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रफ़ाल डील: क्या सरकारों के बीच सरकारी समझौता एक छलावा है?

लीक हुए सभी सरकारी दस्तावेजों से पता चलता है कि जिन्हें इस क्षेत्र के विशेषज्ञता नहीं है उन राजनेताओं के एक समूह ने देश के वित्तीय और कानूनी हितों से समझौता किया और रक्षा मंत्रालय द्वारा चिह्नित चिंताओं को अनदेखा कर दिया।
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जैसा कि विवादास्पद रफ़ाल सौदे से आए दिन कंकालों का निकलना जारी हैं, लीक हुए सरकारी सभी दस्तावेजों से पता चलता है कि तथाकथित अंतर-सरकारी समझौता (आईजीए) जो कि नरेंद्र मोदी सरकार ने फ्रांस के साथ बडी़ ही तेज़ी में 36 लड़ाकू विमानों की खरीद के लिए हस्ताक्षर किया वह एक छलावा ही लगता है। दस्तावेजों से पता चलता है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने भारतीय हितों के खिलाफ काम किया और यह समझौता फ्रांस के पक्ष में बड़े मुनाफे के साथ हुआ। कई विवादास्पद मुद्दे  इसमें शामिल हैं, जैसे कि फ्रांसीसी कंपनियों डसॉल्ट और एमबीडीए को संप्रभु  गारंटी/बैंक गारंटी, भ्रष्टाचार विरोधी प्रावधान में रियायत प्रदान करना और यह भी कटु सत्य है कि इसे प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता वाली समिति के अलावा किसी और ने मंजूरी नहीं दी थी।

ऐसे समय में जब मोदी सरकार रफ़ाल सौदे से जनता का ध्यान हटाने की कोशिश कर रही है, सार्वजनिक क्षेत्र में पोल खोल रहे सभी सरकारी दस्तावेजों से पता चलता है कि नेताओं के एक समूह जिन्हें  रक्षा क्षेत्र के बारे में कोई विशेषता हासिल नहीं है, सिर्फ कैबिनेट मंत्री होने और और मोदी की अध्यक्षता वाली कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (CCS) के सदस्य होने के नाते उन्होंने प्रधानमंत्री के एक व्यापारी मित्र का समर्थन किया और भारतीय हितों को ताक पर रख दिया।

उदाहरण के लिए, वायुसेना मुख्यालय से मिला रक्षा मंत्रालय का एक दस्तावेज। जिससे यह साफ़ तौर पर इंगित होता है  IGA के कुछ नियमों और शर्तों में परेशानी है, जो मंत्रियों की नज़र में असमान्य है, जिसकी वजह से यह समझौता दो सरकारों के बीच हुए समझौते की तरह नहीं दिखता है. 

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दस्तावेज़ कहता है कि: "36 रफ़ाल लड़ाकू विमानों की खरीद के लिए प्रस्तावित सरकारों के बीच (IGA) समझौते की अजीबोगरीब प्रकृति के संदर्भ में, कुछ मुद्दे बातचीत के दौरान उभरे, जिसमें फ्रांसीसी औद्योगिक आपूर्तिकर्ताओं और फ्रांसीसी सरकार द्वारा अधिकारों और दायित्वों के हस्तांतरण के मुद्दे भी शामिल हैं जिसके तहत  फ्रांसीसी औद्योगिक आपूर्तिकर्ता, फ्रांसीसी पक्ष आदि संप्रभु / सरकारी गारंटी, आदि प्रदान करने के लिए सहमत नहीं हैं, इसलिए इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए इसे कानून और न्याय मंत्रालय को विचार करने के लिए भेज़ दिया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह समझौता दो सरकारों के बीच हो रहे प्रस्तावित समझौते के चरित्र बनाए रख रहा है या नहीं और क्या यह समझौता भारत सरकार के कानूनी और वित्तीय हितों को पर्याप्त रूप से संरक्षित कर रहा है या नहीं।”

यहां तीन बिंदु प्रमुख हैं, फ्रांसीसी सरकार द्वारा फ्रांसीसी औद्योगिक आपूर्तिकर्ताओं को अधिकारों और दायित्वों के हस्तांतरण का मुद्दा, भारत सरकार और फ्रांसीसी औद्योगिक आपूर्तिकर्ताओं के बीच मध्यस्थता के दौरान और फ्रांसीसी पक्ष संप्रभु / सरकारी गारंटी प्रदान करने के लिए सहमत नहीं हैं। एयर फोर्स मुख्यालय का स्पष्ट मत था कि ये समझौते सरकार और सरकार के बीच समझौते के चरित्र के साथ-साथ भारत के वित्तीय और कानूनी हित को भी प्रभावित कर सकते हैं।

एयर फोर्स मुख्यालय के नोट में कानून और न्याय मंत्रालय (MoL & J) के दो पुराने नोट (228 और 229) भी शामिल हैं। नोट 228 पर टी के मलिक, उप कानूनी सलाहकार, MoL & J (दिनांक 19/12/2015) द्वारा हस्ताक्षरित किया गया था और नोट 229 पर टी. एन. तिवारी, अतिरिक्त सचिव, MoL & J (दिनांक 11/12/15) द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे, जिन्होंने कुछ बदलावों का सुझाव दिया था। यह भी सुझाव दिया था कि "हालांकि, जैसा कि नोट 231 के पैरा 3 (एनक्ल 15 ए पर प्रतिलिपि) में कहा गया है, MoL & J ने विशेष रूप से फ्रांसीसी पक्ष द्वारा प्रस्तावित प्रावधानों से प्रभावित होने वाले जी-टू-जी चरित्र के मुद्दे पर प्रतिक्रिया नहीं दी है"। और एयर मुख्यालय के अनुसार, IGA के G से G (दो सरकारों के बीच समझौता की मध्यस्ता)चरित्र को प्रभावित करने वाले मुद्दे समान थे।

ज्यादातर मामलों में, मलिक ने सरकारी दृष्टिकोण का पक्ष लिया और सुझाव दिया कि संबंधित विभागों / मंत्रालयों से उचित स्तरों पर अनुमोदन लेना चाहिए। लेकिन संप्रभु गारंटी के मामले में वह भी चाहते थे कि सरकार सतर्क रहे।

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नोट में, मलिक ने लिखा: “फ्रांसीसी पक्ष किसी भी बैंक गारंटी देने के लिए सहमत नहीं हुआ है। इसके बजाय फ्रांसीसी पक्ष ने सूचित किया था कि संप्रभु गारंटी के बदले आश्वासन देने के लिए फ्रांसीसी प्रधानमंत्री का एक ‘सांत्वनापत्र’ दिया जाएगा। अनुबंध में बिना विमान की आपूर्ति के बहुत बड़ा भुगतान शामिल है जिसे अग्रिम भुगतान माना जाएगा और इसके लिए पर्याप्त सरकार / संप्रभु गारंटी का होना आवश्यक है। ”बाद में, उन्होंने सुझाव दिया कि संबंधित मंत्रालय को अनुबंध के मानक प्रावधानों के संदर्भ और अनुबंध दस्तावेज़ (रक्षा खरीद नीति 2013) और वित्त मंत्रालय को ध्यान में के रख कर “सचेत निर्णय” लेना चाहिए। लेकिन, मलिक द्वारा उठाए गए सभी बिंदुओं पर तिवारी का एक ही अलग दृष्टिकोण था, वे केवल संप्रभु / बैंक गारंटी क्लॉज पर उनके साथ सहमत थे।

नोट में, तिवारी ने समझौते में खामियों को सूचीबद्ध किया है। उन्होंने इसका उल्लेख करते हुए नोट किया: कि अनुच्छेद 4.3 सहित अनुच्छेद 4 “अनुच्छेद 3.1 के कार्यान्वयन पर खामोश है और अनुच्छेद 3.2 औद्योगिक आपूर्तिकर्ताओं के आपूर्ति बाद के दायित्वों के कार्यान्वयन के लिए केवल फ्रेंच पार्टी के प्रावधान को प्रदान करता है। अनुच्छेद 4.4, अन्य बातों के साथ, इसमें यह प्रावधान है कि आपूर्ति प्रोटोकॉल के तहत औद्योगिक आपूर्तिकर्ताओं सामग्री के उल्लंघन के अपने दायित्वों के मामले में, भारतीय पक्ष को ऐसे औद्योगिक आपूर्तिकर्ता (ओं) के साथ मध्यस्थता करने का अधिकार मिला है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तावित कन्वेंशन डॉक्यूमेंट (IGA के आर्टिकल 4.1 में निर्दिष्ट) यह निर्धारित कर सकता है कि फ्रांसीसी पार्टी उपकरण और संबंधित औद्योगिक सेवाएं (36 रफ़ाल विमान सहित, जिसके लिए भारत सरकार एक पार्टी नहीं है) प्रदान करने के लिए स्थानांतरण दायित्व निभाएगी। अपने दायित्वों के औद्योगिक आपूर्तिकर्ताओं द्वारा सामग्री के उल्लंघन के मामले में मध्यस्थता के अधिकार को लागू करने के लिए, भारतीय पक्ष को कन्वेंशन दस्तावेज़ के साथ एक हस्ताक्षरकर्ता या एक अनुरूप पार्टी होना चाहिए। इस मामले में, भारतीय पार्टी (जीओआई) कन्वेंशन डॉक्यूमेंट का पक्ष नहीं है, जिसके तहत फ्रांसीसी पार्टी की बाध्यता उपकरण (36 राफेल विमान सहित) प्रदान करने की बाध्यता है, जो उनके लिए प्रस्तावित विशिष्ट विनिर्देशों, गुणवत्ता और समय रेखा के अनुसार है। IGA के अनुच्छेद 4.1 के तहत फ्रांसीसी आपूर्तिकर्ताओं द्वारा औद्योगिक आपूर्तिकर्ताओं को हस्तांतरित किया जा सकता है, और अपने दायित्वों के औद्योगिक आपूर्तिकर्ताओं द्वारा सामग्री के उल्लंघन के मामले में, भारतीय पार्टी मध्यस्थता की कार्यवाही में आने के अधिकार को लागू कर सकती है अगर यह (भारतीय पार्टी) ) फ्रांसीसी पार्टी और औद्योगिक आपूर्तिकर्ताओं के बीच प्रस्तावित कंवेंशन दस्तावेज के लिए एक हस्ताक्षरकर्ता या पुष्टि करने वाली पार्टी भी है। फ्रांसीसी पक्ष के अनुच्छेद 3.1 के संबंध में फ्रांसीसी पक्ष और उसके औद्योगिक आपूर्तिकर्ताओं द्वारा भारतीय पक्ष के पक्ष में एक संयुक्त और कई देयता खंडों पर विचार किया जा सकता है;
तिवारी स्पष्ट करते हैं कि हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत समझौते के अनुसार, यदि फ्रांसीसी कंपनियां डिलीवरी पर लड़खड़ाती हैं, तो भारत सरकार को उन कंपनियों के खिलाफ कानूनी उपाय करने होंगे, क्योंकि फ्रांसीसी सरकार इसमें शामिल नहीं है।

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मलिक के विपरीत, तिवारी कहते हैं कि भारत सरकार को फ्रांसीसी सरकार को संप्रभु गारंटी के लिए राजी करना चाहिए। नोट में, वह लिखते हैं: “नोट 228 के पैरा 4 (डी) को ध्यान में रखते हुए, उपकरण और सेवाओं की वास्तविक डिलीवरी से पहले खरीद मूल्य के विशाल भुगतान मूल्य शामिल अनुबंध के मद्देनजर सरकारी गारंटी या संप्रभु गारंटी का अनुरोध किया जाना चाहिए। भारतीय पार्टी को, जिसे डी-फैक्टो का मतलब अग्रिम भुगतान है और जैसे कि प्रशासनिक विभाग उचित स्तर पर एक सचेत निर्णय ले सकता है ताकि फ्रांसीसी दल को सरकार / संप्रभु गारंटी के लिए राजी किया जा सके। "

इसके सबके बाद जो हुआ वह और भी चौकाने वाला है। 18 अगस्त 2016 को, एयर एक्विजिशन विंग ने फिर से प्रस्ताव दिया कि डसॉल्ट एविएशन से एक बैंक गारंटी पर जोर दिया जाना चाहिए, क्योंकि भले ही मोदी सरकार इसे सरकार से सरकार खरीद करार दे रही हो, अग्रिम भुगतान सीधे दसाल्त एविअशन को भेज दिया जाएगा और फ्रांसीसी सरकार कोई भी संप्रभु गारंटी जारी नहीं करेगी। यहां, ऐसा भी लगता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) ने भारतीय पक्ष को फ्रांसीसी सरकार से बैंक गारंटी के बदले डसॉल्ट या संप्रभु गारंटी के बदले फ्रांसीसी पक्ष से ’लेटर ऑफ कम्फर्ट’ स्वीकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

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नोट में कहा गया है कि तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने एनएसए और विदेश मंत्रालय के दृष्टिकोण को स्वीकार किया है, दोनों ने रूस के साथ एक रक्षा सौदे के उदाहरण का हवाला दिया (जिसमें कॉर्पोरेट गारंटी को ‘आश्वासन पत्र’ द्वारा समर्थित किया गया है ) और अमेरिका से (सरकारी खरीद गारंटी के बिना विदेशी सैन्य बिक्री के माध्यम से)। हालांकि, देश के रक्षा मंत्री के रूप में, पर्रिकर निश्चित रूप से जानते होंगे कि उन देशों से जी-जी की खरीद में बहुत अंतर है, जिसमें से उस समय एक खरीद उनके हाथ में थी।

यह सबको ज्ञात है कि अमेरिकी रक्षा उपकरण की बिक्री अमेरिकी सरकार द्वारा संचालित एक कार्यक्रम के माध्यम से होती है जिसे रक्षा विभाग द्वारा संचालित विदेशी सैन्य बिक्री (एफएमएस) कहा जाता है। इसके तहत, क्रेता को सीधे विक्रेता से निपटने की अनुमति नहीं है। यह सौदा अमेरिकी सरकार की एक एजेंसी के माध्यम से किया जाता है जिसे रक्षा सुरक्षा सहयोग एजेंसी कहा जाता है, और आदेशों को रक्षा अनुबंध प्रबंधन एजेंसी (DCMA) द्वारा स्वीकार किया जाता है।रूस के मामले में, रोसोबोरोनएक्सपोर्ट, एक रूसी सरकार मध्यस्थ, मुख्य एजेंसी है जिसके माध्यम से सभी लेनदेन किए जाते हैं। ऊपर उल्लिखित कॉर्पोरेट गारंटी रोसोबोरोनएक्सपोर्ट की गारंटी है।

भारत के साथ राफेल सौदे के मामले में, फ्रांस ने न केवल संप्रभु गारंटी देने से इनकार कर दिया, बल्कि निर्माता ने भी कोई बैंक गारंटी नहीं दी है। इसलिए, एफएमएस और रूसी कॉर्पोरेट गारंटी के साथ इसकी तुलना करना एक असफल जिम्मेदारी से ध्यान हटाने का एक आसान तरीका है।यह नोट इस धारणा को मज़बूत करता है कि रक्षा अधिग्रहण परिषद की सिफारिश के बिना पीएम मोदी की अध्यक्षता वाली कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (CCS) ने खरीद का सुझाव दिया है।

दायित्व के अनुछेद पर फ्रांसीसी असहमति के मुद्दे को दूर करने के लिए, जिस पर कानून और न्याय मंत्रालय ने कहा था कि अनुछेद सही नही है और भारत के हित के खिलाफ है, इस पर रक्षा सचिव ने अनुछेद को फिर लिखने और एक नया अनुछेद जोड़ने की सलाह दी थी.

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हालांकि, फ्रांसीसी पक्ष नए अनुछेद से सहमत नहीं था और उसने पहले वाले अनुछेद  पर जोर दिया जिस पर कानून और न्याय मंत्रालय ने कहा था कि वह फ्रांस के पक्ष में झुका है।

जारी... 

(रवि नायर ने रफ़ाल डील की कहानी का भंडाफोड़ किया था और इस विषय पर एक किताब भी लिख रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)
 

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