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कोविड-19 कुप्रबंधन ने बढ़ाई भारत-ब्राज़ील में खाद्य असुरक्षा

भारत में मई के दूसरे सप्ताह में कोरोना वायरस से रोजाना संक्रमित होने वाले लोगों की रिकार्ड तादाद 4 लाख से अधिक हो गई और 4 हजार से ज्यादा लोग रोज मरने लगे। इस आंकड़े ने पहले के तमाम रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए। भारत इस मामले में ब्राजील को पीछे छोड़ते हुए अमेरिका के बाद कोरोना से बर्बाद होने वाले देशों की सूची में दूसरे नंबर पर जा पहुंचा है। 
कोविड-19 कुप्रबंधन ने बढ़ाई भारत-ब्राज़ील में खाद्य असुरक्षा
चित्र केवल प्रतीकात्मक उपयोग के लिए

जैसा कि भारत के लोग कोविड-19 की दूसरी मारक लहर से अपने को जैसे-तैसे बचा लेने की  जद्दोजहद कर रहे हैं और अपनी अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का भी सामना करने में हलकान हो रहे हैं,जो देश के ग्रामीण क्षेत्रों में और शहर के स्लम इलाकों में रहने वाली बहुसंख्यक आबादी के लिए हर कदम पर एकदम फेल साबित हुई है। इन लोगों के लिए जानलेवा वायरस से अपने को बचाने से कहीं ज्यादा बड़ी लड़ाई हो गई है-खुद के लिए और अपने परिवार के लिए दो जून के निवाले का बंदोबस्त करना। भोजन उनके लिए मुहाल हो गया है। 

एशिया का सबसे बड़ा स्लम एरिया मुंबई का धारावी विश्व की सबसे सघन आबादी वाला क्षेत्र है।  यहां रह रहे 10 लाख से अधिक लोगों के लिए दो समय का भोजन जुटाना सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रही है। एक अलाभकारी संस्था धारावी डायरी (ज्ञानोदय फाउंडेशन) के संस्थापक नवनीत रंजन कहते हैं,“भूख यहां सबसे बड़ी समस्या है। मैं यहां विगत छह-सात सालों से काम करता रहा हूं। मैंने ऐसा संकट इसके पहले कभी नहीं देखा है।” वह भारतीय समाजों के हाशिए पर पड़े वर्गों द्वारा अनुभव की जा रही  बेचारगी का जिक्र करते हैं, जो भोजन  की बढ़ती असुरक्षा का सामना कर रहे हैं,  खासकर कोरोना वायरस की इस दूसरी जानलेवा लहर में। नवनीत कहते हैं,“खुराक बीमारी से ज्यादा बड़ी प्राथमिकता हो गई है।” उन्होंने हाल में ही, धारावी के लोगों को, खास कर सबसे ज्यादा असुरक्षित वर्गों जैसे अकेली माताओं, बुजुर्गों और उभयलिंगी आबादी को खाना खिलाने के लिए लोगों से चंदा मांगने का काम शुरू किया है। 

भारत में, मई के दूसरे सप्ताह में, कोरोना वायरस से रोजाना संक्रमित होने वाले की रिकार्ड तादाद 4 लाख से भी अधिक हो गई और 4 हजार से ज्यादा लोग मरने लगे। इस आंकड़े ने पहले की सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए। भारत इस मामले में ब्राजील को पीछे छोड़ते हुए अमेरिका के बाद कोरोना से बर्बाद होने वाले देशों की सूची में दूसरे नंबर पर जा पहुंचा। 

 वैश्विक भूख सूचकांक में भारत में भोजन के संकट को “गंभीर” माना गया है। भारत अपने नागरिकों के लिए दो वक्त के  खाने का बंदोबस्त करने के मामले में विश्व के 107 देशों के बीच 94वें स्थान पर था। ‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका में अक्टूबर के अंक में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है,“स्थिति बेहद भयानक है और देश चारों तरफ पसरी भूख से लड़ रहा है।” 

इस बारे में, अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनेबल एंप्लॉयमेंट ने एक अध्ययन किया है, जिसे 5 मई को जारी किया गया।  इसमें अनुमान लगाया गया है कि, “कोविड-19 वैश्विक महामारी की पहली लहर में ही 230 मिलियन यानी 23 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से नीचे खिसक गए हैं।” यह जानकारी बिजनेस टुडे में प्रकाशित एक लेख में दी गई है। 

धरातलीय वास्तविकता- भारत गरीबों और असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए अति दुष्कर

जैसा कि भारत में स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली की बात है, जो लोग भूख से जूझ रहे हैं, वे अपने भोजन के लिए अलाभकारी संगठनों अथवा नागरिकों के प्रयासों पर ही अधिकाधिक निर्भर हैं। ये ही इस मुश्किल वक्त में उन लोगों के भोजन का प्रबंध करने, चिकित्सा सुविधाएं दिलाने और अन्य तरह की मदद के लिए आगे आए हैं। हालांकि ऐसी बड़ी आबादी वैश्विक महामारी के प्रकोप के पहले से ही  रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करती रही है। 

रंजन बताते हैं, “लोगों के काम-धंधे फिर से छूट गए हैं। स्लम में रहने वाले लोग महामारी की पहली लहर के दौरान अपने गांव चले गए थे। लेकिन वहां रोजगार के मौके न होने के कारण, वे फिर से शहरों में लौट आए। इस उम्मीद में कि चीजें यहां एक बार फिर पहले की तरह बेहतर हो जाएंगी।” वह कहते हैं कि दिसंबर 2020 से कोविड-19 की पहली लहर से संक्रमित होने के मामले में कमी आने लगी थी- “तब वे लोग लौट आए थे, इसके कुछ महीने बाद कोरोना वायरस की दूसरी घातक लहर आ गई, और इस समय तो यह बहुत ही भयानक है, क्योंकि उनके पास जो भी था, वह कोरोना की पहली लहर के दौरान ही बेच चुके थे।” पहली लहर के दौरान,  असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले जैसे घरेलू कामगार,  ड्राइवर, रसोइए या फैक्ट्री में काम करने वाले श्रमिकों जैसे हजारों लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की जल्दबाजी में किये गये कड़े लॉकडाउन में एकदम से फंस गए। इस स्थिति के लिए वे अनजान थे और पूरी तरह तैयार भी नहीं थे। इसी ने शहरों से गांवों की ओर बड़ी संख्या में “पलायन” को बढ़ावा दिया। ऐसे में लोगों के पास हजारों किलोमीटर दूर अपने गांव पैदल ही लौट जाने के सिवा कोई चारा नहीं रह गया था।

“यहां कोरोना की जांच की कोई सुविधा नहीं है। संक्रमण बहुत तेजी से फैल रहा है लेकिन लोगों को इसकी कोई परवाह नहीं है कि वे भी इस जानलेवा वायरस से संक्रमित हो सकते हैं। वे लोग सरकारी अस्पतालों में नहीं जाना चाहते, इसलिए वे जांच से बचना चाहते हैं। दूसरी लहर के समय के जैसे वे अपने गांव भी नहीं लौट सकते क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में भी वायरस तेजी से फैला हुआ है,” रंजन कहते हैं। 

रंजन के मुताबिक जांच से बचने के अलावा, उनका टीके को ले कर भी विरोध है और इस जानकारी की भी कमी है कि टीके के लिए रजिस्ट्रेशन कैसे कराया जाता है। वह कहते हैं, “(कुछ लोग) टीका नहीं लेना चाहते और यह भी नहीं जानते कि टीके कैसे लिये जाते हैं क्योंकि उनके पास इसका अपॉइंटमेंट लेने के लिए इंटरनेट की सुविधा नहीं है।”

स्थिति ग्रामीण इलाकों में बहुत ही बदतर है, जहां  आसपास स्वास्थ्य देखभाल की सुविधाएं नहीं है। 

जबकि केंद्र सरकार  की कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन नहीं लगाने की आलोचना की जा रही है,  कुछ राज्य सरकारों ने अपने यहां लॉकडाउन लगाया है-जो सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा में सहायक हो सकता है। लेकिन राज्यों में लगे इन लॉकडाउन ने  असंगठित क्षेत्रों के कामगारों के लिए मुसीबतें बढ़ा दी हैं।  महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में लोगों के काम छूट गए हैं और उन्हें  सुबह के 11:00 बजे के पहले तक सम्पन्न हो जाने वाला और कोई अस्थायी काम ही मिल  सकता है, क्योंकि लॉकडाउन 11:00 बजे सुबह से लेकर 7:00 बजे शाम तक है। 

“कोल्हापुर में,  लोग अपने रोजगार के लिए विनिर्माण उद्योगों पर निर्भर हैं, जिनमें टेक्सटाइल और ऑटोमोबाइल उद्योग शामिल हैं।  लॉकडाउन लगने के साथ इन फैक्ट्रियों ने अपना काम-धंधा रोक दिया है। इसके चलते यहां काम करने वाले लोगों के पास अपनी आजीविका के लिए  और अपने भरण-पोषण के लिए कोई साधन नहीं  रह गया है।”  संकेत जैन कहते हैं, जो एक पत्रकार हैं और ग्रामीण मामलों पर लिखते हैं। वह ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक से अधिक बच्चों को शिक्षा तक पहुंच बनाने के लिए काम करते रहे हैं। 

जैन  कोविड-19 की जांच से लोगों की हिचक के बारे में स्पष्ट करते हैं, “ऑक्सीजन  के लिए मारामारी को देखते हुए वे सचमुच काफी डर गये हैं और अपने में आए इसके लक्षणों को नहीं मान रहे हैं। उनके पास इतना पैसा नहीं है कि वे अपने और अपनों के लिए खाने का जुगाड़ कर सकें। ऐसे में वे ऑक्सीजन सिलेंडर कहां से जुटा पाएंगे?”

“वह मुख्य रूप से कुछ सरकारी लाभों तथा अलाभकारी संगठनों द्वारा की जा रही भोजन की आपूर्ति पर आश्रित हैं। उनमें से बहुत लोग चावल खा कर जिंदा है और उनके लिए उपलब्ध आहार में यही एक भोजन है, जो सुलभ है।” जैन बताते हैं कि बहुत से परिवार तो एक शाम खाकर ही जिंदा है। 

ग्रामीण इलाकों और शहरी स्लम एरिया के लोगों के लिए सामाजिक दूरी बनाए रखना एक तरह की विलासिता है,जिसे वे वहन नहीं कर सकते। कोरोना से बचाव में मॉस्क लगाने तथा सेहत की सुरक्षा के अऩ्य इंतजामों के बारे में सरकार की तरफ से लोगों तक स्पष्ट सूचना नहीं है। इसकी कमी भी वायरस को तेजी से फैलाने की जिम्मेदार है।

ब्राजील में कुप्रबंधन और बढ़ती भूख

इस महामारी में खाद्य-सुरक्षा की स्थिति दुनिया भर में बदतर हो गई है। इसलिए कि 15.5 करोड़ से अधिक लोग 2020 में भोजन के गंभीर संकट से जूझ रहे थे। यह तादाद 2019 के मुकाबले 2 करोड़ से भी ज्यादा है। 

बेसहारों और “गरीब समुदायों” की खस्ता हालत के बारे में ऑक्सफैम इंटरनेशनल  का कहना है कि इसका संदेश बिल्कुल साफ है: “भूख हमें कोरोना वायरस से भी पहले मार सकती है।” संगठन के अनुसार,“भूख का नया हॉटस्पॉट बन रहा है। मध्य-आय वाले देशों जैसे कि भारत, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील में भूख का स्तर बहुत तेजी से बढ़ रहा  है।”

 ब्राजील में कोविड-19 से उत्पन्न स्थिति से निबटने में धरातल पर खराब प्रबंधन और  वैश्विक महामारी के दौरान  भारत की तरह ही, वैज्ञानिक आंकड़ों पर आधारित निर्णय लेने  में कोताही ने न केवल व्यापक पैमाने पर लोगों की जानें ली है बल्कि खाद्य असुरक्षा एक अन्य कारक के रूप में उभर कर सामने आया है, जिससे लोगों को अपना वजूद बचाए रखने के लिए लड़ना पड़ रहा है। 

ब्राजील और भारत में सरकारों से न्यूनतम समर्थन मिलने के कारण भूख ने उन लोगों  को दबोच लिया है, जो  महामारी के फैलने के पहले से ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं।  इस स्थिति ने बेरोजगारी को बढ़ाया है,खास कर उन लोगों में जो असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं, उनमें भूख ही मुख्य कारक है क्योंकि दोनों ही देशों में वायरस बेलगाम है। 

ब्राजील के पूर्व राष्ट्रपति डिल्मा रूसैफ ने कोविड-19 से उत्पन्न संकट से निपटने के मौजूदा राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो के तरीके को “प्रतिघाती” और “नरसंहारी” बताया है। गार्डियन अखबार को दिए एक इंटरव्यू में डिल्मा ने कहा कि इस कुप्रबंधन ने “देश को भूख और रोग के सागर में गोता लगाने के लिए छोड़ दिया है।” 

“सावरेंटी एंड फूड एंड न्यूट्रीशनल सिक्योरिटी पर काम करने वाले ब्राजील रिसर्च नेटवर्क ने इसका खुलासा किया है कि 11.6 करोड़ लोग खाद्य का सामना कर रहे हैं।  इनमें से 4.3 करोड़ यानी (20.5 फीसदी आबादी) के पास  पर्याप्त भोजन नहीं है और 1.9 करोड़ (9 फ़ीसदी आबादी) लोग भूखे हैं,” जैसा कि द वायर वेबसाइट पर प्रकाशित एक लेख में कहा गया है। 

“वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के ब्राज़ील कार्यालय के निदेशक डेनियल बालाबान ने चेतावनी दी कि ब्राजील वैश्विक भूख मानचित्र पर तेजी से लौट रहा है, जिस जगह को उसने 2014 में ही छोड़ दिया था। इस देशों की सूची में कोई देश तभी शामिल होता है, जब उसकी 5 फ़ीसदी से अधिक आबादी अति गरीबी में जी रही होती है।” डेनियल ने 2020 में एएफपी के साथ बातचीत में यह चेतावनी दी थी। 

ब्राजील में भूख की कहानियां भारत की कहानियों से काफी मिलती-जुलती हैं, जहां लोग अपनी उदासीन और निष्क्रिय सरकार के शासनकाल में जिंदगी की जद्दोजहद कर रहे हैं। रायटर्स के एक लेख में कहा गया, “ब्राजील भूख से लड़ने में कामयाब हो गया था, जब इस शताब्दी के पहले दशक में उसने अपनी आबादी के छठे हिस्से को गरीबी से निकाल लिया था। अब रियो में उनमें से बहुतों के लिए भूख की तरफ वापसी विध्वंसकारी है।” 

DW के लिए तैयार की गई गुस्तवो बासो की एक वीडियो रिपोर्ट में सेलिया गोमेस अपने चार बच्चों के पेट भरने के लिए रोजमर्रा की अपनी मुश्किलों के बारे में बताती हैं, “मैं रोज सुबह एक दर्द  के एहसास के साथ जगती हूं। बिस्तर से उतर कर मैं सबसे पहले ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि मैं अभी जिंदा हूं। फिर मैं अपने बच्चों की तरफ देखती हूं और मन ही मन सोचती हूं,‘आज मैं इन लोगों को खिलाने के लिए कहीं से भी थोड़ा भोजन लाऊंगी।’ मैं उनके लिए खाने की तलाश में सुबह ही घर से निकल जाती हूं। ऐसे भी कई दिन गुजरे हैं, जब मैं उनके लिए बाहर से कुछ नहीं ला सकी हूं।” ब्राजील में भी लोग, भारत की तरह ही, इस भूख से बचने में मदद के लिए अलाभकारी संगठनों की ओर ताकते हैं। 

सरकार की प्रतिक्रिया

भारत में मोदी सरकार इस संकट में निपटने में हर लिहाज से विफल रही है।  कोरोना संक्रमण के मामले में तेजी होने के  पूर्व संकेत के बावजूद सरकार ने संक्रमण प्रसारक घटनाओं जैसे कुंभ मेले के और अनेक राज्यों में राजनीतिक रैलियां के आयोजनों की हरी झंडी दे दी।  जब कोरोना संक्रमितों की बेतहाशा बढ़ती संख्याओं ने देश की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के ऊपर प्रचंड दबाव बनाया और भारत में आइसीयू बेड,  ऑक्सीजन आपूर्ति और वायरस की जांच की पर्याप्त व्यवस्था नहीं हो सकी।  कोरोना से निपटने में लग रहे अपयश से अपना पल्ला झाड़ते हुए मोदी सरकार ने  बजाय लोगों के जीवन बचाने  का प्रयास जोर-शोर से करने के, संसद  के जीर्णोद्धार और प्रधानमंत्री निवास के निर्माण को अपनी प्राथमिकता दी। कोरोना की जारी दूसरी घातक लहर  का अंत न  होते देख विशेषज्ञों को भारत के लिए तत्काल कोई राहत नहीं दिखती।  तीसरी लहर आने की पहले  से ही घोषणा की जा रही है, जबकि देश कोरोना की दूसरी लहर के भयावह दुष्परिणामों से ही निबटने में लथपथ हो रहा है। 

इस बीच ब्राजील में, राष्ट्रपति बोल्सोनारो  के विरुद्ध संकट से निपटने में विफल रहने पर महाभियोग चलाये जाने की संभावना है। उन्होंने कोविड-19 वायरस को एक “छोटा फ्लू” करार दिया और लोगों की मौतों के बढ़ते आंकड़ों को देखते हुए स्थिति पर नियंत्रण करने के लिए तेजी से पर्याप्त कदम उठाने में कोताही करते रहे। 

 भारत और ब्राज़ील दोनों ही देशों में, नेतृत्व अपने समक्ष उत्पन्न स्थिति की विकटता को खारिज करता रहा है। हाशिए पर पड़े लोग पहले से ही दोहरी जंग लड़ रहे हैं : एक वायरस के खिलाफ और दूसरी भूख के विरुद्ध।

ऑल ग्लोबेट्रॉटर आर्टिकल्स 

(यह आलेख ग्लोबट्रॉर्टर द्वारा प्रकाशित किया गया है। रूही भसीन इंडिपेंडेट मीडिया इंस्टिट्यूट में सहायक संपादक हैं। इसके पहले उन्होंने दि टाइम्स ऑफ इंडिया और दि इंडियन एक्सप्रेस में वरिष्ठ पत्रकार के रूप में काम किया है। इस दौरान वे राजनीति, कानूनी मसलों, और सामाजिक मुद्दों पर लिखती रही हैं। उनसे टि्वटर @BhasinRuhi पर संपर्क किया जा सकता है। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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