क्या है किसानों का मुद्दा जिसके चलते हरसिमरत कौर को मोदी कैबिनेट से इस्तीफ़ा देना पड़ा
"मैंने केंद्रीय मंत्री पद से किसान विरोधी अध्यादेशों और बिल के ख़िलाफ़ इस्तीफ़ा दे दिया है। किसानों की बेटी और बहन के रूप में उनके साथ खड़े होने पर गर्व है।"
केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के बाद शिरोमणि अकाली दल की नेता हरसिमरत कौर बादल ने ये ट्वीट किया। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्री हरसिमरत कौर बादल का ये इस्तीफ़ा मोदी सरकार के महत्वकांक्षी तीन कृषि विधेयकों के विरोध में गुरुवार, 17 सितंबर को सामने आया। हालांकि शिरोमणि अकाली दल अभी भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए की सहयोगी है लेकिन पार्टी ने इन कृषि विधेयकों के मामले में अपने सांसदों को इसके ख़िलाफ़ वोट करने को कहा है। अकाली दल के सांसद और पार्टी अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने भी इन विधेयकों का विरोध किया है।
I have resigned from Union Cabinet in protest against anti-farmer ordinances and legislation. Proud to stand with farmers as their daughter & sister.
— Harsimrat Kaur Badal (@HarsimratBadal_) September 17, 2020
हरसिमरत कौर बादल ने सदन के बाहर पत्रकारों से कहा, "हज़ारों किसान सड़क पर हैं। मैं ऐसी सरकार का हिस्सा नहीं बनना चाहती जिसने सदन में बिना किसानों की चिंताओं के बारे में बात किए बिल पास कर दिया। यही वजह है कि मैंने इस्तीफ़ा दिया।"
उन्होंने प्रधानमंत्री को सौंपे अपने इस्तीफ़े में लिखा है कि कृषि उत्पाद की मार्केटिंग के मुद्दे पर किसानों की आशंकाओं को दूर किए बिना भारत सरकार ने बिल को लेकर आगे बढ़ने का फ़ैसला लिया है। शिरोमणि अकाली दल किसी भी ऐसे मुद्दे का हिस्सा नहीं हो सकती है जो किसानों के हितों के ख़िलाफ़ जाए। इसलिए केंद्रीय मंत्री के तौर पर अपनी सेवा जारी रखना मेरे लिए असभंव है।
बीजेपी-अकाली दल की क्या मजबूरियां हैं?
मालूम हो कि शिरोमणि अकाली दल के लोकसभा में दो सदस्य हैं तो वहीं राज्यसभा में तीन। भले ही पार्टी के इस विरोध से सरकार के बिल पास कराने के गणित में कोई फर्क न पड़े लेकिन पंजाब में बिना अकाली दल के बीजेपी का कोई खास वजूद नहीं है। अकाली दल द्वारा अपने ही गठबंधन सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने से केंद्र में बीजेपी की किरकिरी जरूर होगी।
उधर, 100 साल पुरानी अकाली दल का भी असली अस्तित्व पंजाब में ही हैं। यहां के किसान अकाली दल की रीढ़ हैं और इस समय किसानों में सरकार को लेकर बहुत ग़ुस्सा है। अकालियों के ख़िलाफ़ कई गाँवों में पोस्टर लगा दिये गए थे ऐसे में अकाली दल अपने वोट बैंक को किसी भी सूरत में और नाराज़ नहीं करना चाहता।
क्या हैं ये तीन कृषि अध्यादेश/विधेयक?
कृषि सुधार के दावों के साथ केंद्र सरकार ने जो तीन नए विधेयक पेश किए हैं, उन्हें सरकार पहले अध्यादेश के तौर पर लागू कर चुकी है। इनमें उत्पाद, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020, किसान सशक्तीकरण और संरक्षण अध्यादेश और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश शामिल हैं।
नए विधेयकों में आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन के प्रस्ताव के साथ-साथ ठेके पर खेती को बढ़ावा दिए जाने की बात कही गई है और साथ ही प्रस्ताव है कि राज्यों की कृषि उपज और पशुधन बाज़ार समितियों के लिए गए अब तक चल रहे क़ानून में भी संशोधन किया जाएगा।
उत्पाद, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020
इस अध्यादेश में कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी मंडियों) के बाहर भी कृषि उत्पाद बेचने और खरीदने की व्यवस्था तैयार करना है। इसके जरिये सरकार एक देश, एक बाजार की बात कर रही है। यानी अब व्यापारी किसानों से मंडियों के बाहर भी उनकी उपज खरीद सकते हैं। इससे न्यूनतन समर्थन मूल्य (एमएसपी) के अलावा मंडियों को 6 प्रतिशत अलग से दिए जाने वाले टैक्स से भी व्यापारी बच सकते हैं। मोटा-माटी ये अध्यादेश राज्य सरकारों को मंडियों के बाहर की गई कृषि उपज की बिक्री और खरीद पर टैक्स लगाने से रोकता है।
ये अध्यादेश/विधेयक बड़े कारोबारियों को सीधे किसानों से उपज खरीद की बात तो करता है लेकिन इस व्यवस्था से उन छोटे किसानों का क्या होगा जिनके पास मोल-भाव करने की क्षमता नहीं है या व्यपारी जिनका शोषण कर सकते हैं, इस पर बात नहीं करता।
किसान सशक्तीकरण और संरक्षण अध्यादेश
इस अध्यादेश में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात है। यह फसल की बुवाई से पहले किसान को अपनी फसल को तय मानकों और तय कीमत के अनुसार बेचने का अनुबंध करने की सुविधा प्रदान करता है। इसके तहत फसलों की बुआई से पहले कम्पनियां किसानों का माल एक निश्चित मूल्य पर खरीदने का वादा करती हैं। लेकिन कई मामलों में देखा गया है कि जब किसान की फसल तैयार हो जाती है तो कम्पनियाँ किसानों के उत्पाद को खराब बता कर रिजेक्ट कर देती हैं। यानी अब इस नए अध्यादेश के तहत किसान कहीं अपनी ही जमीन पर मजदूर बन के न रह जाएं। ये पश्चिमी देशों का कृषि मॉडल है, जहां खेती-किसानी जीवनयापन करने का साधन नहीं है बल्की एक व्यवसाय है।
कई मामलों में देखा गया है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों का शोषण होता है। इसका उदाहरण गुजरात है, जहां पेप्सिको कम्पनी ने किसानों पर कई करोड़ का मुकदमा किया था जिसे बाद में किसान संगठनों के विरोध के चलते कम्पनी ने वापस ले लिया था।
आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन
इस अध्यादेश के तहत आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन कर आवश्यक वस्तुओं की सूची से अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू जैसी वस्तुओं को हटाने की बात की जा रही है। यानी अब व्यापारियों द्वारा कृषि उत्पादों को एक लिमिट से अधिक भंडारण की छूट दी जा रही है।
आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 किसानों को बड़े व्यापारियों से संरक्षण के लिए लाया गया था। इससे पहले फसलों को व्यापारी किसानों से औने-पौने दामों में खरीदकर उसका भंडारण कर लेते थे और कालाबाज़ारी करते थे, इसे रोकने के लिए ही यह अधिनियम बनाया गया था जिसके तहत व्यापारियों द्वारा कृषि उत्पादों के एक लिमिट से अधिक भंडारण पर रोक लगा दी गयी थी। लेकिन अब सरकार इसे खत्म करने जा रही है।
किसान क्या कह रहे हैं?
किसानों का कहना है कि मंडी समिति के जरिये संचालित अनाज मंडियां उनके लिए यह आश्वासन थीं कि उन्हें अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाएगा। मंडियों की बाध्यता खत्म होने से अब यह आश्वासन भी खत्म हो जाएगा।
ठेके पर खेती के मामले में किसानों कहना है कि जो कंपनी या व्यक्ति ठेके पर कृषि उत्पाद लेगा, उसे प्राकृतिक आपदा या कृषि में हुआ नुक़सान से कोई लेना देना नहीं होगा। इसका ख़मियाज़ा सिर्फ़ किसान को उठाना पड़ेगा।
वहीं आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन मामले में किसानों का मानना है कि ज्यादतर किसानों के पास लंबे समय तक भंडारण की व्यवस्था नहीं होती है यानी यह अध्यादेश बड़ी कम्पनियों द्वारा कृषि उत्पादों की कालाबाज़ारी के लिए लाया गया है। कम्पनियाँ और सुपर मार्केट अपने बड़े-बड़े गोदामों में कृषि उत्पादों का भंडारण करेंगे और बाद में ऊंचे दामों पर ग्राहकों को बेचेंगे। इस बदलाव से कालाबाजारी घटेगी नहीं बल्की बढ़ेगी।
क्या हैं किसानों की केंद्र सरकार से प्रमुख मांगे?
- केंद्र के तीनों अध्यादेशों/विधेयक को वापस लिया जाए।
- संसद में एमएसपी गारंटी कानून पास किया जाए।
- किसानों को आढ़तियों की मार्फत ही भुगतान हो।
- सभी किसानों का कर्ज माफ किया जाएगा।
- स्वामीनाथन आयोग के C2+50% फॉर्मूले के तहत एमएसपी तय हो।
किसान संगठन क्या कह रहे हैं?
इन अध्यादेशों/विधेयकों का कई किसान संगठन बहुत पहले से विरोध कर रहे हैं। उनकी आशंका है कि इन कानूनों से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) प्रणाली को खत्म करने का रास्ता साफ हो जाएगा तो वहीं किसान बड़े कॉरपोरेट घरानों की दया के भरोसे रह जाएंगे।
सीटू के उपाध्यक्ष ज्ञान शंकर मजूमदार ने मीडिया से बात करते हुए बताया कि कि ये तीनों विधेयक एक बार फिर से किसानों को बंधुआ मज़दूरी में धकेल देंगे। नए विधेयक की वजह से इन समितियों के निजीकरण का मार्ग भी प्रशस्त हो जाएगा।
उनका कहना है कि अब पशुधन और बाज़ार समितियाँ किसी इलाक़े तक सीमित नहीं रहेंगी। अगर किसान अपना उत्पाद मंडी में बेचने जाएगा, तो दूसरी जगहों से भी लोग आकर उस मंडी में अपना माल डाल देंगे और किसान को उनकी निर्धारित रक़म नहीं मिल पाएगी।
इस संबंध में इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस के सचिव के राजीव आरोड़ा कहते हैं कि ठेके पर खेत लेने वाले को किसानों और उनके नुकसान से कोई मतलब नहीं होगा। अगर किसी भी कारण से फसल बर्बाद होती है, तो सिर्फ़ किसान को ही उस नुक़सान को झेलना पड़ेगा।
किसान संगठनों का ये भी कहना है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम में पहले किसानों पर खाद्य सामग्री को एक जगह जमा कर रखने पर कोई पाबंदी नहीं थी। ये पाबंदी सिर्फ़ कृषि उत्पाद से जुडी व्यावसायिक कंपनियों पर ही थी। अब संशोधन के बाद जमाख़ोरी को रोकने की कोई व्यवस्था नहीं रह जाएगी, जिससे बड़े पूँजीपतियों को तो फ़ायदा होगा, लेकिन किसानों को इसका नुक़सान झेलना पड़ेगा।
किसान सभा के विजू कृष्णन ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि वे आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन विधेयक को किसान "जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी की आज़ादी" का विधेयक मानते हैं।
इन विधेयकों को किसान "मंडी तोड़ो, न्यूनतम समर्थन मूल्य को ख़त्म करने वाले और कॉरपोरेट ठेका खेती को बढ़ावा देने वाले" विधेयक के रूप में देख रहे हैं।
गौरतलब है कि इन तीनों बिलों के खिलाफ खड़े किसानों ने बीते दिनों तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के तमाम हिस्सों में सड़क पर उतरकर जमकर प्रदर्शन किए थे। किसानों का सबसे ज़्यादा विरोध पंजाब और हरियाणा में देखने को मिल रहा है। प्रदर्शन के दौरान पुलिस के साथ किसानों की झड़प भी हुई थी, जिसके कारण पंजाब और हरियाणा में तनाव के हालात बन गए थे।
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