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यूपी चुनाव: सोनभद्र के गांवों में घातक मलेरिया से 40 से ज़्यादा लोगों की मौत, मगर यहां के चुनाव में स्वास्थ्य सेवा कोई मुद्दा नहीं

हाल ही में हुई इन मौतों और बेबसी की यह गाथा भी सरकार की अंतरात्मा को नहीं झकझोर पा रही है।
Sonbhadra District

सोनभद्र (उत्तर प्रदेश): 23 साल की प्रतिभा और 25 साल के अजय कुमार प्रजापति 23 अप्रैल, 2017 को वैवाहिक बंधन में बंध गये थे। इस दंपति से दो बच्चे पैदा हुए। एक की उम्र तीन साल है और दूसरा महज़ छह महीने का है। अगस्त 2021 में प्रतिभा को बुखार हो गया। दवा लेने के बावजूद बुखार कम होने का नाम ले रहा था। वह उम्मीद से थीं और उस समय सात महीने का बच्चा उनके गर्भ में पल रहा था।

वह 15 दिनों से किसी प्राइवेट अस्पताल में भर्ती थीं। टेस्ट में पीएफ़ पॉज़िटिव (प्लाज्मोडियम फ़ाल्सीपेरम,यानी मलेरिया के सबसे घातक रूप का कारण बनने वाला एक परजीवी) पायी गयीं। दूसरी बार उनकी हालत बिगड़ने पर उन्हें स्थानीय हिंडाल्को अस्पताल ले जाया गया,जहां डॉक्टरों ने उन्हें रॉबर्ट्सगंज (जिसे सोनभद्र भी कहा जाता है) के ज़िला अस्पताल में रेफ़र कर दिया। वहां उन्होंने अपने बच्चे को जन्म दिया। प्रसव के तुरंत बाद उन्हें फिर से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के सर सुंदरलाल अस्पताल में रेफ़र कर दिया गया।

वहां भर्ती होने के चौबीस घंटे बाद,यानी 3 अक्टूबर, 2021 को उनकी मृत्यु हो गयी। उनके मृत्यु प्रमाण पत्र में इस बात का ज़िक़्र किया गया है कि उनकी मौत सीवीए (सेरेब्रोवास्कुलर,यानी दिमाग़ और ख़ून की नली से जुड़ी दुर्घटना,यानी कि कुछ मस्तिष्क कोशिकाओं की अचानक मर जाने के चलते) पोस्टपार्टम सेप्सिस (जो तब होता है, जब किसी महिला के बच्चा पैदा करने के बाद बैक्टीरिया उसके गर्भाशय और आसपास के क्षेत्र को संक्रमित कर देता है) और कार्डियोपल्मोनरी अरेस्ट (अचानक दिल का काम करना बंद, श्वास और चेतना का ख़त्म होना) के कारण हुई।

ग़ौरतलब है कि मृत्यु प्रमाण पत्र के अलावे उनका कोई भी मेडिकल रिकॉर्ड उनके परिवार को नहीं सौंपा गया।

एक स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में दोपहर का भोजन बनाने वाली प्रतिभा की सास फूलमती अब उनके बच्चे की देखभाल कर रही हैं।

अजय की मां फूलमती अपने उस पोते के साथ,जिनकी मां प्रतिभा का उनके जन्म के तुरंत बाद  ही मौत हो गयी थी। 

सोनभद्र ज़िले की दुधी तहसील (उप-ज़िला) के म्योरपुर ब्लॉक के मरकारा गांव के निवासी अजय ने न्यूज़क्लिक को बताया," मैंने हर उतार-चढ़ाव में हमेशा मेरे साथ खड़ी रहने वाली सिर्फ़ अपना जीवन साथी ही नहीं खोया,बल्कि, बेहद छोटी उम्र में मेरे बच्चों ने भी अपनी मां को खो दिया। मैंने उसे बचाने के लिए जो कुछ भी मुमिकन था,सब किया, फिर भी बचा नहीं पाया,अब मुझे नहीं पता कि मेरे बच्चे की परवरिश कैसे होगी।”

इलाज पर 1.2 लाख रुपये खर्च हो जाने के कारण उन पर कर्ज़ का बोझ है।यह क़र्ज़ उन्होंने एक निजी साहूकार से तीन किस्तों में उधार लिया था।

उनके बच्चे इतना कुपोषित और कम वज़न वाले हैं कि उसका टीकाकरण भी नहीं हो सका। मकरा पब्लिक हेल्थ सेंटर (PHC) में काम करने वाली एक सहायक नर्स दाई (ANM) पार्वती ने कहा, "मैंने उनकी दादी को सुझाव दिया है कि वे उन्हें गाय का दूध पिलायें, लेकिन वे दो कारणों से ऐसा कर पाने में असमर्थ हैं: एक तो उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और दूसरा इस इलाक़े में गाय के दूध की कमी है।"

अजय की परेशानी यहीं ख़त्म नहीं होती। उनकी पत्नी प्रतिभा की मौत के पंद्रह दिन बाद, उनकी 14 महीने की भतीजी (बहन की बेटी), सरिता की भी 18 सितंबर, 2021 को मौत हो गयी। वह भी टेस्ट में घातक पीएफ़ को लेकर पोज़िटिव पायी गयी थीं। बुखार के बढ़ जाने के बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया था। लेकिन,अस्पताल ले जाते हुए रास्ते में ही उसकी मौत हो गयी थी।

कहा जाता है कि सरिता को स्तनपान कराने वाली अपनी 23 साल की मां कुसुम से संक्रमण हो गया था, जो कि मलेरिया परजीवी के परीक्षण में पोज़िटिव पायी गयी थीं।। जब उनकी बेटी की मौत हो गयी,तब जाकर उन्हें रॉबर्ट्सगंज के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया और उन्हें पांच यूनिट प्लेटलेट्स और दो यूनिट ख़ून चढ़ाया गया।

तीन साल के बेटे की इस मां ने पहले एक 14 महीने के बच्चे को इस बीमारी से खो दिया था।

औद्योगिक नगर रेणुकूट से सटे सोनभद्र के म्योरपुर प्रखंड के सिंदूर मकरा और पाटी ग्राम पंचायतों की कम से कम छह बस्तियों (मकारा, गढ़ा, बिजुल झरिया, अघरिया दीध बोधराहवां, बन पैसा) में यह खतरनाक बीमारी क़हर बरपा रही है।

तक़रीबन 6,000 वाली कुल आबादी की इन बस्तियों में पिछले दो महीनों में कम से कम 40 मौतें हुई हैं।

अनुसूचित जनजातियों (ST) में सूचीबद्ध गोंड जनजाति यहां की आबादी का बड़ा हिस्सा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक़, सोनभद्र की कुल आबादी में क़रीब 23% संख्या अनुसूचित जाति की है और 21% अनुसूचित जनजाति की है।

इन गांवों में प्रजापति और पटेल जैसी अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) के लोग भी रहते हैं, जिनके हालात बेहतर नहीं हैं।

हाल ही में हुई इन मौतों और इस बेबसी की गाथा भी सरकार की अंतरात्मा को नहीं झकझोर पा रही है। स्थानीय प्रशासन या सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए कोई बुनियादी ढांचा या अतिरिक्त सुविधायें भी नहीं बढ़ायी हैं, ताकि यह स्थानीय बीमारी फिर से वापस नहीं लौट सके।

अजय के घर के पास ही स्थित मिट्टी, भूसे और नरकट से बने फूस के जर्जर घर में 47 साल की अमरावती और 65 साल की मांघी रहती हैं।बहू और सास,दोनों ने अपने पति को इस बीमारी से खो दिया है। परिवार में अब कोई पुरुष सदस्य नहीं बचा है, जिन पर ये दोनों ही महिलायें आम तौर पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर थीं।

अमरावती के पति राम प्यारे (48) की 15 अगस्त, 2021 को मौत हो गयी थी। उन्हें बुखार और पेट दर्द हो रहा था। दवा लेने के बावजूद उनके शरीर का तापमान और बदन में होने वाला दर्द कम नहीं हो पा रहा था,इसके बाद उन्हें सोनभद्र के ज़िला अस्पताल ले जाया गया, जहां उन्हें भर्ती करा दिया गया और एक हफ़्ते तक उनका इलाज चला। कई मेडिकल जांच से गुज़रने के बाद भी डॉक्टर इस बीमारी के बारे में पता नहीं लगा सके।

इसके बाद,उन्हें वाराणसी के बीएचयू के मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में रेफ़र कर दिया गया। लेकिन, इससे पहले कि उन्हें स्थानांतरित किया जाता, उनकी मौत हो गयी। बताया गया कि वह टाइफ़ाइड और मलेरिया,दोनों से पीड़ित थे।

प्यारे की मौत के पांच दिन बाद उनके पिता राम बरन (70) की भी पिछले साल 20 अगस्त को दो दिनों तक बुखार से पीड़ित रहने के बाद मलेरिया से मौत हो गयी थी। बेटे के इलाज के चलते पहले से ही घोर ग़रीबी और आर्थिक तंगी के कारण राम बरन को किसी अस्पताल में नहीं ले जाया जा सका था।

अमरावती (बायें) अपनी सास मांघी (दायें) के साथ। दोनों ने मलेरिया से होने वाली बीमारी के कारण अपने-अपने पति खो दिये हैं।

अब अमरावती को अपने इकलौते नाबालिग़ बेटे और उस बीमार सास का भरण-पोषण करना है, जो ठीक से चल भी नहीं पाती हैं। मुश्किल से उन्हें रोज़ी-रोटी के लिए कोई काम मिल पाता है। वह कहती हैं, "ना पुछिन साहिब कि परिवार कैसे चलत है (हमसे यह मत पूछिए साहब कि परिवार कैसे चल पा रहा है)।"

उनके आसपास के लोग इनके परिवार को चलाने के लिए आर्थिक मदद करते रहते हैं।उन्होंने बताया, “हमें सरकार से बस मुफ़्त राशन मिलता है और कुछ नहीं। कोई वृद्धा पेंशन नहीं, कोई विधवा पेंशन नहीं मिलती।”

इन छह बस्तियों के निवासियों ने न्यूज़क्लिक को बताया कि उनमें से ज़्यादतर (क़रीब 90%) उस प्रधान मंत्री आवास योजना (PMAY) से वंचित हैं, जिसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को एक पक्के घर के निर्माण के लिए 1.30 लाख रुपये की राशि दी जाती है। । उनके पास रोज़गार का कोई विश्वसनीय स्रोत नहीं है। उन्हें महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी (MGNREGA) अधिनियम, 2005 के तहत "किसी दूज के चांद की तरह" काम दे दिया जाता है, लेकिन उन्हें महीनों तक या एक साल तक भी अपने किये हुए काम के लिए भुगतान नहीं किया जाता है।

इन गांवों के लिए मकरा स्थित एकलौता प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है।यहां अस्पताल के चलने के दौरान जब न्यूज़क्लिक अस्पताल पहुंचा,तब वहां कोई डॉक्टर उपलब्ध नहीं था। स्वास्थ्य केंद्र पर महज़ दो कर्मचारी और एक एएनएम (पार्वती) मौजूद थीं, जिन्होंने कहा कि "डॉक्टर साहब अभी-अभी गये हैं।"

अधिकारियों में से एक ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि यह पीएचसी एक बड़े इलाक़े की ज़रूरत को पूरा करता है, लेकिन यहां महज़ एक एमबीबीएस डॉक्टर को काम करने के लिए भेजा गया है।

यह सूबा 2,277 डॉक्टरों की कमी से जूझ रहा है। इसके 942 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHCs) बिजली, पानी की नियमित आपूर्ति की कमी और हर मौसम में गाड़ी से पहुंच पाने वाली सड़क के बिना ही काम करना जारी रखे हुए हैं। सूबे में देश के बाक़ी पीएचसी के मुक़ाबले मरीज़-डॉक्टर का अनुपात सबसे निम्न स्थिति में है और बुनियादी ढांचे की हालत सबसे ख़राब है।

मकरा से क़रीब दो किलोमीटर दूर गढ़ा गांव है। इस गांव के 70 साल के उदय राज गौड़ की 10 महीने पहले मौत हो गयी थी। बुखार होने के ठीक तीन दिन बाद ही वह चल बसे थे। टेस्ट में उन्हें भी मलेरिया परजीवी को लेकर पोज़िटिव भी पाया गया था।

कल्पा ने बताया,“प्रधानों (ग्राम प्रधानों) का चुनाव चल रहा था, और वह उस प्रचार में सक्रिय रूप से लगे हुए थे। एक दिन जब वह क्षेत्र में चुनाव प्रचार से लौटे, तो उन्होंने बुखार, सांस फूलने और छाती के जकड़ने की शिकायत की। हम उन्हें हिंडाल्को अस्पताल ले गये,लेकिन डॉक्टरों ने उन्हें भर्ती करने से इनकार कर दिया। उन्हें उस प्राइवेट अस्पताल या ज़िला अस्पताल ले जाने के लिए हमारे पास  संसाधन नहीं थे, जो यहां से क़रीब 50 किलोमीटर दूर है; और इसलिए, हमने झोलाछाप डॉक्टरों से इलाज कराने की सोची।उस झोलाछाप डॉक्टर ने भी उनकी गंभीर स्थिति को देखते हुए उनका इलाज करने से इनकार कर दिया। इसके बाद हम उन्हें बीएचयू के मेडिकल कॉलेज ले जाने की योजना बना रहे थे,लेकिन इसी बीच वह चल बसे।”  

दो महीने भी नहीं बीते थे कि उदय के 30 साल के बेटे-राम चरण की मलेरिया से मौत हो गयी। उनके चार नाबालिग़ बच्चे हैं। वह एक महीने से अस्वस्थ थे। उनके परिवार के सदस्यों ने कहा, "वह इतना कमज़ोर हो गये था कि उन्होंने अपनी मौत से कुछ दिन पहले ही हर तरह के काम-काज करना बंद कर दिया था।"

परिवार के पास दो भाइयों के बीच 1.5 बीघा (0.92 एकड़) ज़मीन है।

इन गांवों के लोगों के पास बहुत छोटी जोत है। पानी की कमी वाला क्षेत्र होने के चलते ये मुख्य रूप से बारिश पर निर्भर होते हैं। भूजल के निम्न स्तर (200-250 फ़ीट की गहराई पर होने) के कारण कुओं का इस्तेमाल करके सिंचाई कर पाना मुमकिन नहीं है। इतनी गहराई से पानी को पंप कर पाना भी महंगा है और यहां के ज़्यादतर निवासियों के लिए इतना ख़र्च कर पाना भी संभव नहीं है।

यहां मुख्य रूप से चना, अरहर, मसूर, सरसों, प्याज़ और गेहूं जैसे घरेलू इस्तेमाल की फ़सलें ही उगायी जाती हैं। यहां के निवासी व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए खेती-बाड़ी नहीं करते,क्योंकि पानी की कमी वाले इस क्षेत्र में उपज बहुत कम होती है।

दो पंचायतों के तक़रीबन 5,000 घरों में से कुल 250 घर ही पक्के मकानों वाले हैं,जिनमें से 100 घर हाल ही में पीएमवाई के तहत बनाये गये हैं। शेष 150 आवासों का निर्माण इंदिरा आवास योजना के तहत किया गया है।

पिछले साल नवंबर में जब मलेरिया से हुई मौतों की ख़बरें सुर्खियां बनी थीं,तब जाकर ज़िला प्रशासन की नींद खुल पायी थी। उस समय तमाम बड़े अधिकारियों ने इन प्रभावित गांवों का दौरा किया था। लेकिन, उन दौरों के महीनों बीत जाने के बाद भी आने वाले दिनों में इस तरह की त्रासदी न हो,इसके लिए कुछ भी नहीं किया गया है।

ओबरा (आरक्षित) निर्वाचन क्षेत्र (जिसके तहत ये बस्तियां आती हैं) की नुमाइंदगी करने वाले भाजपा विधायक और मंत्री संजीव कुमार गोंड भी इन गांवों के दौरे किये थे और इन मौतों के लिए दूषित पेयजल को ज़िम्मेदार ठहराया था।

ग्रामीणों को कुछ दिनों तक पानी के टैंकरों से पेयजल की आपूर्ति की गयी थी। उनसे यह वादा भी किया गया था कि इन गांवों में पानी को साफ़ करने वाले संयत्र लगाये जायेंगे, लेकिन अब तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है। यहां तक कि पानी की जो तत्काल आपूर्ति की जा रही थी,उसे भी बंद कर दिया गया है। ग्रामीण एक बार फिर से वही "दूषित" पानी पी रहे हैं, जो उन्हें इस इलाक़े के खुले कुओं से मिलता है।

राज्य सरकार में समाज कल्याण मंत्री गोंड ने भी वादा किया था कि मृतकों के परिवारों को कुछ मुआवज़े  मिलेंगे, लेकिन यह वादा भी एक जुमला ही साबित हुआ है।

इन प्रभावित गांवों के मौजूदा हालात के बारे में बात करते हुए सोनभद्र के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ नेम सिंह का कहना है, “हम लगातार जागरूकता अभियान चला रहे हैं। मलेरिया से होने वाली मौतों में काफ़ी कमी आयी है। लापरवाही के दोषी पाये गये अफ़सरों को इन इलाक़ों से हटा दिया गया है और उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया है।

उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य विभाग इन प्रभावित इलाक़ों में लगातार फ़ॉगिंग यानी दवाओं के धुयें छोड़ रहे हैं।

वह बताते हैं,“पानी के नमूने भी ले लिये  गये हैं। इन इलाक़ों में हो रही हर एक मौत का ऑडिट किया जा रहा है। हम किसी को सरकारी अस्पतालों से ही इलाज कराने के लिए मजबूर तो नहीं कर सकते, लेकिन हम लगातार लोगों को सरकारी अस्पतालों में होन वाले अच्छे और मुफ़्त इलाज को लेकर जागरूक कर रहे हैं।”

लेकिन,ग्रामीणों ने इन दावों का खंडन करते हुए बताया कि पिछले साल नवंबर में महज़ एक बार फ़ॉगिंग की गयी थी। उन्होंने बतौर सुबूत ज़्यादतर घरों की दीवारों पर लिखे गये फ़ॉगिंग के विवरण को भी दिखाया।

दुखद है कि मौजूदा चुनावों में यह कोई मुद्दा ही नहीं है। राजनीतिक दलों के नुमाइंदे ग्रामीणों से संपर्क कर कर रहे हैं और उन्हें इस मसले को लेकर भरोसा भी दिला रहे हैं। हालांकि, भारतीय जनता पार्टी (BJP) के झंडे इन गांवों के लगभग हर घर में फ़हराते हुए दिख जाना एक आम दृश्य है।लेकिन,जब मतदाताओं से बात होती है,तो वे सत्ताधारी पार्टी को अपना समर्थन देते नहीं दिखते हैं।

ओबरा निर्वाचन क्षेत्र पर एक नजऱ

सोनभद्र ज़िले के तहत आने वाला ओबरा, उत्तर प्रदेश के 403 विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों में से एक है। यहां आख़िरी चरण में आज सात मार्च को मतदान हो रहा है।

2017 में ओबरा विधानसभा सीट पर 3,07,992 मतदाताओं के नाम दर्ज थे। इनमें से 1,69,473 पुरुष और 1,38,519 महिला मतदाता थे। नोटा पर 1.4 फ़ीसदी मत पड़े थे।

ओबरा विधानसभा क्षेत्र की इस सीट से साल 2017 में 11 उम्मीदवार मैदान में थे। ओबरा उन 312 सीटों में से एक थी,जिस पर बीजेपी ने दर्ज की थी। भाजपा के संजीव कुमार ने एकतरफ़ा मुकाबले में समाजवादी पार्टी के रवि गोंड को 44,269 मतों के भारी अंतर से हराकर आराम से चुनाव जीत लिया था।

शीर्ष तीन उम्मीदवारों के बीच 88.9% मतों का विभाजन हुआ था। बीजेपी को कुल 78,058 वोट मिले थे, जबकि सपा को 33,789 वोट मिले थे। बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार वीरेंद्र प्रताप सिंह 29,113 मतों के साथ तीसरे स्थान पर रहे थे। शीर्ष तीन पार्टियों को क्रमश: 49.2%, 21.3% और 18.4% वोट मिले थे।

बहुजन समाज पार्टी के सुनील कुमार ने 2012 के चुनाव में भाजपा के देवेंद्र प्रसाद शास्त्री को 7,060 मतों से हरा दिया था।

इस बार भाजपा और सपा के बीच एक ज़बरदस्त मुक़ाबला है।लेकिन इस मुक़ाबले में किसकी जीत होगी,इसे लेकर पर्यवेक्षकों की स्पष्ट राय नहीं हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

UP Polls: Over 40 Lives Recently Lost to Deadly Malaria, Healthcare Not a Poll Plank in Sonbhadra Villages

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