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पुलवामा हमले ने बलपूर्वक नियंत्रण की नीति की नाकामयाबी को किया उजागर

मोदी सरकार की हार्डलाइन नीति न केवल निरर्थक साबित हुई है, बल्कि तेजी से हालात के प्रति प्रतिकूल भी रही है। दरअसल, जम्मू-कश्मीर में संकट पिछले 3-4 सालों में ओर गहरा हो गया है..।
KASHMIR
Image Courtesy : Kamran Yousuf

जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में गुरुवार को हुए हमले में 40 से ज़्यादा अर्धसैनिक बल के जवानों की मौत हो गई और कई अन्य लोग घायल हो गए।

यह स्पष्ट है कि देश मोदी सरकार की कश्मीर नीतियों की वजह से बहुत भारी कीमत चुका रहा है – देश में अलग-थलग पड़े लोग राज्य के भारी दमन का शिकार हैं - और उसकी बलपूर्वक नियंत्रण की नीति तथा  पाकिस्तान के प्रति एक ही तरह की सोच या दृष्टिकोण – जिसमें वह सुरक्षा एजेंसियों को हालात से निबटने की “खुली छू” देने और उसी लहज़े में जवाब देने की बात करता है।

मोदी सरकार की हार्डलाइन नीति न केवल निरर्थक साबित हुई है, बल्कि तेजी से हालात के प्रति प्रतिकूल भी रही है। दरअसल, जम्मू-कश्मीर में संकट पिछले 3-4 सालों में ओर गहरा हो गया है, जबकि सुरक्षा एजेंसियों के पास पाकिस्तान से निबटने के लिए कोई पीछे का रास्ता अब नहीं है।

सभी संभावना के तहत, मसूद अजहर के नेतृत्व में जैश-ए-मोहम्मद पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों के संरक्षण का आनंद लेना जारी रखे हुए है। लेकिन इस्लामाबाद ने भी तेजी से जवाब दिया है कि "हम भारतीय मीडिया और सरकार में ऐसे तत्वों की किसी भी तरह की जिद को अस्वीकार करते हैं जो बिना जांच के पाकिस्तान को हमले से जोड़ना चाहते हैं।"

लेकिन लब्बोलुआब यह है कि पुलवामा में नरसंहार की भविष्यवाणी को समझा जा सकता था। पाकिस्तान की आंतरिक सुरक्षा की स्थिति में काफी सुधार हुआ है और अफगानिस्तान से सीमा पार से आतंकवाद को बढ़ावा मिला है। इन हालत में यह स्थिति को व्यवस्थित करने के जोश को और एक बेचैनी की भावना पैदा कर सकता है।

बहरहाल, एक बात का ध्यान रखना चाहिए – वह है समय। 2019 के संसदीय चुनावों के लिए अभियान तेज़ गति पकड़ रहा है। यह हमला सुनिश्चित करता है कि इस हमले के समय सरकार और पीएम मोदी बहुत खराब स्थिति में हैं।

गौरतलब है कि 18 फरवरी को इस्लामाबाद में अमेरिका और तालिबान के बीच अगले दौर की बातचीत के चार दिन पहले और हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में कुलभूषण जाधव के कथित आर एंड एडब्ल्यू ऑपरेटिव कुलभूषण जाधव के मामले पर अंतिम सुनवाई के दौरान यह संकट खड़ा हो गया है। क्या यह महज इत्तफाक  है?

पाकिस्तानी पीएम इमरान खान अमेरिकी अधिकारियों और तालिबान नेतृत्व के बीच व्यक्तिगत रूप से मध्यस्थता कर रहे हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि राष्ट्रपति ट्रम्प के लिए व्यक्तिगत रूप से जो भी नतीज़े सामने आएंगे, उसका नतीजा व्यक्तिगत होगा, जिसका अफगानिस्तान में 'अंतहीन युद्ध' समाप्त करने का निर्णय का सीधा असर 2020 में फिर से चुनाव में उतरने के लिए पड़ेगा।

मौलिक रूप से, हालांकि, पुलवामा हमले को अर्धसैनिक बलों पर निर्देशित किया गया है - भारतीय सेना पर नहीं। इस हमले का उद्देश्य हमारे सुरक्षा के रहनुमाओं को गहरी चोट पहुंचाने के लिए किया गया है और उन्हें अयोग्य और बेकार साबित करने के लिए किया गया है।

18 फरवरी को आईसीजे की सुनवाई पुलवामा हमले की पृष्ठभूमि प्रदान करती है। हेग में, भारत को सीमा पार आतंकवाद के पाकिस्तानी आरोपों से बचाव करना है। भारत को अस्थिर करने के लिए पाकिस्तान उस स्तर के आरोप लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा, जो भारत गुप्त अभियान के जरिये चला रहा है। भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के लिए इस सब में एक संदेश है।

बेशक, अंतिम विश्लेषण में, बात मोदी की मेज पर आकर रुक जाती है। समझदार बात यह होनी चाहिए कि घाटी में शांति प्रक्रिया को बाहाल करने के लिए तालमेल बनाने के लिए राजनीतिक पहल के साथ श्रीनगर में गठबंधन सरकार बनाने के लिए पीडीपी के साथ भाजपा को गठजोड़ का पालन करना चाहिए।

इसी तरह, वार्ता में पाकिस्तान को उलझाए रखने में खोने को कुछ नहीं था। अच्छे राज्य का काम होता है कि वह देश के सार्वजनिक माहौल को बिगाड़े बिना, अर्थहीन ड्रामेबाज़ी का सहारा लेने के बजाय मतभेदों और विवादों के मुख्य मुद्दों पर अपने विरोधियों से बात करने को तरजीह देता है।

तर्क यह है कि, पाकिस्तान के साथ हमारे संबंधों के लिए एक नया अध्याय खोलने के लिए स्थितियां अनुकूल थीं। इमरान खान के चुनाव और उनके द्वारा (साथ ही सेना प्रमुख क़मर बाजवा) द्वारा दिए गए रुझान ने अवसर की एक खिड़की खोली थी।

लेकिन हमारी सुरक्षा एजेंसियां, अपनी उलझी हुई शून्य मानसिकता के साथ, जिज्ञासु होने और इमरान खान के साथ बात नही करने के लिए बेकार कारणों की तलाश करना पसंद करती रही – और कहा गया कि वह सेना का एक रबर स्टैम्प है, और वह इस्लामी समूहों के साथ मिला हुआ है, कि वह इसी राह का एक पक्षी है वगैरह। मोदी कर सकते थे – और ऐसा होना चाहिए था – इस पर जोर दिया गया है।

अंत में, यह निष्कर्ष अपरिहार्य हो जाता है कि बलपूर्वक नीति में लचीलेपन की भारत-पाकिस्तान को बुरी तरह से आवश्यकता है। इस प्राचीन टकराव को विराम देने के लिए यह जरूरी है - और साथ ही राडार के नीचे जाने वाले आतंकियों को निर्णायक रूप से समाप्त किया जाना चाहिए। इसमें आसमान में भीड़ बढ़ाने वाले बाजों पर लगाम लगाने के लिए राजकीय दॄष्टि शामिल है। बेशक, सबसे आसान बात हमेशा अंध राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना न होता है।

अफगान में जब सत्ता स्थानांतरण हो रहा है, एक नई शुरुआत संभव है। विचार की बात है कि मसूद अजहर, जो कि कंधार में हर समय अलग अंदाज़ में रहता है, ने 20 साल की अनुपस्थिति के बाद घाटी में दखल दी है।

और इस्लामाबाद में गंभीर वार्ता शुरू होने से ठीक 4 दिन पहले पुलवामा हमला हुआ, आखिरकार, तालिबान को मुख्यधारा की राजनीतिक ताकत के रूप में फिर से स्थापित करने के लिए यह वार्ता हो रही है और उधर भारत हेग में अपनी प्रतिष्ठा का बचाव कर रहा है। हमें हालात का जायजा सही तरीके से लेना चाहिए।

इस बीच, राजनीतिक दृष्टि से, पुलवामा में अनंत त्रासदी के सामने, सरकार को जम्मू-कश्मीर में संकट के समाधान के लिए देश में आम सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए, जो आतंकवाद का मूल कारण है।

लेकिन मोदी सरकार से इस तरह की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही हो सकती है, जिसका ध्यान राजनीतिक विरोधियों को नीचा दिखाने और उन्हें परेशान करने, या राष्ट्रीय राय का ध्रुवीकरण करने पर ज्यादा है।

 

(प्रथम प्रकाशन : 15 फरवरी, 2019, सौजन्य: Indian Punchline )

 

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