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नागरिकता विधेयक: असम की कुछ क्षेत्रीय पार्टियों का पाखंड

इस विभाजनकारी और सांप्रदायिक विधेयक का विरोध करना केवल काफी नहीं है; इस तरह के विरोध का आधार भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति का वैचारिक रूप से विरोध करना भी होना चाहिए।
assam

असम सामाजिक-राजनीतिक मंथन क़े बहाव की स्थिति में अक्सर रहा है और इससे समय-समय पर राज्य को नुकसान हुआ है। धार्मिक पहचान, अकर्मण्यता, आदिवासी मान्यता की मांग, कानूनी और अवैधता के प्रश्न, विभिन्न समूहों की जनसांख्यिकी में बदलाव आदि पर चिंता ने असम की आबादी के विभिन्न वर्गों के बीच असुरक्षा और भय की भावना पैदा कर दी है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा लाया गया विवादास्पद नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 के खिलाफ चल रहा विरोध इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

जबकि पूर्वोत्तर में अधिकांश क्षेत्रीय राजनीतिक दलों द्वारा विधेयक का विरोध किया जा रहा है, असम के मामले में असम गण परिषद (एजीपी) जैसे क्षेत्रीय दल ने इसका विरोध असम समझौते 1985 का पालन न करने और इसके इसके गैर-धर्मनिरपेक्ष चरित्र के कारण इस विधेयक का विरोध किया है। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि इनमें से अधिकांश दल वैचारिक रूप से भाजपा के विरोधी नहीं हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों और हाल के वर्षों में विधानसभा चुनावों के बाद से, उनमें से ज्यादातर ने भाजपा का समर्थन या गठबंधन किया था और भाजपा द्वारा शुरू किए गए पूर्वोत्तर डेमोक्रेटिक अलायंस (एनईडीए) का वे हिस्सा रहे हैं।

ऐतिहासिक असम आंदोलन (1979-1985) और इसके परिणाम स्वरुप उभरे असम समझौते 1985 के कारण असम के लोगों की आसन्न आशंका का ही परिणाम था कि 'अवैध विदेशी नागरिकों' से बढ़ते खतरे के मामले में वे अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान और आर्थिक पुनरुत्थान की रक्षा कर सके। यह वही डर था या है, जिसने सत्तारूढ़ भाजपा के तहत मौजूदा नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी), 1951 को अद्यतन करने और अपग्रेड करने की मांग को भी बल दिया था। इसने असम के लोगों में बड़ी नाराजगी  भर दी है, इसलिए उन्होंने 8 जनवरी, 2019 को विधेयक के विरोध में पूर्वोत्तर में हुए 11 घंटे के बंद में भाग लिया। इस विधेयक को भाजपा के सहयोगी, अगप ने 'असम विरोधी' करार दिया है, और इसी तरह की आलोचना अन्य क्षेत्रीय दलों ने भी की है।

नागरिकता विधेयक के साथ-साथ, सरकार की योजना 'अवैध प्रवासियों' की परिभाषा को बदलने की है। विधेयक में बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सताए हुए हिंदुओं, सिखों, पारसियों, बौद्धों, जैन और ईसाइयों को नागरिकता प्रदान करने के लिए  नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन करने का प्रयास किया गया है। यह संशोधन 31 दिसंबर, 2014 तक भारत में प्रवेश करने वाले लोगों को नागरिकता के लिए सही मानेगा और अनुमति देगा और इस प्रकार यह संशोधन असम समझौते के तहत सहमति की तारीख 24 मार्च, 1971 से कट-ऑफ तारीख को आगे बढ़ाता है। यह विधेयक स्पष्ट रूप से मुसलमानों को इससे बाहर करता है।

इस बिंदु पर, दो महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिन्हें रेखांकित किया जा सकता है। पहला, इसमें कोई संदेह नहीं है कि सांप्रदायिक रूप से प्रेरित नागरिकता विधेयक मौलिक रूप से समस्याग्रस्त और विवादास्पद है, क्योंकि यह धर्म पर नागरिकता को आधार बनाकर देश के मूल सार के साथ छेड़छाड़ करता है। यह सत्तारूढ़ पार्टी के हिंदुत्व के अपने एजेंडे को बढ़ावा देकर हिंदू राष्ट्र के निर्माण की दीर्घकालिक दृष्टि का भी एक प्रतिबिंब है, जिसे हम असम और पूर्वोत्तर में इसका खुलासा होते देख सकते है।

बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा असम में असमिया-बंगाली संबंधों को फिर से बनाने के प्रयास भी एक सोचनीय मामला है। हालांकि उनका लोकप्रिय प्रयास मुसलमानों के खिलाफ असमिया और बंगाली बोलने वाले हिंदुओं के बीच एकता कायम करना है, लेकिन असली मकसद बराक घाटी में बंगाली भाषी हिंदुओं की व्यापक असमिया सांस्कृतिक और भाषाई तह की वकालत करना है।

यह एक दूसरे मुद्दे पर लाता है कि प्रस्तावित विधेयक में विवाद के बड़े बिंदु और असम में आगामी आंदोलन उप-राष्ट्रीयवादी ‘अहोमिया’ की पहचान और भावना की रक्षा के बारे में अधिक हैं, जो मुख्य रूप से उच्च जाति  हिंदू पहचान है। 1985 के असम समझौते पर वापस आते हुए, यह तर्क देना उचित है कि असम सम्झौते का मुख्य ध्यान सिर्फ पहचान के दावे के निर्णायक सवाल पर नहीं था, बल्कि असमिया भाषा और संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए अवैध प्रवासियों का निष्कासन भी था। हालांकि असम का आर्थिक पुनरुद्धार और विकास असम आंदोलन और असम समझौते के मुख्य सिद्धांतों में से एक था, हालांकि, इसका मुख्य ज़ोर असम में उच्च जाति के हिंदू असमिया मध्यम वर्ग की सेवा करना बन गया था ताकि सीमाओं के पार अवैध बांग्लादेशियों की एक बड़ी बाढ़ का पारंपरिक डर दिखा कर असम में राजनीतिक और सांस्कृतिक बढ़त हासिल की जा सके.

इस उप-राष्ट्रीय अंधराष्ट्रीवादी विद्रोह ने आंदोलन को गति दी, जो बाद में अकॉर्ड का आधार बन गया। नतीजतन, नागरिकता विधेयक असम में सही नहीं बैठता है क्योंकि यह ऐतिहासिक असम समझौते के प्रावधानों को बेअसर करता है और उसका उल्लंघन भी करता है क्योंकि यह  24 मार्च, 1971 से  31 दिसंबर, 2014 तक कट-ऑफ की तारीख को बढ़ाता है।यह ठीक है कि सभी असम छात्र संघ (एएएसयू) और एजीपी, जो असम आंदोलन के अग्रदूत रहे हैं, हाल ही में विरोध में आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन विधेयक के गैर-धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के बारे में उन्हें इसकी ज्यादा चिंता नहीं है।

असम में एजीपी के साथ, अन्य क्षेत्रीय राजनीतिक दलों, जैसे कि स्वदेशी पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा, मेघालय में नेशनल पीपुल्स पार्टी, मिज़ोरम में मिज़ो नेशनल फ्रंट, और नागालैंड की नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी, जो बीजेपी के नेतृत्व एनईडीए गठबंधन का हिस्सा हैं, ने वर्तमान नागरिकता विधेयक के खिलाफ अपनी नाराजगी को ज़ताया है। हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने के भाजपा के वादे की जानकारी होने के बावजूद, जिसे स्पष्ट रूप से 2014 के लोकसभा चुनाव घोषणा पत्र में शामिल किया गया थी और जो उनकी वैचारिक स्थिति भी है, एजीपी जैसे क्षेत्रीय दलों ने असम में 2016 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के साथ गठबंधन किया था। आज जब असम में उनके राजनीतिक अस्तित्व पर सवालिया निशान लग गया है, और भाजपा ने असम समझौते को निरर्थक बताया है, तो एजीपी ने राज्य में सत्ताधारी दल से अपना समर्थन वापस लेने का अचरज से फैसला किया है। यह न केवल पूर्वोत्तर में क्षेत्रीय दलों, जैसे एजीपी, के दोहरे मापदंडों को उजागर करता है, बल्कि बीजेपी के प्रमुख हिंदुत्व एजेंडे पर उनके मौन समर्थन को भी दर्शाता है।  

असम एक बहु-जातीय और एक बहु-भाषी राज्य है जहां हर समुदाय को अपनी संस्कृति और भाषा की रक्षा और विकास करने का अधिकार है। हालांकि, राज्य में 'अवैध प्रवासियों' के मुद्दे ने समय-समय पर असमिया मध्यम वर्ग की कल्पना ने हमेशा ध्यान आकर्षित किया है। असमिया मध्यम वर्ग के बीच घुसपैठ की चिंता और गुस्सा इतना मजबूत है कि इसने अक्सर राज्य की देशज ’आबादी और तथाकथित प्रवासियों’ के बीच जातीय तनाव और हिंसा को जन्म दिया है।

अतीत में, असम ने बंगालियों, बिहारियों और मारवाड़ियों के खिलाफ अभियान देखे हैं और मुसलमानों के खिलाफ कड़वी हिंसा भी कोई नयी बात नहीं है। 1990 के दशक में सशस्त्र बोडो संगठनों ने अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों ’के बहाने आदिवासियों, नेपालियों, हिंदुओं और पूर्व बंगाली मूल के मुस्लिमों के खिलाफ हमले किए हैं, उनकी जमीनों पर अतिक्रमण किया और उनकी आजीविका छीन ली। यह दोहराना महत्वपूर्ण है कि इन मुसलमानों में से अधिकांश या तो खेतिहर मजदूर थे या फिर सीमांत किसान या उनकी खुद की कोई जमीन नहीं थी।

हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अप्रवासी राज्य में आ रहे हैं, लेकिन अगर कोई जनगणना के आंकड़ों पर नज़र डालें तो प्रवासियों की बड़े पैमाने घुसपैठ का दावा सच नही है। 2011 के जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 2001 से 2011 के बीच असम में 18.92 प्रतिशत से 16.93 प्रतिशत दर की गिरावट गिरावट आई है, इस प्रकार यह 1.99 प्रतिशत की गिरावट को चिह्नित करता है। 1971 और 1991 के बीच विकास दर (1981 में कोई जनगणना नहीं) 53.26 प्रतिशत थी। हालाँकि, धर्म-आधारित जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि असम ने 2001 में मुस्लिमों के अनुपात में 30.9 प्रतिशत से लेकर 2011 में 34.2 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की है। असम में मुसलमानों की आबादी  में 3.3 प्रतिशत की वृद्धि  यह  नहीं दर्शाती है कि  इसके लिए अवैध आव्रजन या अन्य कारक जिम्मेदार है बल्कि यह भी हो सकता है कि अन्य कारक जैसे कि कम साक्षरता, उच्च जन्म दर और उच्च प्रजनन दर आदि जिम्मेदार हों.

यह स्पष्ट है कि नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 का इस्तेमाल भाजपा द्वारा असम और पूर्वोत्तर के लोगों को सांप्रदायिक रूप देने और उनके भविष्य में राजनीतिक लाभ के लिए ध्रुवीकरण करने के लिए एक और ट्रम्प कार्ड के रूप में किया जा रहा है। इसके अलावा, विभिन्न जातीय और भाषाई समूहों और धार्मिक पहचानों के बीच असम में पहले से मौजूद विवादों और विरोधाभासों ने उन्हें अपने हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए एक उर्वर आधार दिया है, और क्षेत्रीय दलों ने पूर्वोत्तर, खासकर असम में मजबूत पैर जमाने में भाजपा की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहां, ऐसे क्षेत्रीय दलों के वैचारिक दिवालियापन को दूर  करना होगा। इस विभाजनकारी और सांप्रदायिक विधेयक का केवल विरोध करना पर्याप्त नहीं है; इस तरह के किसी भी विरोध को भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति का वैचारिक रूप से विरोध करना होगा।

लेखक मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में पीएचडी की छात्र हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

 

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