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प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना: एक गुमराह करने वाला वादा

इस योजना के बारे में विभिन्न चिंताएँ हैं, जिसमें राज्य द्वारा कृषि से समर्थन वापस लेने की दीर्घकालिक नव-उदारवादी रणनीति भी शामिल है।
प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना: एक गुमराह करने वाला वादा

लगभग पिछले 25 वर्षों में विभिन्न सरकारों की किसानों के प्रति उदासीनता और उनकी किसान विरोधी आर्थिक नीतियों के कारण आज भारत इस भयानक कृषि संकट का सामना कर रहा है। इस कृषि संकट का सबसे चौंकाने वाला मसला किसान आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या है। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है।
केंद्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली सरकार के पिछले पांच वर्षों के दौरान किसानों, काश्तकारों और भूमिहीन कृषि श्रमिकों की स्थिति में तेज़ी से गिरावट आई है।
2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान, भाजपा द्वारा किसानों से बहुत सारे वादे किए गए थे, लेकिन सत्ता में आने के बाद सरकार ने किसानों को संकट से बाहर निकालने में मदद करने के लिए क़तई कोई इरादे नहीं दिखाए। पद ग्रहण करने के तुरंत बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम की शुरुआत की, जिसने केंद्र के इरादे को इंगित किया कि भूमि के बेटों के हितों को साधने के बजाय वे अपने क्रोनी पूंजीवादी दोस्तों को लाभ पहुँचाने के लिए ऐसा कर रहे हैं।
देश भर के किसान संगठनों ने एकजुट होकर इस अधिनियम का विरोध किया, जिससे सरकार को इस अधिनियम को रोकना पड़ा। यह किसानों के एकजुट संघर्ष की शुरुआत थी, जो पिछले चार वर्षों के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में फैल गया। 2018 में महाराष्ट्र में अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) के नेतृत्व में किसान लॉन्ग मार्च में हज़ारों किसानों ने नासिक से मुंबई तक बड़े ही अनुशासन के साथ मार्च किया। यहाँ तक कि मुख्यधारा का मीडिया, जो अन्यथा किसानों के मुद्दों के प्रति काफ़ी असंवेदनशील है, भी इस उत्साही संघर्ष को कवर करने के लिए मजबूर था। किसान लॉन्ग मार्च ने कृषि संकट को राजनीतिक एजेंडे के केंद्र में ला खड़ा किया, इस मार्च ने समाज के अन्य वर्गों के साथ किसानों के प्रति एकजुटता को बढ़ाया।
इस नए पनपे माहौल में, तीन बड़े राज्यों– मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनावों में हार का सामना करने के बाद भाजपा सरकार ने इस मुद्दे की गंभीरता को महसूस किया। लेकिन यहाँ संवेदनशीलता का क़तई यह मतलब नहीं कि सरकार ने अपनी नीति में कोई बदलाव किया है। भाजपा सरकार का प्रयास केवल अपनी छवी सुधारने तक ही सीमित रहा। और भाजपा को इसमें काफ़ी महारत हासिल है। झूठे दावों के साथ नीतियों की उनकी पैकेजिंग आम तौर पर जनता के बीच एक भ्रम पैदा करती है कि उनके लिए बहुत कुछ किया जा रहा है।
भाजपा सरकार ने किसानों के साथ एक समान चाल चलने की कोशिश तब की जब यह दावा किया कि वे एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को लागू कर रहे हैं, जो कि एक बड़ा झूठ साबित हुआ। सरकार ने खरीफ़ फसलों के एमएसपी की घोषणा C2 + 50 (आयोग द्वारा अनुशंसित) के फ़ोर्मूले पर नहीं बल्कि A2 / FL के आधार पर की। दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। फसलों की ख़रीद के लिए कोई उचित ढांचा नहीं है और निजी खिलाड़ी केंद्र द्वारा निर्धारित एमएसपी पर फसलों की ख़रीद नहीं करते हैं।
पिछले केंद्रीय बजट में, भाजपा किसानों के लिए एक और लोकप्रिय लेकिन भ्रामक नारा लेकर आई थी और प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना (पीएमकेएसवाई) की घोषणा की, जो किसानों के लिए कुछ न्यूनतम आय सुनिश्चित करने का दावा करती है।
पीएमकेएसवाई की राजनीति के पीछे जो समझ है उसे नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के पैरोकारों द्वारा न्यूनतम आय योजनाओं के लोकप्रिय आख्यान की तर्ज़ पर प्रचारित किया गया है। भाजपा और उसके नव-उदारवादी सहयोगी दावा कर रहे हैं कि यह योजना किसानों के सामने आने वाली सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती है।
हालाँकि, अब तक यह स्पष्ट है कि यह योजना कुछ और नहीं बल्कि लोकसभा चुनावों में किसान समुदाय के वोटों को लुभाने की कोशिश है। भूमि रिकॉर्ड की बाधाओं को छोड़ दें, तो इस योजना के बारे में अन्य चिंताएँ मुहँ बाए खड़ी हैं। यह पट्टेदार किसानों और कृषि श्रमिकों को बाहर कर देती है, जो खेती करने वाले हैं, लेकिन भूमि के स्वामी नहीं हैं। यह योजना एक किसान परिवार को 500 रुपये की एक छोटी सी राशि प्रदान करती है, जो समुदाय द्वारा किए जा रहे कठिन परिश्रम को पूरी तरह से नकारती है।
हालाँकि, मुख्य चिंता नव-उदारवादी शासन की जो दीर्घकालिक रणनीति है, वह इस योजना के माध्यम से कृषि क्षेत्र से समर्थन को राज्य द्वारा वापस लेने की है। पूरी चिंता सिर्फ़ न्यूनतम आय तक सिमट कर रह गई है, जो एक किसान के परिवार का समर्थन करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती है। पूरा प्रयास यह है कि सरकार किसानों को कुछ पैसा दे कर, कहना चाहती है कि वह ग़रीबों को नकद के रूप में सब्सिडी दे रही है। यह एक कथा बनाती है कि यह पैसा सरकार द्वारा दिया जा रहा है और जो कि लोगों का अधिकार नहीं है। एक बार ऐसी राय बन जाने के बाद, अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ के नाम पर इस अल्प सहायता को रोकना भी बहुत आसान है।
हमने पहले ही शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस तरह का अनुभव देखा है। यह सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया गया तथ्य है कि शिक्षा राज्य की ज़िम्मेदारी है और जनता का अधिकार है। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद, राज्य ने शिक्षा पर ख़र्च में कटौती करने और निजी शिक्षा को बढ़ावा देने की योजनाओं को बढ़ाया है, जिसमें कहा गया कि जो लोग भुगतान कर सकते हैं, वे निजी शिक्षा का विकल्प चुन सकते हैं। इसके बाद, राज्य द्वारा निरंतर क़दम पीछे हटाते हुए शिक्षा प्रणाली में निजीकरण एक अंतर्निहित घटना बन गई।
स्वास्थ्य क्षेत्र में, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत करने के बजाय बीमा आधारित स्वस्थ्य योजना पर पूरा ज़ोर दिया जा रहा है। सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की संरचना बिगड़ रही है, जनता की सेवा के लिए बड़ी संख्या में डॉक्टरों की आवश्यकता होती है, लेकिन सरकार की नीति का पूरा ज़ोर निजी कंपनियों के माध्यम से चिकित्सा बीमा पर है। यह मॉडल केवल निजी स्वास्थ्य बीमा कंपनियों की मदद करेगा, न कि आम व्यक्ति की। यह पिछले दो वर्षों के फसल बीमा के अनुभव से साबित होता है, जहाँ निजी कंपनियाँ सार्वजनिक धन से करोड़ों रुपये का मुनाफ़ा कमा रही हैं और किसान इससे प्रताड़ित हो रहे हैं।
कृषि संकट केवल आर्थिक सवाल नहीं है। यह एक राजनीतिक सवाल भी है और दोनों में कृषि को पुनर्जीवित करने और किसानों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए नीतिगत बदलाव की ज़रूरत है। किसानों के लिए दीर्घकालिक समाधान यह है कि वे कृषि से अपनी आजीविका गरिमा के साथ अर्जित करें। इसके लिए खेती को एक लाभदायक पेशा बनाना होगा। और यह तभी लाभदायक हो सकता है जब बाज़ार में फसल की लागत उत्पादन की लागत से अधिक हो। इसका मतलब है कि क़ीमतों में उतार-चढ़ाव (आमतौर पर बड़ी पूंजी द्वारा नियंत्रित) और उचित ख़रीद प्रणाली की जांच के लिए इनपुट और फ़ील्ड पर नियंत्रण के लिए सरकारी समर्थन की आवश्यकता होती है।
सरकार चुनावों के दौरान इस योजना को लागू करने के लिए मजबूर होती है, यह सरकार की नीतियों की विफ़लता का प्रमाण है जो हमारे किसानों को विफ़ल कर रही है।
देश के भीतर और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नीतिगत ढांचे में बदलाव की ज़रूरत है। वास्तविकता यह है कि विश्व व्यापार संगठन के शासन में, हम बहुत अधिक बदलाव घरेलू स्तर पर नहीं कर सकते हैं जब तक कि हमारी सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसानों के अधिकारों की रक्षा नहीं करती है। उदाहरण के लिए, हम डब्ल्यूटीओ द्वारा निर्धारित उन सीमाओं से बंधे हैं जिनके तहत फसलों के लिए एक सीमा से अधिक किसानों को एमएसपी प्रदान नहीं कर सकते हैं, क्योंकि हम विभिन्न समझौतों के तहत बंधे हुए हैं। हमें मौजूदा प्रवृत्ति से हटकर अन्य अविकसित और विकासशील देशों को अमेरिका की अगुवाई में विकसित देशों के आधिपत्य के ख़िलाफ़ लामबंद करने की दिशा में क़दम उठाने की ज़रूरत है, जो हमें कृषि पर सब्सिडी कम करने का निर्देश देता है, लेकिन वह ख़ुद भारी सब्सिडी के साथ अपने स्वयं के कृषि क्षेत्र का समर्थन कर रहा है।


लेखक एस.एफ़.आई. के पूर्व अखिल भारतीय महासचिव हैं और अब अखिल भारतीय खेत मज़दुर संघ के साथ काम कर रहे हैं।

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