अमेरिकन जगत में जब व्यवस्थागत नस्लवाद के अकाट्य आरोपों का सामना करना पड़ता है, तो श्वेत प्रतिष्ठान प्रतिष्ठानों और मीडिया की उस जागृति का जोखिम भरा हौवा खड़ा कर देता है। हालांकि, यही वह प्रतिष्ठान है, जिसे मीडिया के उन बड़े तबक़ों की ओर से समर्थन किया जाता है, जो कि नस्लवादी है। हंगरी, तुर्की, बेलारूस, श्रीलंका, फिलीपींस और ब्राजील जैसे विविध स्थानों में "क्रूर लोगों " के बारे में भी यही सच है, जो अति-राष्ट्रवादी बहुसंख्यकवादी नारे लगाते हैं और जो कहते रहते हैं कि बहुसंख्यक समुदाय ख़तरे में हैं।

जैसा कि ऊपर बताये गये उदाहरणों से पता चलता है कि भारतीय मीडिया में भी अधिकारियों ने इसी तरह के ख़तरे की बातों को आगे बढ़ाने की नीति बनायी है। अय्यूब के मामले में यह उत्पीड़न मनी लॉन्ड्रिंग मामले में प्रवर्तन निदेशालय (ED) की ओर से जारी लुकआउट सर्कुलर पर आधारित था। अय्यूब को दिल्ली हाई कोर्ट ने यात्रा करने के लिए हरी झंडी दे दी थी। अदालत ने उस सर्कुलर को रद्द कर दिया और कहा था कि ईडी अय्यूब के इस दावे का खंडन करने में विफल रहा कि जब भी उन्हें बुलाया गया, वह एजेंसी के सामने पेश हुईं। अदालत ने कहा कि यह सर्कुलर उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है और यह "आधारहीन" है।

पटेल के मामले में दिल्ली के अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट पवन कुमार ने सीबीआई के ख़िलाफ़ कड़ी टिप्पणी की। उन्होंने इस एजेंसी से उस सर्कुलर के लिए पटेल से माफ़ी मांगने को कहा, इसे उनके अधिकारों को प्रतिबंधित करने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास बताया। अदालत ने कहा कि बिना पर्याप्त दिमाग़ इस्तेमाल किये ही इसे जारी कर दिया गया।

जहां तक बुराड़ी और कप्पन मामलों की बात है,तो बुराड़ी मामले में गंभीर हमले के शिकार लोगों को क़ानून लागू करने वाले देश की सबसे कुख्यात एजेंसियों में से एक,यानी दिल्ली पुलिस की ओर से पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी गयी थी। और कप्पन मामले में अपने क़ानूनी कार्य को लेकर हाथरस जाने वाले इस पत्रकार को 18 महीने से ज़्यादा समय से जेल में बिताने के लिए मजबूर कर दिया गया, जबकि दूसरी तरफ़ हत्या के मामले में आरोपी एक व्यक्ति - केंद्रीय मंत्री का बेटा आशीष मिश्रा - लगभग चार महीने में ही ज़मानत पर बाहर चला आया। सुल्तान की अवैध हिरासत और "फिर से की गयी गिरफ़्तारी" उस संस्थागत गिरावट को दिखाती है, जिसे जनता दुर्भाग्य से स्वीकार करने लगी है।

यह हमें अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकन की ओर से 12 अप्रैल को '2 + 2' बैठक के बाद हुई उस मीडिया ब्रीफ़िग की याद दिला देता है,जिसमें रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और अमेरिकी रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन भी शामिल थे। ब्लिंकन ने अपनी उस टिप्पणी में यूक्रेन केंद्रित एजेंडा के अलावा भारत के मानवाधिकार रिकॉर्ड को लेकर भी चिंता जतायी है और नेहरू के "लोकतंत्र के लिए एक साथ खड़े होने और साझे मूल्यों की हिफ़ाज़त के लिए एक स्वर में बात करने के आह्वान” का ज़िक्र किया।

नई दिल्ली ने भारत में सरकार,पुलिस और जेल अधिकारियों की ओर से मानवाधिकारों के उल्लंघनों में बढ़ोत्तरी सहित उस पर निगरानी को लेकर उस अमेरिकी टिप्पणी को नज़रअंदाज़ कर दिया, जिसमें एक हल्के संदर्भ को देते हुए बताया गया है कि यह दुर्व्यवहार और ख़तरा व्यवस्थागत है और शीर्ष राजनीति से प्रेरित है। नई दिल्ली आमतौर पर अपने उन रिकॉर्ड के अहम संदर्भों पर लगाम लगाती है, जो देश के "आंतरिक मामलों" का सावधानी के साथ बचाव करती हो।

हालांकि, जब अमेरिका अपने संस्थागत नस्लवाद का हवाला देकर भी संदेश देता है, तो ऐसे में उसे खारिज कर पाना मुमकिन है। हक़ीक़त यही है कि ख़ासकर डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरिकी दक्षिणपंथी मतदान के अधिकारों को प्रतिबंधित करने वाले कई प्रांतीय कानूनों के ज़रिये गर्भपात विरोधी क़ानूनों और अल्पसंख्यक अधिकारों के रूप में महिलाओं के अधिकारों पर हमला करने में बेहद सक्रिय रहा है।

फिर भी, यहां भारत में हमें दो बातों पर ग़ौर करना चाहिए। एक तो अमेरिका में बड़े पैमाने पर संस्थागत कब्ज़ा कर पाना संभव नहीं है। इसका सबूत कई ऐसे न्यायाधीशों ने दे दिया है, जिन्होंने ट्रम्प के हमलों के ख़िलाफ़ अपने संवैधानिक रुख़ बरक़रार रखा है, जबकि इन न्यायाधीशों को ट्रम्प ने ही नियुक्त किया है। हालांकि, यहां ज़्यादा अहम बात अमेरिकी मीडिया के एक बड़े तबक़े का राजनीतिक प्रतिष्ठान का साथ दिये जाने से इनकार करना है। एक तरफ़ ऐसे मीडिया चैनल भी रहे हैं, जिन्होंने शर्मनाक रूप से अमेरिकी दक्षिणपंथियों के अनैतिक झूठ को बढ़ावा दिया, वहीं कई मीडिया संगठनों ने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ भी बुलंद की।

अगर मीडिया अपनी ज़मीन पर खड़ा रहे, तो भारत में लोकतंत्र का संकट कम विकट होगा, ख़ासकर जिस समय हूक़ूमत की तरफ़ से या उसके संरक्षण में पत्रकारों पर हमला किया जा रहा हो।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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