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लोकसभा चुनाव के स्तर में इतनी गिरावट का जिम्मेदार कौन?

इस गिरावट के मुख्य आरोपी प्रधानमंत्री मोदी हैं जिनकी नजरों में चुनाव आचार सहिंता का कोई मोल नहीं है, इसके साथ ही चुनाव आयोग की साख भी शक के दायरे में आ गयी है, और टी.वी. मीडिया जिसने अपनी टी.आर.पी. को बढ़ाने के लिए हर खबर को सनसनीखेज बना दिया।
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हर पांच साल के बाद, भारत इस बात पर आश्चर्य करता है कि क्या उसने अब तक का सबसे खराब चुनाव देखा है। देश के अनुभवी नागरिक, पत्रकार राजनीति के गिरते स्तर और अभियान संबंधी बयानबाजी के बारे में गर्मा गर्म बहस करते हैं। लेकिन आज उस सवाल पर बहस करने की जरूरत नहीं है। वर्ष 2019 का चुनाव  स्वतंत्र भारत में हर पहलू से अब तक का सबसे ख़राब चुनाव रहा है: उम्मीदवारों का स्तर, धन और बाहुबल का उपयोग, अपमानजनक टिप्पणी/अभियान और वास्तविक मुद्दों का हाशिए पर होना आदि के मामले में। देश के चुनाव में इस पतन का नेतृत्व खुद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं, जिन्होंने नैतिकता की सभी हदें तोड़ दी है। वे वापस प्रधानमंत्री के रूप में लौट सकते हैं, लेकिन उनका रिकॉर्ड हमेशा देश की राजनीति में एक धब्बा रहेगा।

जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने एक गरिमापूर्ण राजनीतिक अभियान के लिए उच्च मानदंड स्थापित किए थे, आज़ जब मैं इस लेख को लिख रहा हूँ, तो उनकी कब्र पर पानी फिरता सा नज़र आता है। 1957 में, उन्होंने फूलपुर में राम मनोहर लोहिया के खिलाफ कड़ा चुनाव लड़ा था। लेकिन वह कड़वाहट नागरिकता की सीमाओं को पार नहीं कर पाती थी। वास्तव में, चुनाव के दौरान उनके द्वारा लोहिया को लिखे गए पत्र लोकतांत्रिक भावना का एक आदर्श उदाहरण हैं। इंदिरा गांधी को भी एक निर्दयी नेता के रूप में जाना जाता था, लेकिन विपक्षी नेताओं की आलोचना करते हुए वे कभी व्यक्तिगत स्तर तक नहीं गयी। आपातकाल के बाद, 1977 का चुनाव जमकर लड़ा गया। इंदिरा को तानाशाह करार दिया गया था, लेकिन मुझे याद नहीं है कि किसी विपक्षी नेता ने उनके निजी जीवन पर हमला किया हो। उनके बेटे संजय गांधी और उनकी पत्नी मेनका ने जनता पार्टी से किनारा कर चुके कांग्रेस नेता को शर्मिंदा करने के लिए जगजीवन राम के बेटे की निजी तस्वीरों को प्रकाशित करके उन्हें गहरी चोट पहुंचायी। लेकिन वह एक अपवाद था। मोदी के खिलाफ सोनिया गांधी की ‘मौत के सौदागर’ की टिप्पणी ने देशव्यापी विवाद छेड़ दिया था। मोदी और बीजेपी तो अब भी इसका रोना रोते हैं। लेकिन सोनिया गांधी के इस कटु हमले का संबंध 2002 के गुजरात दंगों से था, न कि मोदी के निजी जीवन से। मनमोहन सिंह एक विशिष्ट राजनेता नहीं थे। वह अपनी खुद की उपलब्धियों के बारे में बोलने में हिचकिचाते थे, फिर कोई भी उनसे विपक्ष पर हमला करने की उम्मीद नहीं कर सकता था। उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में अपनी दशक भर की पारी में कभी किसी के खिलाफ कोई व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं की। लेकिन मोदी ने राजनीतिक विरोधियों का सम्मान करने की इस परंपरा को कभी नहीं माना। उनका पूरा राजनीतिक जीवन शालीनता से दूर रहा है। साल 2014 मोदी के लिए मुश्किल नहीं था। कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन -2 विश्वसनीयता के मामले में अपने सबसे निम्न स्तर पर था, और उसे केवल मनमोहन सिंह द्वारा निर्मित शून्य को भरना था। पांच साल के बाद उसके सामने एक बहुत मुश्किल काम है। उसे अपने वादों का हिसाब देना पड़ेगा , और यह तब और मुश्किल हो जाता है जब अगर आप उन्हें पूरा करने के करीब भी नहीं हैं। उन्होंने बेरोजगारी, कृषि संकट और सामाजिक द्वेष के बारे में बात करने से बचने के लिए सब कुछ किया। और पुलवामा और बालाकोट की शरण में चले गए, और तब से उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

चूंकि मोदी उन चीजों के बारे में शेखी बघारना पसंद करते हैं जो पिछले प्रधानमंत्रियों के तहत कभी नहीं हुईं, इसलिए हम आदर्श आचार संहिता के लिए उनकी अभूतपूर्व उपेक्षा को गिना सकते हैं। मोदी ने अपने भाषणों में सशस्त्र बलों का लापरवाही से इस्तेमाल किया, शहीदों सैनिकों के नाम पर मतदाताओं से मत की अपील की, सांप्रदायिक जुनून को भड़काने की कोशिश की। मोदी ने 1984 के सिख विरोधी दंगों को लेकर दिल्ली-पंजाब-हरियाणा के ठीक मतदान के चरण से पहले पूर्व पीएम राजीव गांधी पर भी निशाना साधा। अंतिम चरण के मतदान से ठीक पहले केदारनाथ की उनकी हालिया यात्रा चुनावी दिशानिर्देशों के लिए उनके निरादर का नवीनतम उदाहरण है। अगर कोई विपक्षी नेता ऐसा करता तो चुनाव आयोग (EC) सख्त कार्रवाई करता।

तीन दशक पहले, राजनीति का अपराधीकरण भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। 1995 के महाराष्ट्र चुनाव में, भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने इस मुद्दे पर शरद पवार के खिलाफ अभियान चलाया था और जीत हासिल की थी। राजनीति के अपराधीकरण पर एन.एन.वोरा की रिपोर्ट पर लोकसभा में घंटों बहस हुई। आतंकी हमले की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी बताती है कि भाजपा पिछले 30 साल में कितनी बेशर्म हो गई है। मोदी की भाजपा की पुस्तक में "नैतिकता" शब्द नहीं है। लोकतंत्र का त्योहार बदसूरत हो गया है, और मोदी इसके मुख्य दोषी हैं।

दूसरा दोषी चुनाव आयोग और उसके प्रमुख सुनील अरोड़ा हैं। पोल पैनल ने पूरी दुनिया में अपनी पेशेवर अखंडता के लिए ख्याति अर्जित की थी। पूर्व चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन ने 1980 के दशक के अंत में इस संवैधानिक निकाय के अधिकार को स्थापित किया था। विवादास्पद आयुक्तों की नियुक्ति, जैसे कि नवीन चावला, एक अपवाद था, नियम नहीं। चुनाव आयोग ने अतीत में गलतियां की हैं, लेकिन इसकी विश्वसनीयता पर कभी संदेह नहीं किया गया था। इस बार,सीईसी सुनील अरोड़ा ने अपनी चाटुकारिता को एक और स्तर पर ला दिया है। पोल पैनल ने मोदी और शाह को अनगिनत क्लीन चिट दी है, जो स्पष्ट रूप से देश के दो सबसे शक्तिशाली नेताओं के साथ काम करते समय उनकी रीढ़ की कमी को दर्शाता है। सबसे अधिक चिंता का विषय पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी है। असंतुष्ट आयुक्तों में से एक, अशोक लवासा ने, इसके बारे में प्रासंगिक सवाल पूछे हैं। पश्चिम बंगाल प्रकरण चुनाव आयोग की निष्पक्ष कार्यप्रणाली पर एक धब्बा है। चुनाव आयोग का इस्तेमाल ऐसे राजनीतिक दबावों के लिए किया जाता है, लेकिन स्वतंत्र भारत में कभी भी चुनाव आयोग इतना कमजोर नहीं रहा है।

मैं विपक्षी दलों को भी दोषी मानता हूं के वे 2019 के ऐतिहासिक चुनावों के लिए तैयार नहीं थे। उनके पास मोदी-शाह के जबरदस्त हमले का मुकाबला करने के लिए कोई अभियान की रणनीति नहीं थी। विपक्ष को मोदी सरकार के खराब प्रदर्शन पर ध्यान देना चाहिए था। लेकिन विपक्ष बेरोजगार युवाओं, किसानों या समाज के किसी अन्य वर्ग की बेचैनी का फायदा उठाने में असमर्थ रहे। सभी विपक्षी नेता अपने अपने गढ़ों की रक्षा में व्यस्त नज़र आए। ममता बनर्जी या मायावती ने मोदी को बरगलाया, लेकिन वे अपने क्षेत्रों तक ही सीमित रहे।

अखिल भारतीय स्तर पर, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मोदी का मुकाबला करने की कोशिश की। लेकिन लगा कि कांग्रेस ने इस चुनाव से आस छोड़ दी है यह एक अजीब एहसास था जैसे वे 2024 के लिए 'तैयारी' कर रहे हैं। मतदाताओं ने विपक्षी नेताओं को लोकतंत्र को बचाने के लिए एक साथ मुट्ठी थामे नहीं देखा। मोदी-शाह के अत्याचार के खिलाफ उनका आहवान खोखला और मतदाताओं से असंबद्ध लग रहा था। TINA, (there is no alternative यानी कोई विकल्प नहीं है) मतदाताओं के एक बड़े वर्ग के लिए एक प्रमुख मुद्दा था।

इस चुनाव में मीडिया की भूमिका एक और दिखावा है। रवीश कुमार को एक अपवाद के रूप में छोड़ दें तो  टेलीविजन समाचार काफी तुच्छ यानी निचले दर्जे का रहा है। आम लोगों के जीवन से संबंधित विषयों को कुछ पत्रकारों द्वारा प्रिंट या डिजिटल मीडिया में कवर किया गया। लेकिन मीडिया का एक बड़ा वर्ग केवल पेड न्यूज या राजनीतिक विज्ञापनों में रुचि रखता नज़र आया। इस चुनावी मौसम में पत्रकारिता राजस्व के मुकाबले  पिछली सीट पर नज़र आयी। स्वाभाविक रूप से, भाजपा इस खेल में आगे थी। मोदी-शाह को अन्य नेताओं की तुलना में अधिकतम कवरेज मिली और कुछ मीडिया प्लेटफ़ॉर्म सत्ताधारी पार्टी के अनौपचारिक मुखपत्र बन गए।

अंतत, 2019 का चुनाव आम नागरिकों के लिए एक बुरा सपना था। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सबसे महंगा चुनाव था। कोई लहर नहीं थी, कोई उत्साह नहीं था। यह गैर-मुद्दों पर खोखली टेलीविजन बहस से भरा हुआ चुनाव था। मोदी-शाह की जुगलबंदी जोरों पर थी, लेकिन इसमें स्वतःस्फूर्तता के बजाय यह यांत्रिक काफी था। हमें बताया गया कि पहली बार बने मतदाता और महिला मतदाता के हाथ में इस चुनाव की चाबी है। लेकिन राजनीतिक दल उनकी समस्याओं के समाधान के लिए गंभीर नहीं थे। अंतिम चरण के मतदान के बाद, इनमें से अधिकांश मतदाता राहत महसूस कर रहेते हैं। जो भी इस चुनाव को जीतेगा, भारतीय राजनीति फिर से वैसी नहीं होगी। लोकतंत्र को स्थायी नुकसान हुआ है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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