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ख़बरों के आगे-पीछे: विपक्ष से क्यों छीनी गईं संसदीय समितियां?

सरकार नहीं चाहती कि आगामी लोकसभा चुनाव से पहले कोई बड़ा राजनीतिक मुद्दा पैदा हो। अगर संवेदनशील मंत्रालयों की अध्यक्षता विपक्ष के पास रहती है, तो उसके सामने कोई गंभीर विषय आने पर उसका मुद्दा बन सकता है।
संसद भवन

लोकसभा के कार्यकाल के बीच में संसद की स्थायी समितियों में बदलाव किया गया है। आमतौर पर नई लोकसभा के गठन के समय समितियों का गठन होता है और सत्ता पक्ष व विपक्षी पार्टियों के संख्या बल के हिसाब से संसदीय समितियों की अध्यक्षता का बंटवारा होता है। इस बार लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने से डेढ़ साल पहले संसद की स्थायी समितियों का नए सिरे से बंटवारा किया गया है। ऐसा क्यों किया गया है, यह समझना मुश्किल नहीं है। केंद्र सरकार ने तमाम महत्वपूर्ण मंत्रालयों की स्थायी समितियां विपक्षी पार्टियों से ले ली है। असल में सरकार नहीं चाहती कि डेढ़ साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले कोई बड़ा राजनीतिक मुद्दा पैदा हो। अगर संवेदनशील मंत्रालयों की अध्यक्षता विपक्ष के पास रहती है तो उसके सामने कोई गंभीर विषय आने पर उसका मुद्दा बन सकता है। तभी विपक्षी पार्टियों से सभी अहम विभाग ले लिए गए हैं। शीर्ष चार मंत्रालयों- विदेश, वित्त, गृह और रक्षा मंत्रालय से जुड़ी स्थायी समितियों की अध्यक्षता अब भाजपा के पास है।

पहले गृह मंत्रालय की संसदीय समिति की अध्यक्षता कांग्रेस के पास थी और अभिषेक मनु सिघवी उसके अध्यक्ष थे। लेकिन अब कांग्रेस से यह समिति ले ली गई है। इसी तरह कांग्रेस के पास संचार और प्रौद्योगिकी मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति भी थी, जिसके अध्यक्ष शशि थरूर थे। लेकिन वह भी कांग्रेस से लेकर शिव सेना के एकनाथ शिंदे गुट को दे दी गई है। ऐसा लग रहा है कि अपने राजनीतिक मकसद को ध्यान में रखते हुए सरकार ने संसदीय समितियों का बंटवारा किया और उसमें किसी लॉजिक का ध्यान नहीं रखा। मनमाने तरीके से बंटवारा कर दिया गया। कांग्रेस के पास दोनों सदनों में 83 सांसद हैं, इसके बावजूद उसे सिर्फ एक वन व पर्यावरण की कमेटी मिली है। दोनों सदनों में 36 सांसदों वाली दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को एक भी संसदीय समिति की अध्यक्षता नहीं मिली है।

केजरीवाल की यात्रा कहां तक पहुंची?

दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने सात सितंबर को एक यात्रा शुरू की थी। लेकिन किसी को इसका अंदाजा नहीं है कि केजरीवाल की 'मेक इंडिया नंबर वन’ यात्रा का क्या हुआ? यात्रा कहां तक पहुंची? कौन यात्रा कर रहा है? या अगर यात्रा रूकी हुई है तो किस वजह से रूकी है और फिर कब शुरू होगी? सात सितंबर को हरियाणा के हिसार से यात्रा शुरू करने से एक दिन पहले यानी छह सितंबर को उन्होंने कहा था, "अगर 130 करोड़ लोग मिल जाएं तो भारत को नंबर वन देश बनने से कोई नहीं रोक सकता। यही हासिल करने के लिए मैंने ऐलान किया था कि मैं पूरे देश की यात्रा करूंगा और लोगों को इस आंदोलन से जोड़ने की कोशिश करूंगा। कल मैं हरियाणा में अपने जन्मस्थान हिसार से इस आंदोलन की शुरुआत कर रहा हूं।’’

सात सितंबर को उन्होंने हिसार में एक रैली में भाषण दिया और दिल्ली लौट आए। पिछले एक महीने में केजरीवाल सिर्फ गुजरात गए हैं, जहां उन्होंने चुनावी सभाएं और राजनीतिक स्टंट किए, लेकिन 'मेक इंडिया नंबर वन’ की यात्रा आगे नहीं बढ़ी। असल में ऐसी कोई यात्रा उनको निकालनी ही नहीं थी लेकिन चूंकि सात सितंबर से कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा शुरू हो रही थी इसलिए लोगों का ध्यान बांटने के लिए उन्होंने अपनी एक यात्रा का ऐलान कर दिया। उनका मकसद किसी तरह से मीडिया अटेंशन उधर से हटाना था।

दिल्ली के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस की बजाय आम आदमी पार्टी को तरजीह देता है क्योंकि उसकी दिल्ली और पंजाब सरकार मिल कर कई राज्य सरकारों के बराबर विज्ञापन देती हैं। इसी दम पर केजरीवाल ने सात सितंबर को यात्रा शुरू करने का ऐलान किया और जिस समय कन्याकुमारी में राहुल गांधी यात्रा से जुड़े कार्यक्रमों में हिस्सा ले रहे थे उसी समय केजरीवाल हिसार मे रैली कर रहे थे, जिसे कई चैनलों ने काफी प्रमुखता से दिखाया। लेकिन अब कोई चैनल उनसे पूछ नहीं रहा है कि उस यात्रा का क्या हुआ?

ठाकरे ने दिखाए ठेठ विपक्षी तेवर

महाराष्ट्र में शिव सेना के उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे गुट ने दशहरा के मौके पर रैली करके अपनी-अपनी ताकत दिखाई। यह असल में भाजपा के समर्थन और भाजपा के विरोध की रैली की थी। भाजपा के समर्थन से रैली कर रहे मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का पूरा ज़ोर इस बात पर था कि वे किसी तरह से अपने को बाल ठाकरे का उत्तराधिकारी साबित करें। सो, उन्होंने बार-बार इसका जिक्र किया। उन्होंने याद दिलाया कि बाल ठाकरे अयोध्या में राम मंदिर के पक्ष में थे और कहा था कि कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाना उनके जीवन का लक्ष्य है। ये दोनों काम भाजपा ने किए हैं, इसलिए वे भाजपा के साथ जाकर बाल ठाकरे की इच्छा पूरी कर रहे है।

दूसरी ओर उद्धव ठाकरे का पूरा जोर भाजपा विरोध पर था। उन्होंने राम मंदिर या कश्मीर का जिक्र नहीं किया, बल्कि पूर्वी लद्दाख में चीन द्वारा भारत की जमीन हड़पने का जिक्र किया। ठाकरे ने भाजपा पर देश की सुरक्षा से समझौता करने का आरोप लगाया और कहा है कि वह चीन की कब्जाई हुई जमीन छुड़ा ले तो वे फिर भाजपा के साथ जाने को तैयार है। उन्होंने धुर भाजपा विरोधी नेता की तरह भाषण देते हुए उत्तराखंड में अंकिता भंडारी की हत्या और बिलकिस बानो के बलात्कारियों की रिहाई का मुद्दा उठाया। कुल मिलाकर शिंदे का भाषण बाल ठाकरे के प्रति भावनात्मक लगाव दिखाने वाला था तो उद्धव का भाषण एक मंजे हुए विपक्षी नेता वाला था। ठाकरे ने इस रैली के जरिए विपक्षी नेता के तौर पर अपनी ब्रांडिंग को मजबूत किया।

बसपा के वोट पर कांग्रेस की नज

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की नज़रें बहुजन समाज पार्टी के वोट बैंक पर हैं। असल में पारंपरिक रूप से वह कांग्रेस का ही वोट है, जो बसपा के पास चला गया है और अब बसपा से भी अलग होकर इधर-उधर बिखर रहा है, क्योंकि बसपा प्रमुख मायावती राजनीति में बहुत सक्रिय नहीं हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में तो कहीं लगा ही नहीं कि पार्टी चुनाव लड़ रही है। इसका नतीजा यह हुआ कि उसे 403 विधानसभा सीटों में महज़ एक ही सीट मिली। यह हैरान करने वाली बात है कि जिस पार्टी के लोकसभा मे 10 सांसद हैं वह विधानसभा की एक सीट जीत पाई।

बहरहाल, बसपा को जिस वोट ने सत्ता दिलाई थी वह दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम का वोट था। पारंपरिक रूप से यह कांग्रेस का वोट रहा है। लेकिन बसपा के कमज़ोर होने से दलित वोट का कुछ हिस्सा भाजपा की ओर गया है तो मुस्लिम लगभग पूरी तरह से समाजवादी पार्टी के साथ और ब्राह्मण पूरी तरह से भाजपा के साथ गए हैं। कांग्रेस को ये तीनों वोट वापस हासिल करने हैं। पार्टी ने नए प्रदेश अध्यक्ष और छह प्रांतीय अध्यक्षों के जरिए ऐसा समीकरण बनाया है, जिससे इस वोट को हासिल करने में मदद मिले। कांग्रेस ने बसपा में रहे आक्रामक दलित नेता बृजलाल खाबरी को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। उनके साथ बसपा में रहे मुस्लिम नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी को पश्चिमी जोन का प्रांतीय अध्यक्ष बनाया है। बसपा के ब्राह्मण चेहरों में से एक रहे पूर्व मंत्री नकुल दुबे को अवध जोन का अध्यक्ष बनाया है। इस तरह बसपा से आए तीन नेताओं को कांग्रेस ने बड़ी जिम्मेदारी दी है और ये तीन नेता दलित, मुस्लिम व ब्राह्मण समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनके जरिए कांग्रेस जातीय समीकरण साधने का प्रयास कर रही है। कांग्रेस ने तीन और प्रांतीय अध्यक्ष बनाए हैं जो ब्राह्मण, भूमिहार और कुर्मी जाति से आते हैं।

बहुत निर्णायक और दिलचस्प होंगे उपचुनाव

छह राज्यों की सात विधानसभा सीटों पर उपचुनाव की घोषणा हो गई है। तीन नवंबर को मतदान होगा और छह नवंबर को नतीजे आएंगे। आमतौर उपचुनावों में लोगों की दिलचस्पी ज्यादा नहीं रहती है, इसीलिए उपचुनाव में मतदान का प्रतिशत भी बहुत कम रहता है। लेकिन इस बार सात में से उत्तर प्रदेश और ओडिशा की एक-एक सीट के अलावा पांच सीटें ऐसी हैं, जो आगे के चुनाव के रिहर्सल की तरह है और इनके नतीजे पर कई पार्टियों की किस्मत टिकी है। बिहार में जनता दल (यू) के भाजपा से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल के साथ सरकार बनाने के बाद पहली बार दो सीटों गोपालगंज और मोकाम पर उपचुनाव हो रहा है।

एक तरफ जदयू, राजद, कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों का मोर्चा होगा तो दूसरी ओर अकेल भाजपा होगी। इन सीटों के नतीजों से संकेत मिलेगा कि बिहार में आगे की राजनीति कैसी होगी। इसके अलावा हरियाणा की आदमपुर, तेलंगाना की मुनुगोडा और महाराष्ट्र की अंधेरी ईस्ट सीट है। अलग-अलग कारणों से इन सीटों का चुनाव भी बहुत दिलचस्प होगा। तेलंगाना की मुनुगोडा सीट कांग्रेस के विधायक के राजगोपाल रेड्डी के इस्तीफ़े से खाली हुई है। उन्हें अब भाजपा ने उम्मीदवार बनाया है। इस सीट पर कांग्रेस लड़ाई से बाहर है और सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति टीआरएस की लड़ाई भाजपा से है। अगर भाजपा यह सीट जीतती है तो अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में टीआरएस को बड़ी मुश्किलों का सामना करने पड़ेगा।

हरियाणा की आदमपुर सीट भी कांग्रेस के विधायक कुलदीप बिश्नोई के इस्तीफ़े से खाली हुई है। वे भी भाजपा मे शामिल हो गए है। यह सीट पिछले करीब छह दशक से बिश्नोई का परिवार जीत रहा है। इस बार बिश्नोई के सामने भाजपा की टिकट पर यह सीट जीतने की चुनौती है तो कांग्रेस के भूपेंदर सिंह हुड्डा को अपनी ताकत दिखानी है। आम आदमी पार्टी ने भी इसे अपने लिए हरियाणा का गेटवे कहा है। महाराष्ट्र की अंधेरी ईस्ट सीट पर शिव सेना के दोनों गुटों के बीच अस्तित्व की लड़ाई है। इसी चुनाव में असली शिव सेना का फैसला हो जाएगा।

महाराष्ट्र में शिंदे की कुर्सी निगम चुनाव तक!

महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री के रूप में एकनाथ शिंदे के तीन महीने के कार्यकाल का कोई खास रिकॉर्ड नही है, उलटे वेदांता फॉक्सकॉन प्रोजेक्ट महाराष्ट्र से गुजरात चले जाने से छवि का बड़ा नुकसान हुआ है। ऊपर से अभी तक शिव सेना पर नियंत्रण को लेकर निर्णायक तौर पर कुछ नहीं हुआ है। चुनाव आयोग को इस बारे में फैसला करना है। उसके बाद नगर निगम का चुनाव होगा। शिंदे और उनके खेमे के नेताओं को पता है कि शिंदे की कुर्सी नगर निकाय चुनावों तक है।बृहन्नमुंबई महानगरपालिका यानी बीएमसी के साथ-साथ पुणे, ठाणे जैसे बड़े शहरों के चुनाव होंगे। भाजपा को उस समय तक शिंदे की जरूरत है। असल में भाजपा को शिंदे के जरिए ही शिव सेना को निबटाना है।

मुंबई और ठाणे मे यह काम शिंदे कर सकते है। एक बार बीएमसी पर से उद्धव ठाकरे गुट का कब्जा खत्म होगा तो फिर शिव सेना का अपने पैरों पर खड़ा होना मुश्किल हो जाएगा। सो, निगम चुनाव तक शिंदे को बनाए रखना है और उसके बाद भाजपा को कमान अपने हाथ में लेनी है। वैसे अभी भी सत्ता के वास्तविक सूत्र देवेंद्र फड़नवीस के हाथों में ही है और उनके करीबियों का कहना है कि तीन से छह महीने में वे फिर से मुख्यमंत्री बन जाएंगे और शिंदे उनके डिप्टी होंगे। शिंदे भी इस बात को समझ रहे है। लेकिन उनको शिकायत नहीं है, क्योंकि वे जानते हैं कि उद्धव ठाकरे के साथ रहते वे कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाते।

थरूर को कौन वोट देगा?

कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे शशि थरूर को मीडिया में खूब समर्थन मिल रहा है। अंग्रेजी पत्रकारों के तो वे वैसे भी चहेते रहे हैं, इसलिए वे खुल कर उनके समर्थन में हैं। जिन पत्रकारों को कांग्रेस पार्टी फूटी आंख पसंद नहीं है उनको भी अचानक कांग्रेस की चिंता हो गई है और उनको लगने लगा है कि कांग्रेस को बचाने के लिए शशि थरूर का जीतना जरूरी है। कई राज्यों में, जहां थरूर गए हैं, वहां उन्हें अच्छा खासा समर्थन भी मिला है। वैसे भी कांग्रेस के चुनाव प्राधिकार की ओर से सभी प्रदेश कमेटियों को लिखा गया है कि वे अध्यक्ष पद के दोनों उम्मीदवारों के प्रति समान बरताव करेंगे और किसी के साथ पक्षपात नहीं किया जाएगा।

इस तरह कांग्रेस बड़ी शिद्दत से चुनाव को स्वतंत्र व निष्पक्ष दिखाने का प्रयास कर रही है। पर सवाल है कि थरूर को किसके वोट मिलेंगे? मीडिया के लोग चाहे उनका जितना समर्थन करे और हवाईअड्डों पर उनका चाहे जितना स्वागत हो, लेकिन उनको वोट कौन करेगा? वोट तो कांग्रेस के नौ हजार डेलिगेट्स को करना है। उनमें से कितने लोग थरूर के साथ हैं? क्या अपने गृह राज्य केरल में कांग्रेस के डेलिगेट्स का वोट थरूर को मिलेगा? इसकी संभावना नहीं के बराबर है। हर राज्य में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को पार्टी आलाकमान की इच्छा का पता है। वे जानते हैं कि मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार हैं। इसलिए हर प्रदेश कमेटी को खड़गे के लिए वोट डलवाना है। इसलिए अनुमान है कि अंग्रेजी के पत्रकारों के बनाए माहौल के बावजूद अंतिम तौर रूप से थरूर तीन-चार सौ वोट ही हासिल कर पाएंगे।

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