मोदी सरकार हुई कमज़ोर, किसान करेंगे आंदोलन तेज़
किसानों के प्रतिनिधियों और केंद्र सरकार के मंत्रियों के बीच आठवें दौर की ’बातचीत’ के विफल होने की उम्मीद थी। 'बातचीत' हमेशा दिखावे के लिए अधिक हुई जबकि उनमें कभी कोई दम नहीं था। 8 जनवरी की बैठक से ठीक दो दिन पहले, कृषि मंत्री ने कुछ किसानों से मुलाकात की थी जिन्होंने तीनों कृषि कानूनों का समर्थन किया और घोषणा की थी कि सरकार दोनों पक्षों के किसानों से मिल रही है और कहा कि वह काफी आश्वस्त है कि आंदोलनकारी किसानों को इन कानूनों के लाभों का एहसास हो जाएगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर सरकार के नीचे तक और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी तक, हर कोई इन कानूनों के लाभ गिनाने का अभियान चला रहा है। इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि तथाकथित वार्ता में कोई नतीजा नहीं निकला है।
अब क्या होगा?
किसान संगठन जो राजधानी में प्रवेश करने वाले पांच राजमार्गों की नाकाबंदी किए बैठे हैं, वे शुरू से ही इस बात के लिए तैयार थे: उन्होंने पहले ही घोषणा कर दी थी कि वे छह महीने के भोजन-राशन और अन्य तैयारी के साथ आए हैं। 4 जनवरी को सातवें दौर की बातचीत से पहले, किसानों के नेतृत्व ने 26 जनवरी यानि गणतंत्र दिवस तक के कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। ये कार्यक्रम इस प्रकार से है:
सरकार मानने को तैयार नहीं
यह छह वर्ष पुरानी मोदी सरकार के लिए यह अज्ञात क्षेत्र है। इसने कभी भी इतने बड़े पैमाने के विरोध का सामना नहीं किया, जो पूरे देश में फैल गया है, जो आंदोलन पर किसी भी किस्म के हमले का सामना करने के लिए प्रतिबद्ध है। पिछली बार सरकार का आमना-सामना किसानों से 2015 में हुआ था, यह तब की बात है जब 2013 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून पर कानून पारित किया था और बाद में उसमें बदलाव लाने के लिए मोदी सरकार अध्यादेश लाई थी। किसानों ने मोदी सरकार का सामना जमकर किया जिससे अशांति फैल गई और मंदसौर (मध्य प्रदेश) में पुलिस की गोलीबारी से मामला बिगड गया था जिसमें छह किसानों की मौत हो गई थी, और नतीजतन सरकार को अपने कदम वापस खींचने पड़े थे।
लेकिन यह तब की बात है। ऐसा लगता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में जीत और उसके बाद अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने जैसे कि जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करना, एक नया नागरिकता कानून लाकर वह समझने लगी थी कि वह अजेय है।
पिछले साल की शुरुआत में महामारी के हमले के बाद, मोदी सरकार ने लॉकडाउन का इस्तेमाल कर कुछ ऐसे कानून और नीतियों की एक श्रृंखला को लागू कर दिया जो वह सोचती है कि वे भारत के लिए जरूरी हैं। इनमें अन्य क़ानूनों के अलावा तीन कृषि-कानून और मौजूदा बिजली कानून में संशोधन का विधेयक शामिल था। उन्होने सोचा कि विपक्ष कुछ विरोध करेगा लेकिन जल्द ही वह शांत हो जाएगा।
अहंकार ऐसा कि लंबे समय तक सहयोगी रहे शिरोमणि अकाली दल के सरकार छोड़ने के बाद और पंजाब में किसानों द्वारा रेल यातायात अवरुद्ध करने के बाद भी, मोदी सरकार हिली नही। वह इनकार में रही, जो कि किसी भी देश में शासन करने वाले दल के लिए बहुत खतरनाक स्थिति होती है।
कोई भी समझदार और लोगों के अनुकूल काम करने वाला सत्तारूढ़ दल के विपरीत, मोदी सरकार किसानों के आंदोलन में तोड़फोड़ या उसे पलटने की कोशिश कर रही है।
किसानों के आंदोलन को कमज़ोर करने की रणनीति
केंद्र सरकार ने आंदोलन को यह कहकर बदनाम करने की कोशिश की, कि इसे विपक्षी दलों के इशारे पर चलाया जा रहा है जिन्हे किसानों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। सरकार किसानों के साथ बहुत अधिक सफलता नहीं पा सकी क्योंकि सच्चाई यह है कि इस आंदोलन का नेतृत्व वास्तव में किसान संगठनों और यूनियनों द्वारा किया जा रहा है। किसानों को राजनीतिक दलों का समर्थन मिल रहा है, लेकिन इसे शायद ही विपक्ष के बहकावे वाला आंदोलन कहा जा सकता है।
भाजपा और उसके संघ परिवार के कुछ सहयोगियों ने यह भी आरोप लगाने की कोशिश की कि आंदोलन में खालिस्तानी और ‘टुकड़े-टुकड़े गिरोह’ शामिल है जोकि भाजपा के दिग्गजों का इस्तेमाल किया जाने वाला पसंदीदा शब्द है, खासकर उनके खिलाफ जो उनकी नीतियों के खिलाफ असंतोष जताते हैं। इन ढुलमुल आरोपों के खिलाफ ऐसा विरोध हुआ कि सरकार को पीछे हटना पड़ा।
फिर, मोदी सरकार ने इसे समझाने का प्रयास किया, और दावा किया कि उसके नेता देश के 700 जिलों में सभा करेंगे जहाँ नए कानूनों के लाभ पर किसानों को ‘शिक्षित’ किया जाएगा। पीएम ने यहां-वहां के कुछ किसानों के समूहों के साथ आभासी बैठकें कीं और दावा किया कि लाखों लोग आदान-प्रदान में शामिल हुए थे।
कोई कसर न रह जाए इसलिए प्रधानमंत्री मोदी संसद के ठीक बगल में एक प्रमुख गुरुद्वारा में त्वरित यात्रा करने चले गए, यह सोचकर कि सिख धर्म के एक शुभचिंतक के रूप में उनकी साख शायद पंजाब के किसानों में बड़े पैमाने पर स्वीकृत हो जाएगी। सरकार ने सिख आस्था के प्रति प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता को दर्शाते हुए एक पुस्तिका भी निकाली, जिसमें उनके शानदार चित्र और उद्धरण दिए गए थे।
उसके बाद भाजपा ने विभिन्न किसानों के समूहों को संगठित किया और घोषित किया कि ये सब कानूनों का समर्थन कर रहे हैं, जबकि इसके विपरीत गुमराह और अज्ञानी ’किसान’ इसका विरोध कर रहे हैं। सरकार ने यह ढोंग करना शुरू कर दिया कि देश के कई हिस्सों में नए कानूनों के लिए व्यापक समर्थन मिल रहा है, जोकि केवल कुछ हिस्सों में विपक्ष को मिल रहे समर्थन से अलग था- यह किसान एकता में कील गाड़ने का स्पष्ट प्रयास था।
अंतिम दौर की बातचीत में, सरकार ने अपने लंबे समय से स्टैंड को भी पलट दिया जिसके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट को नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और किसानों को सुझाव दिया कि यदि वे चाहे तो कानूनों को खत्म करने के लिए शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं।
जागने का समय
संक्षेप में, प्रधानमंत्री, उनके मंत्री, और पूरी की पूरी भाजपा, अपने बड़े से संघ परिवार के साथ मिलकर किसी भी तरह से किसानों के आंदोलन को रोकने की कोशिश कर रही हैं। सरकार का स्पष्ट रूप से मामूली पहलुओं को छोड़कर किसी भी कानून पर पीछे हटने का कोई इरादा नहीं है।
इस पृष्ठभूमि में, एक बात बहुत स्पष्ट है कि कृषि उत्पादन, व्यापार और मूल्य निर्धारण के मामले में सरकार कॉर्पोरेट निष्ठा के प्रति वफादार है। यह मुक्त बाजार के दृष्टिकोण का एक हिस्सा है जिसे अपनाया जा रहा है, जो चार श्रम कोडों को लागू करने से प्रतिबिंबित होता है, जो सुरक्षात्मक श्रम कानूनों को जड़ से हटा देते है, जिसका मतलाब है कि जब जरूरत पड़ी नौकरी पर रखा और जरूरत खत्म होने पर नौकरी से निकाल दिया। लोगों के कल्याण की सरकार की कोई प्रतिबद्धता नहीं है – क्योंकि शायद इसे लगता है, कि कॉर्पोरेट कल्याण और उसकी समृद्धि ही है जिसे सुनिश्चित करने के लिए उसे जनादेश मिला है और लोगों की भलाई तो गाहे-बहाहे होती रहेगी।
या, शायद, सरकार सोचती है कि लोगों को छद्म राष्ट्रवाद और धार्मिक कट्टरता से जीता जा सकता है, और उन्हे अधीन नौकर की तरह रखा जा सकता है, जबकि कुलीन वर्गों को खुली छूट दी जानी चाहिए।
जो भी मामला हो, मोदी सरकार जल्द ही एक बुरे खवाब से जागने जा रही है। यदि वह अभी नहीं सँभलती है और किसानों के मुद्दों को हल करने के लिए गंभीरता से काम नहीं करती है, तो आगामी गणतंत्र दिवस पर इन हालात के भी हाथ से निकलने की संभावना है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।