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लीजनेयर ऑफ़ मेरिट से सम्मानित मोदी व्हाइट हाउस में अपने दोस्त को खोने जा रहे हैं !

किसी ऐसे इंसान से मान्यता हासिल करने का क्या अर्थ रह जाता है जो चुनावों में बुरी तरह से पराजित हो जाने के बावजूद उसे स्वीकारने से इंकार कर रहा हो।
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वहाँ पर घंटे हैं और वहाँ फिर से घंटा-घड़ियाल बज रहे हैं। इनमें से एक को संयुक्त राज्य अमेरिका के निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अनिच्छा के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक ऐसे समय में अर्पित किया है, जब उन्हें अपने वर्तमान 1600 पेनसिलवेनिया अवेन्यू वाले निवास से कुछ ही हफ़्तों के भीतर निकल बाहर होने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इसकी वजह से कुछ हँसी-ठट्ठा तो हुआ है, लेकिन यह कोई वास्तविक आश्चर्य की बात नहीं है। ट्रम्प ने मोदी को 21 दिसंबर के दिन लीजन ऑफ़ मेरिट, डिग्री चीफ कमांडर से सम्मानित किया है। 

ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मोरिसन एवं पूर्व जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे भी ट्रम्प के इस अंतिम-साँस वाले परोपकार के लाभार्थी हैं। रिपोर्टों में कहा गया है कि यह सैन्य सम्मान की सूची में शामिल किये गये तीन सर्वोच्च वर्ग में से एक है।

भू-राजनीतिक समझ की जानकारी रखने वाले इस पुरस्कार में एक पैटर्न को देखते हैं। यह देखते हुए कि जिन तीन भाग्यशाली पुरस्कार हासिल करने वालों ने इसका नेतृत्व किया है, या जिनका नेतृत्व किया गया है, वे तीनों देश संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ मिलकर अनौपचारिक तौर पर पहचान रखने वाले “क्वैड” सुरक्षा समूह में शामिल हैं, जिसे कुछ अधिक भव्यता के साथ “एशियन नाटो” के नाम से जाना जाता है। चाहे भले ही वो कुछ भी हो, लेकिन कई विश्व नेता शायद ही किसी ऐसे व्यक्ति से किसी भी प्रकार की मान्यता लेने के प्रति उत्साहित महसूस करें, जिसने न सिर्फ यह स्वीकारने से पूरी तरह से इंकार कर दिया है कि 3 नवंबर को हुए राष्ट्रपतीय चुनावों में उसे बुरी तरह से परास्त किया जा चुका है, बल्कि चुनाव परिणामों के सत्यापित हो जाने के सात हफ्ते बाद भी वह चुनावों में “घपलेबाजी” के झूठ को फैलाने में व्यस्त हो।

कहने की आवश्यकता नहीं कि मोदी एक दयालु हृदय द्वारा प्रदर्शित इस भाव को लेकर बेहद प्रसन्नचित्त दिखे। अपनी ख़ुशी का इजहार करते हुए उन्होंने कहा है कि वे इससे “बेहद सम्मानित” महसूस कर रहे हैं और उन्होंने आमतौर अपनी “भारत-अमेरिकी रणनीतिक साझेदारी के बारे में दोनों देशों के द्विदलीय सहमति” के संबंध में बेसिरपैर की डींगें हाँकनी शुरू कर दी।

यदि ट्रम्प द्वारा अपनी हार को स्वीकार न कर पाने वाली ही एकमात्र समस्या होती तो दुनिया इसे डोनाल्ड जे. ट्रम्प की अपेक्षित उग्रता मानकर पहले ही ख़ारिज कर चुकी होती। हालाँकि निवर्तमान राष्ट्रपति ने खुद को मात्र एक फुफकार मारने वाले दौरे तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने तो इसे उसूली सिद्धांत के तौर पर धरती को झुलसाने वाले नियम के तौर पर अपनाने का निर्णय ले लिया है। इसके कारण राष्ट्रपति पद पर चुने गए जो बिडेन के सामने मुसीबतों का बड़ा पहाड़ खड़ा होने जा रहा है, जिसका उन्हें वैसे भी हर हाल में सामना करना ही होगा।

बिडेन के संक्रमणकालीन टीम के लिए संक्रमण में बाधा पहुँचाने के लिए, उनके द्वारा सूचना हासिल करने पर अड़ंगे डालने या उनकी पहुँच से इंकार करने की शुरुआत के साथ, ट्रम्प ने सिक्के के हेड आने पर मैं जीता, और टेल पर तुम हारे की तर्ज पर उछालने का क्रम जारी रखा हुआ है। जहाँ तक भारतीयों का सवाल है, जबसे मोदी ने 2014 में प्रधानमंत्री के तौर पर पदभार ग्रहण किया है, तभी से यह सब उनके लिए अजनबी नहीं रह गया है। वहीँ दूसरी तरफ ट्रम्प ने मृत्यु दण्ड के मामलों पर जिस रफ़्तार से हस्ताक्षर किये हैं, वैसा पिछले सौ सालों में देखने को नहीं मिला है। जरा इन आँकड़ों पर विचार करें: 17 वर्षों के अंतराल के बाद ट्रम्प ने संघीय मृत्युदण्ड को फिर से शुरू कर दिया है। यदि तीन अधिकृत लेकिन विचारणीय मामले विचाराधीन थे तो उन्होंने 13 मृत्युदण्डों के लिए अपनी हरी झण्डी दी है - जो कि 130 वर्षों में सर्वाधिक हैं। 2019 में सात राज्यों ने 22 मृत्युदण्डों को लागू किया था, जबकि पाँच ने इस वर्ष सात मृत्युदंड को लागू किया है। वहीँ संघीय सरकार ने दस को अंजाम दिया है।

वहीं दूसरी तरफ ट्रम्प ने दोषी अपराधियों को- जिनमें से लगभग सारे ही उनके अंदरूनी सर्किल के सदस्य हैं, को राष्ट्रपतीय क्षमादान दिलाने का परोपकार किया है। उनके द्वारा पदभार ग्रहण के बाद से जिन 92 लोगों को क्षमादान दिया गया है उनमें से अधिकतर राष्ट्रपति के लिए की गई कारगुजारियों को छिपाने के अपराध में दोषी ठहराए गए थे। चुनावों में मिली हार के बाद से ट्रम्प ने 42 लोगों को क्षमादान दिया है, जिसमें से 41 को तो यह 22-23 दिसंबर को हासिल हुआ है।

इन लोगों में उनके पूर्व अभियान प्रबन्धक पॉल मनफोर्ट, उनके प्रथम राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार माइकल फ्लिन, करीबी सहयोगी जार्ज पापाडोपौलोस और दामाद जेरेड कुशनर के पिता चार्ल्स कुश्नेर शामिल हैं। इसके साथ ही इराक में तैनात सुरक्षा ठेकेदार ब्लैकवाटर के चार कर्मचारियों को भी क्षमादान दिया गया है। उन्होंने 16 सितम्बर 2007 को कई बच्चों सहित 17 निहत्थे इराकी नागरिकों की जघन्य हत्या को अंजाम दिया था।

मोदी और ट्रम्प के बीच एक खास, समान अनुभूति रखने वाले बंधन को साझा करने की कई वजहें हैं। क्रमशः विश्व के सबसे बड़े और प्राचीनतम लोकतन्त्रों के प्रथम नागरिक होने के नाते वे पात्रता की समान भावना को साझा करते हैं। इस सोच के मूल में उनके पास यह अटूट विश्वास जमा हुआ है कि उनके दल, क्रोनी मित्र और वैचारिक आत्मीयजन कानून से उपर हैं। जहाँ तक ट्रम्प का मामला है, इसमें उनके परिवार की भी अतिरिक्त भूमिका है जो व्हाइट हाउस में उड़ान भरने की अक्षमता और खुबसूरत मूल्य जोड़ने में घुसपैठ करने का काम करती है। हमारे लिए यह सौभाग्य की बात है कि यहाँ पर देहात में फंसे होने के कारण हमारे प्रधानमंत्री शायद अपने परिवार को स्वीकार नहीं कर पाए हैं।

ट्रम्प के उदार क्षमादानों के समानांतर मोदी ने अपने वैचारिक आत्मीयजनों और पार्टी के प्रति वफादारों को गुपचुप सहायता पहुँचाने का काम किया है। भीमा-कोरेगाँव मामले में इस प्रकार “अर्बन नक्सलियों” को दोष अपने सर लेना पड़ा है, क्योंकि प्रधानमंत्री के हिंदुत्व के तूफानी सैनिकों के लिए छू भर देने की व्याकुलता का ख्याल रखना पड़ा था। इसमें इन ताकतों द्वारा दलितों के एक जुटान पर 2018 में दंगों का नेतृत्व किया गया था, जिसकी अगुआई अन्य लोगों के साथ उनके बेहद सम्मानीय “गुरूजी” संभाजी भिडे द्वारा की गई थी।  

इसी प्रकार का उदाहरण दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान एक केन्द्रीय मंत्री, एक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसद और एक पार्टी उम्मीदवार के प्रति एक प्रधान मंत्रीय अनुमति के तौर पर देखने को मिली थी। अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों द्वारा यदा-कदा हत्या के लिए उकसाने वाली बात में आखिर ऐसी कौन सी बड़ी बात है? इस पाठ्यक्रम का समानांतर हिंदुत्व के दंगाइयों को दिल्ली पुलिस द्वारा अभयदान प्रदान करने में था, जो उत्तर-पूर्वी दिल्ली में मुस्लिमों की हत्या, लूटपाट और उनकी संपत्तियों और पूजा स्थलों को ख़ाक में मिलाने में देखने को मिला था, जो मोदी पर आश्रित केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह को रिपोर्ट करते हैं। बहुसंख्यक समुदाय के कट्टरपंथियों को भी आख़िरकार विशेषाधिकार हासिल हैं। आसानी से उत्तेजित होने वाली भावनाओं के बारे में तो कहना ही क्या है। 

जब दिल्ली दंगे भड़के हुए थे तो डोनाल्ड जे. भारत में थे, और रिपोर्टों के अनुसार उनके देश छोड़कर जाने के बाद भी इसे जारी रखे जाने के प्रयास चल रहे थे। ऐसा महसूस नहीं हुआ कि किसी को भी इससे कोई परेशानी हुई हो। अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए उनके लड़ाकू समर्थकों का पोर्टलैंड, ऑरेगोन में आमतौर पर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों पर हमले के चलते यह कोई अजनबी घटना नहीं है। निश्चित तौर पर उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ा होगा।

कुछ अन्य लक्षण जो इन दो बड़े व्यक्तित्वों को एक भालू वाले आलिंगन में बाँधती हैं, उनमें अहंकारी उन्माद शामिल है, जो कि मनोचिकित्सा पर आधारित हैं और उत्तर-आधुनिक सिद्धांत के प्रति प्रेम है। उनमें से उत्तरार्ध के लिए “वैकल्पिक तथ्यों” एवं पोस्ट-ट्रुथ नैरेटिव्ज के प्रति चिरकालिक आग्रह दिखता है। रूखे शब्दों में कहें तो ये दोनों ही झूठ बोले बिना नहीं रह सकते हैं। इस बारे में ट्रम्प को लेकर फैक्ट-चेक हो चुका है। लगभग चार वर्षों से जब से वे पद पर हैं, उन्हें 20,000 से अधिक बार झूठ बोलते या एक दिन में करीब 20 दफा झूठ बोलते देखा गया है। दुर्भाग्यवश मोदी को इस प्रकार से नहीं कहा जाता है, लेकिन यदि हम चीनी घुसपैठ एवं किसानों के आंदोलन के मुद्दों पर उनके बयानों पर नजर डालें तो, उनका रिकॉर्ड भी इस मामले में शानदार रहा है। 

तो चलिए हम विशिष्ट मोदी-ट्रम्प संवेदना एवं “दोनों देशों में द्विपक्षीय आम सहमति....” वाले मुद्दे पर लौटते हैं। सितम्बर 2019 में टेक्सास में आयोजित “हाउडी मोदी” कार्यक्रम में भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने ही 2014 चुनाव प्रचार की टैगलाइन को तोड़ मरोड़कर बहुसंख्यक भारतीय-मूल की अमेरिकी भीड़ के बीच में “अब की बार, ट्रम्प सरकार” का उद्घोष किया था। इसे मोदी का दुर्भाग्य कहेंगे कि ट्रम्प चुनाव हार गए हैं। अब जबकि डोनाल्ड जे. व्हाइट हाउस से खींचकर धक्के मारते हुयी और चीखते हुए निकाले जाने की स्थिति पर पहुँच चुके हैं, ऐसे में वे एक बार फिर से निजी नागरिक की हैसियत में बिना किसी असाधारण राष्ट्रपतीय विशेषाधिकार के, जिसका वे अभी तक आनंद उठा रहे हैं, से वंचित होने जा रहे हैं। शायद यह मोदी के लिए पूर्व रियलिटी टीवी मेजबान और वर्तमान में झूठे टीवी वाले राष्ट्रपति के पक्ष में अहसान जताने का समय है।

लेकिन इतना तो तय है: जो बिडेन के जल्द ही मोदी के बीएफएफ बनने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। इसी प्रकार उप-राष्ट्रपति के तौर पर चुनी गईं कमला हैरिस के मोदी सरकार की कश्मीर नीति को लेकर उनकी बेबाक एवं कड़ी आलोचना के मद्देनजर मोदी के विश्वासपात्र बनने की संभावना कहीं ज्यादा धूमिल है। यह भी स्पष्ट तौर नजर आ रहा है कि भारत के बारे में अपने रुख के केंद्र में मानवाधिकारों को रखने जा रही हैं।

क्या 56-इंची सीने वाले लीजनेयर ऑफ़ मेरिट, डिग्री चीफ कमांडर के लिए अपनी प्राथमिकता को पुनर्निर्धारित करने का समय आ चुका है?

लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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