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विधानसभा चुनाव : बीजेपी को उसकी ही फ़र्ज़ी ख़बरों ने डुबा दिया

बीजेपी का मानना है कि उसकी योजना के लाभार्थी, सोशल मीडिया फॉलोवर, भक्त हिंदू और देशभक्त उसके डेटा और सोशल मीडिया प्रचार से प्रभावित हो रहे हैं। ऐसे में हाल में आए विधानसभा चुनावों के परिणाम ने इसे खोखला साबित कर दिया।
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विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार अभियान के शुरू होते ही 5 अक्टूबर को एक अज्ञात बीजेपी नेता के हवाले से एक प्रमुख दैनिक अखबार ने राजस्थान के मामले में दिए उनके बयान को प्रकाशित किया। बीजेपी नेता का बयान कुछ इस तरह थाः "राज्य सरकार ने 3.5 लाख सरकारी नौकरियां दी हैं, 30 लाख से अधिक किसानों का क़र्ज़ माफ कर दिया और भामाशाह स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत 1.6 करोड़ लोगों को कवर किया। अब उनको वापस लौटाने का समय आ गया है।"

इस अपरिपक्व बयान से सत्तारूढ़ बीजेपी की सोच ज़ाहिर होती है। हाल में संपन्न हुए चुनावों और 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए भी प्रमुख रणनीतियों को यह दर्शाता है। यह धारणा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विभिन्न प्रकार की योजनाओं ने 22 करोड़ लोगों को 'लाभान्वित' किया है और पार्टी कार्यकर्ताओं को बीजेपी को वोट देने के लिए इन लोगों/ परिवारों से संपर्क करने की ज़रूरत है। कहा जाता है कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने इस रणनीति को मंज़ूरी दे दी थी।

इस साल नवंबर-दिसंबर महीने में हुए पांच विधानसभा चुनावों के परिणाम इस दावे के खोखलेपन को उजागर कर चुके हैं। जिन तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी सत्ता पर क़ाबिज थी उसे हार चुकी है जबकि तेलंगाना और मिजोरम में इसका बहुत ही ख़राब प्रदर्शन रहा है।

तीन बड़े हिंदीभाषी राज्यों के मतदाता बड़ी संख्या में बीजेपी (2013 में अंतिम विधानसभा चुनावों की तुलना में) से अलग हुए हैं। ये मतदाता राजस्थान में 7%, एमपी में 3.5% और छत्तीसगढ़ में 8.5% तक दूर हुए हैं। ज़ाहिर है सोचने का यह तरीक़ा कि योजनाओं के लाभार्थी बीजेपी द्वारा दिखाए गए दरियादिली के इतना बाध्य हो जाएंगे कि वे बीजेपी उम्मीदवार को जीताने के लिए मतदान गिराएंगे जो उनके चेहरे पर तमाचा है।

इसके कारणों को ढूंढना बहुत मुश्किल नहीं है। सबसे पहले यह कि योजनाएं सभी लोगों तक नहीं पहुंचती हैं। दूसरा ये कि जिन लोगों तक पहुंची है वे इसे सत्तारूढ़ दल द्वारा उनके लिए किए गए बड़े काम के तौर पर नहीं देख सकते हैं। और तीसरा, विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों के बारे में बीजेपी के प्रचार तंत्र द्वारा बताई गई संख्या पूरी तरह से खोखली हैं। इसलिए, भले ही बीजेपी कार्यकर्ता कुछ तथाकथित लाभार्थी के घर (गोपनीय सरकारी डेटा से पता हासिल करने के बाद, शायद अवैध रूप से) आते हैं और 'कमल का दीपक' जलाते हैं जैसा कि राजस्थान में करने का प्रयास किया था और शायद दूसरे राज्यों में भी हो सकता है तो ऐसे में कुछ भी हासिल नहीं हो सकता है।

सोशल मीडिया फौजी

मुख्यधारा के मीडिया नियमित रूप से ख़बरें प्रकाशित करती रही हैं कि किस तरह बीजेपी सोशल मीडिया वार रूम स्थापित कर रही है, लाखों सोशल मीडिया फौजियों की भर्ती कर रही है और यहां तक कि अपने काल्पनिक 'पन्ना प्रमुखों' को भरने के लिए बूथ-स्तरीय सोशल मीडिया समन्वयक भर्ती करने जा रही है। अल्प दान, साइबर फौजियों के प्रशिक्षण और नमो ऐप के माध्यम से वीडियो इंटरएक्शन को बेहतर स्थिति में बताया गया और जिसका हालिया विधानसभा चुनावों में परीक्षण किया गया। याद कीजिए इन विधानसभा चुनावों से पहले मोदी ने अपने ऐप के माध्यम से विभिन्न योजना के लाभार्थियों से बातचीत की थी?

यह पूरी रणनीति सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों पर इकट्ठा किए गए आंकड़ों से भी जुड़ी हुई थी। यह क़ानूनी रूप से स्वीकार्य है या नहीं यह एक अलग सवाल है, लेकिन सच्चाई यह है कि आने वाले चुनावों की तैयारी में साइबर हमले के लिए बीजेपी द्वारा इस बहुमुल्य आंकड़ों का इस्तेमाल किया जा रहा है।

इन विधानसभा चुनावों में इसके प्रयोग का नतीजा क्या था? बीजेपी ने जो गंवाया वो सबको पता है, लेकिन इन पांच राज्यों में चुनाव के दौरान उन सभी व्हाट्सएप संदेश और फेसबुक पोस्टों का क्या हुआ जो साइबर दुनिया में बाढ़ की तरह आ गए थे? ज़ाहिर है इन संदेशों ने कोई मदद नहीं किया है।

बीजेपी एक सच्चाई को समझने में नाकाम रही है कि कोई भी राजनीतिक संगठन हो उसे पता होना चाहिए: धरातल पर ठोस काम करने का कोई विकल्प नहीं है और चुनाव सिर्फ अच्छा प्रचार करके नहीं जीता जाता है। यदि ऐसा होता तो बीजेपी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन 1999-2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के अधीन उनके कार्यकाल के बाद सत्ता हासिल करने में सफल हुई होती। 'शाइनिंग इंडिया' प्रचार के बावजूद वे चुनाव हार गए और केंद्र में कांग्रेस में नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन -1 सरकार का गठन हुआ।

वर्तमान में बीजेपी भी इसी तरीके से निरंतर आगे बढ़ रही है। इसने उन नीतियों का पालन किया है जिसने अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया है, बेरोजगारी में वृद्धि की, छोटे और मध्यम दर्जे के व्यवसायियों की कमर तोड़ दी, किसानों को बर्बाद कर दिया, भूमिहीन मजदूरों को कंगाल बना दिया और बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए श्रमिकों को संघर्ष करते हुए छोड़ दिया। दूसरी तरफ ऐसे लोगों की संख्या बड़ी है और असमानता में काफी वृद्धि हुई है। फिर भी पार्टी सोचती है कि सोशल मीडिया के माध्यम से संदेश प्रबंधन करके वह अपनी नईया पार लगा लेगी।

जैसा कि विधानसभा के नतीजे बताते हैं कि ऐसा कभी होने वाला नहीं है। अगर लोग गुस्से में हैं और धोखाधड़ी को महसूस करते हैं तो मोदी के तथाकथित विश्वव्यापी सम्मान या सर्जिकल हमले या 'गौरवशाली' राम मंदिर की छवियों को लेकर असंख्य व्हाट्सएप संदेश उन्हें वापस सत्ता दिलाने वाली नहीं है।

सांप्रदायिक कार्ड

बीजेपी की चुनावी रणनीति में सबसे आख़िरी और सबसे खतरनाक कूटनीतिक तत्व सांप्रदायिक कार्ड है। यह एक जटिल बहु-स्तरित पुलिंदा है जिसमें शरणार्थियों के प्रति शत्रुता से लेकर अयोध्या में गौरवशाली राम मंदिर का निर्माण करने और देशभक्ति के रूप में पाकिस्तान विरोधी दिखावा का स्वांग जैसे झूठ (लव जिहाद, मुस्लिम आबादी विस्फोट इत्यादि) शामिल हैं। इस पुलिंदा के तत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके कई सहयोगियों द्वारा तैयार किए जाते हैं और पारंपरिक माध्यमों और अब सोशल मीडिया के ज़रिए तेज़ी से उनके द्वारा अलग-अलग फैलाया जाता है।

यह कूटनीतिक तत्व आगामी चुनावों को प्रभावित करने के लिए एक सुविचारित चाल है लेकिन विधानसभा चुनावों में भी इसका परीक्षण किया गया था। इस साल अक्टूबर से शुरू हुए विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान बनावटी बातों के ज़रिए राम मंदिर मुद्दे को उछाला गया जैसा कि मुख्य प्रचारक के रूप में योगी आदित्यनाथ का इस्तेमाल किया गया।

इन सबके बावजूद बीजेपी हार गई। असल में परिणाम की घोषणा के दिन एक बीजेपी सांसद संजय काकाडे के हवाले से ख़बर प्रकाशित हुई कि राम मंदिर मुद्दे ने विकास को पीछे कर दिया है जिससे हार की मुंह देखनी पड़ी!

ऐसा इसलिए है क्योंकि जब भी चुनाव आ रहा होता है राम मंदिर के मुद्दे को उछालकर लोगों को न केवल मूर्खतापूर्ण अवसरवाद के माध्यम से देखा गया है बल्कि वे इस सच्चाई से भी जागृत कर रहे हैं कि समुदायों के बीच घृणा और ज़हर घोलने से केवल हिंसा, रक्तपात और क्रोध का जन्म होता है। इससे कभी समृद्धि और शांति नहीं होती है। बुलंदशहर में हाल ही में एक पुलिस अधिकारी सहित मॉब लिंचिंग की घटनाओं के दर्जनों उदाहरणों ने इस बात की पुष्टि की है कि ये पार्टी जो इंसानों की ज़िंदगी के सामने गायों को तरजीह देती है वह अनुचित है।

अपनी चुनावी रणनीति के इन प्रमुख घोषणा पत्रों के बावजूद इन विधानसभा चुनावों में मतदाताओं द्वारा खारिज कर दिया गया, ऐसे में अब मोदी की अगुआई वाली बीजेपी अब कहां जाएगी? यही वो चीज़ है जिसे आने वाले महीनों में देखने की ज़रूरत है।

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