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न्यू इंडिया में गरीब बच्चों के जीवन का अंधेरा खत्म क्यों नहीं हो रहा?

विश्व में सबसे ज़्यादा कुपोषण के शिकार बच्चे भारत में हैं। पांच से 14 साल तक के उम्र के बाल मजदूरों की तादाद लगभग एक करोड़ से ज्यादा है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक भारत सर्वाधिक बाल मृत्युदर वाले शीर्ष पांच देशों में शामिल हो जाएगा। क्या हम ऐसे सुपर पॉवर बनेंगे?
poor children
Image courtesy:pinterest

मैं पढ़ना चाहता हूं, लेकिन कैसे पढ़ूं...स्कूल जाने से सिर्फ मेरा पेट भरेगा, मेरे घर का नहीं...

ये शब्द हैं दिल्ली के चमचमाते कनॉट प्लेस में अमीरों के जूते साफ करते एक गरीब बच्चे के। यह शब्द हमारे समाज के कई गरीब परिवारों की कहानी बयां करते हैं। आप और हम शायद चकाचौंध के बीच 'साहब बूट पॉलिस करवा लो, साहब करवा लो ना पॉलिश प्लीज़' जैसे शब्दों को नज़रअंदाज कर देते हैं और इन बच्चों के अंधेरे भविष्य को नहीं देख पाते। लेकिन हमें बाल दिवस का जश्न मनाते समय इन बच्चों की दयनीय स्थिति पर एक नज़र जरूर डालनी चाहिए।

चाचा नेहरू कहा करते थे 'बच्चे देश का भविष्य होते हैं। बच्चे देश की वास्तविक ताकत और समाज की नींव हैं। आज के बच्चे कल के भारत का निर्माण करेंगें।'लेकिन जब दिल्ली के कनॉट प्लेस के बच्चों का नजारा देखा, तो लगा कि मानो इनका वर्तमान ही सुरक्षित नहीं है तो ये कैसे देश का भविष्य सवारेंगे।

मैं रास्ते पर चल ही रही थी कि एक बच्ची दौड़ते हुए सामने से आई और मेरे हाथ से केक के पैकट को झपट कर निकल गई। जब बच्ची से पास जाकर पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया तो उसने सहमी हुई आवाज में जवाब दिया...'भूख लगी है, पिछले तीन दिन से कुछ नहीं खाया'। ये सच्चाई है विश्व की तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश की, जहां विश्व के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे हैं।

ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2018 के अनुसार विश्व के कुल अविकसित बच्चों का एक तिहाई हिस्सा हमारे देश भारत में है। कुपोषण का सीधा सा मतलब है कि खाने को भोजन नहीं है। ना बच्चे के पास और ना ही उस मां के पास जो ख़ून और भोजन की कमी के बावजूद उसे जन्म तो दे देती है मगर खाना नहीं दे पाती है। ये मदर इंडिया है। जो ख़ुद भी कुपोषित है और जिसकी संतानें भी भोजन के आभाव में दम तोड़ रही हैं। हमारे देश में पोषण के लिए कई योजनाएं हैं और खाद्य सुरक्षा की गारंटी भी। इसके बावजूद ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2018 के हिसाब से भारत 119 देशों की सूची में 103वें नंबर पर है। विश्व शक्ति बनने का एक रूप ये भी है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुपोषण के कारण पांच साल से कम उम्र के करीब दस लाख बच्चों की हर साल मौत हो जाती है।

फिलहाल कुछ आगे बढ़ी तो मैंने देखा कि लगभग 10 साल का एक बच्चा कुछ गुब्बारें लिए शोरूम के आगे लोगों को जबरन घेर कर गुब्बारे बेचने की कोशिश कर रहा था। जब उससे पूछा कि क्या तुम स्कूल जाते हो? उसका जवाब था नहीं। कारण पूछा तो बड़ी आसानी से उसने बोल दिया, ‘वहां पैसे नहीं मिलते, फिर वहां जाकर क्या करना है? ये कहने पर की क्या तुम्हारा पढ़ने का मन नहीं होता उसने तुरंत जवाब दिया... होता है ना, मगर टाइम नहीं होता। जब मैंने पूछा कि टाइम क्यों नहीं होता तो उसने कहा..पूरा दिन गुब्बारे बेचने में ही निकल जाता है। अगर ये नहीं किया तो पैसे नहीं मिलेंगे। आप सोच सकते हैं कि इन छोटे कंधों पर जिम्मेदारियों का कितना बोझ है।

विश्व बैंक की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 10 से 14 करोड़ के बीच बाल श्रमिकों की संख्या है। बाल अधिकारों के हनन के सर्वाधिक मामले भारत में ही होते हैं। प्रगति के लंबे-चौड़े दावों के बावजूद भारत में बच्चों की स्थिति दयनीय बनी हुई है। डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फार एजुकेशन (डाइस) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार हर सौ में महज 32 बच्चे ही स्कूली शिक्षा पूरी कर पा रहे हैं। देश में पांच से 14 साल तक के उम्र के बाल मजदूरों की तादाद एक करोड़ से ज्यादा है।

हालांकि यह उन बच्चों की दास्तां हैं जिन्हें कम से कम मां-बाप के साथ रहना नसीब हो पाता है लेकिन अगर हम अनाथ बच्चों के बालगृहों की हालत देखें तो यह और भी भयावह है। हमारे देश में 2007 में विधायी संस्था के रूप में गठित, नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) के एक आंकड़े के मुताबिक भारत में इस समय 1300 गैरपंजीकृत चाइल्ड केयर संस्थान (सीसीआई) हैं। यानी वे जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत रजिस्टर नहीं किए गए हैं। देश में कुल 5850 सीसीआई हैं और कुल संख्या 8000 के पार बताई जाती है।

इस डाटा के मुताबिक सभी सीसीआई में करीब दो लाख तैंतीस हजार बच्चे रखे गए हैं। 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने देश में चलाए जा रहे समस्त सीसीआई को रजिस्टर कराने के आदेश दिए थे। लेकिन सवाल सिर्फ पंजीकरण का नहीं है, सवाल संस्था के फंड या ग्रांट के साथ, उस पर निरंतर निगरानी और नियंत्रण की व्यवस्था का भी है, जो मौजूदा समय में नदारद है।

हमारे देश में बच्चों की स्थिति हर मामले में काफ़ी चिंताजनक है। साल 2016 में जारी की गई यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक भारत सर्वाधिक बाल मृत्युदर वाले शीर्ष पांच देशों में शामिल हो जाएगा और तब दुनिया भर में पांच साल तक के बच्चों की होने वाली कुल मौतों में 17 फीसदी बच्चे भारत के ही होंगें।

मंंदी की चपेट में होने के बावजूद सरकार हमें 5 ट्रलियन अर्थव्यवस्था का सपना दिखाया जा रहा है। हमने कुछ समय पहले ही चंद्रयान-2 की सफ़लता की खुशियां मनाई, लेकिन इस उजली तस्वीर पर कई दाग भी हैं। एक सरकार और समाज के रूप में हम अभी भी बच्चों और उनके अधिकारों को लेकर गैर-जिम्मेदार और असंवेदनशील बने हुए हैं।

साल 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 18 आयु समूह तक के 472 मिलियन बच्चे हैं। जिनके भविष्य के प्रति हम बिल्कुल सजग नहीं हैं। हमारा देश अभी भी भ्रूण हत्या, बाल व्यापार, यौन दुर्व्यवहार, लिंग अनुपात, बाल विवाह, बाल श्रम, स्वास्थ्य, शिक्षा, कुपोषण जैसी समस्याओं से ग्रसित हैं। हम आज तक अपने बच्चों को हिंसा, भेदभाव, उपेक्षा शोषण और तिरस्कार से निजात दिलाने में कामयाब नहीं हो सके हैं।

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