संसाधनों की तंगी से सरकार को जवाबदेह बनाने की सांसदों की क्षमता में ह्रास
नयी संसद के निर्माण पर 971करोड़ की राशि खर्च की जा रही है, लेकिन सरकार ने संसदीय लोकतंत्र के कामकाज में सुधार के लिए कोषों के आवंटन की आवश्यकता को दरकिनार कर दिया है। अगर सरकार द्वारा सांसदों के सवालों के फॉलोअप के लिए अतिरिक्त संसाधनों का अवंटन किया जाए तो यह संभव है कि मंत्रालय भी उनके जवाब दें। सांसदों के दफ्तर वित्तीय आवंटन की कमी के बुरे शिकार हैं और इसका अभाव उन्हें अपने दफ्तरों में विशेषज्ञों की सलाह-सेवा लेने की क्षमता पर चोट करता है। अगर उनसे यह काम अपने निजी कोष से करने को कहा जाए तो उनमें से कुछ बमुश्किल ही इसके लिए पहलकदमी करेंगे, अरविंद कुरियन अब्राहम लिखते हैं-
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 10 दिसम्बर 2020 को एक भव्य समारोह में नयी संसद की आधारशिला रखी, जिस पर 971 करोड़ की लागत आने का अनुमान है। इस बात पर बहस की जा सकती है कि क्या ऐसे समय में जब देश आर्थिक संकट से गुजर रहा है, लोगों का धन इमारत निर्माण पर खर्च किया जा सकता है? यह सवाल भी जरूरी है कि क्या भारत में संसदीय लोकतंत्र में अपेक्षित सुधार के लिए पर्याप्त धन आवंटन किया जा रहा है?
उत्पादकों एवं उपकरणों
संसदीय लोकतंत्र का मुख्य अहाता वह है, जिसमें कार्यपालिका निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के जरिये लोगों के प्रति उत्तरदायी होती है।
संसदीय जवाबदेही के सारभूत विषय कार्यपालिका को अविश्वास मत के जरिये हटाने की शक्ति लोकसभा को देने तक ही सीमित नहीं हैं। उसकी शक्ति लोकसभा सांसदों द्वारा लागू किये जाने वाले श्रृंखलाबद्ध उत्पादकों और उपकरणों तक फैली है। इसमें संसद में सवाल पूछने, संसदीय हस्तक्षेपों के जरिये मंत्रियों से जवाब तलब करने, प्रस्तावों को पेश करने, संशोधन विधेयक लाने, संसदीय समिति के जरिये सरकार के क्रियाकलापों की समीक्षा करने और इसी तरह के बहुत सारे अधिकार सांसदों को दिये गये हैं।
संसदीय जवाबदेही के सारभूत विषय कार्यपालिका यानी सरकार को अविश्वास मत के जरिये हटाने की शक्ति लोकसभा को देने तक ही सीमित नहीं हैं. उसकी शक्ति लोकसभा सांसदों द्वारा लागू किये जाने वाले श्रृंखलाबद्ध उत्पादकों और उपकरणों तक फैली है। इसमें संसद में सवाल पूछने, संसदीय हस्तक्षेपों के जरिये मंत्रियों के जवाब तलब करने, प्रस्तावों को पेश करने, संशोधन विधेयक लाने, संसदीय समिति के जरिये सरकार के क्रियाकलापों की समीक्षा करने और इसी तरह के बहुत सारे अधिकार सांसदों को दिये गये हैं।
हालांकि, सांसदों द्वारा इन उपकरणों का इस्तेमाल कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित कराने के लिए किया जाता है, लेकिन संसाधनों की कटौती कर उन्हें विशेष रूप से नुकसान पहुंचाया जाता है।
सांसदों को नीतिगत मामलों में मंत्री परिषद के सामने अपने सवाल रखने की इजाजत है। वे तारांकित प्रश्न भी पूछ सकते हैं, जिसके मौखिक उत्तर देने की जरूरत होती है किंतु सांसदों के अतारांकित सवालों के जवाब मंत्रियों को लिखित रूप से ही देने पड़ते हैं।
लोकसभा में 545 सांसद हैं। इसीलिए मंत्रियों के लिए यह संभव नहीं है कि वे सभी प्रश्नों के उत्तर एक बार में दे सकें। अत: सवालों को बैलट सिस्टम से चुना जाता है और उन्हें मंत्रियों के समक्ष बारी-बारी से पेश किया जाता है। इन सवालों में से पहले 25 सवाल मंत्रियों के मौखिक जवाब के लिए तारांकित के रूप में चयनित किये जाते हैं और लगभग 250 और तारांकित सवालों को सत्र के दौरान लिखित जवाब के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है।
व्यवहार में,समय की कमी को देखते हुए मंत्रियों द्वारा शून्यकाल में केवल 5:00 से 6 प्रश्नों के ही मौखिक उत्तर दिए जाते हैं
लोकसभा में 545 सांसद हैं तो इसीलिए मंत्रियों के लिए यह संभव नहीं है कि वह सभी प्रश्नों के उत्तर एक बार में दे सकें। इसीलिए सवालों को बैलट सिस्टम के द्वारा चुना जाता है और उन्हें मंत्रियों के समक्ष बारी-बारी से पेश किया जाता है। इन सवालों में से पहले 25 सवाल मंत्रियों के मौखिक जवाब के लिए तारांकित के रूप में चयनित किये जाते हैं और लगभग 250 अतारांकित सवालों को सत्र के दौरान लिखित जवाब के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है।
ऐसे सवालों जिनका मौखिक जवाब देना मंत्रियों के लिए आवश्यक हो, उनकी तादाद लॉजिस्टिकल ग्राउंड पर सीमित की जाती है। मंत्रियों के लिखित जवाब के दौरान उन सवालों को नजरअंदाज किए जाने का कोई आधार नहीं है, जिन्हें बैलेट के जरिए नहीं चुना गया हो।
उठते सवाल
अगर सांसद द्वारा पूछे गए या रखे गए हरेक सवालों के फॉलोअप के लिए सरकार आवश्यक संसाधन उन्हें उपलब्ध करा दें तो मंत्रियों के लिए उनके जवाब देना संभव है, चालू सत्र के दौरान न सही तो कम से कम इंटरसेक्शन के दौरान उनके जवाब दिए जा सकते हैं। ठीक तरह से प्रबंध न होने की कमी से यह बहुत मुमकिन है कि सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र में लंबित पड़ी परियोजनाओं या योजना के क्रियान्वयन में गड़बड़ियों के बारे में केवल इस बिना पर सवाल पूछने से छूट जाएं कि उनके सवाल लॉटरी में नहीं चुने गए हैं।
विधेयकों के अध्ययन, नियम-कायदों, अधिसूचनाओं, योजनाओं और बजटीय प्रस्तावों के अध्ययन ये सभी सांसदों की संस्थानिक क्षमता के दायरे में आते हैं। विश्व के अन्य लोकतांत्रिक देशों जैसे अमेरिका की तुलना में भारत में सांसदों के कार्यालय बुरी तरह से वित्त कुपोषित हैं। यह उन्हें अपने कार्यालयों में विशेषज्ञ की तैनाती की क्षमता में ह्रास लाता है।
राज्यसभा के सभापति ने मंत्रियों को आगाह किया कि बहुत सारे सांसदों के उठाए गए मुद्दे और पूछे गए सवालों के जवाब नहीं दिए जा रहे हैं।जबकि ऐसी व्यवस्था है कि संसदीय हस्तक्षेप द्वारा उठाए गए सांसदों के प्रत्येक प्रश्न एक समय सीमा के भीतर जवाब देना आवश्यक है, इसके जरिए सरकार को जवाबदेह बनाने के लिए उन्हें अधिकार दिए गए हैं.
अगर सांसदों को अपनी निजी निधि से अपने दफ्तरों में विशेषज्ञों को नियुक्त करने के लिए कहा जाता है तो इनमें से गिने-चुने सांसद ही ऐसा करने के लिए प्रेरित होंगे। ऐसे में केवल वहीं सांसद लाभान्वित हो पाएंगे, जो आर्थिक रूप से सक्षम होंगे। अतः संसद के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह कानून और नीतिगत मामलों में अपना पक्ष रखने की सांसदों की संस्थानिक क्षमता सुधारने के लिए उनके दफ्तरों को पर्याप्त धन मुहैया कराए।
महत्वपूर्ण नीतिगत और कानूनी मसलों पर मंत्रियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए लोकसभा के सांसद शून्यकाल के दौरान हस्तक्षेप कर सकते हैं या नियम 377 के तहत एक वक्तव्य रख सकते हैं। राज्यसभा के सांसद विशेष ध्यान आकर्षण के जरिए यह काम कर सकते हैं।
मैन्युअल प्रोसीजर ऑफ पार्लियामेंट के पैराग्राफ 15.2 में लिखा है, मंत्रियों को सांसदों के पूछे गए सवाल या उठाए गए मुद्दों के बारे में जहां तक संभव हो तुरंत जवाब देना है और नहीं तो 1 महीने के भीतर उन्हें जवाब देना होगा। व्यवहार में केवल कुछेक हस्तक्षेपों ही सदन में करने की इजाजत दी जाती है।
सरकार को जवाबदेह बनाना
दरअसल,राज्यसभा के सभापति ने 24 जून 2019 को मंत्रियों को आगाह किया कि बहुत सारे सांसदों के उठाए गए मुद्दे और पूछे गए सवालों के जवाब नहीं दिए जा रहे हैं। जबकि ऐसी व्यवस्था है कि संसदीय हस्तक्षेप द्वारा उठाए गए सांसदों के प्रत्येक प्रश्न को एक समय सीमा के भीतर जवाब देना आवश्यक है, इसके जरिए सरकार को जवाबदेह बनाने के लिए उन्हें अधिकार दिए गए हैं।
यह केवल शून्य काल के दौरान ही सांसदों को वक्तव्य सदन पटल पर रखने का अधिकार तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए बल्कि उसे भी वहां रखे जाने की अनुमति दी जानी चाहिए, जिनका वोट के जरिए चयन नहीं किया गया है। यह महत्वपूर्ण है कि उनके सरोकारों को ही मंत्रियों द्वारा सुना जाना चाहिए, जिसे सांसद व्यक्तिगत रूप से नहीं उठा सके हैं। ऐसी प्रभावकारी व्यवस्था बनाने के लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित किए जाने की आवश्यकता है।
संसदीय स्थाई समिति पर्याप्त संसाधन मुहैया कराने के जरिये ऐसे सांसदों की वर्चुअल मीटिंग कराने में सक्षम हो सकती है जो अपरिहार्य परिस्थितियों जैसे कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के आपातकाल के दौरान सदन की कार्यवाही में भाग नहीं ले सकते हैं। इन समितियों को अतिरिक्त धन मुहैया कराकर उन्हें कानूनी और नीतिगत मामलों के विशेषज्ञों की सेवाएं लेने में सक्षम बनाया जा सकता है।
जब वैश्विक महामारी कोरोना के प्रकोप ने पूरी दुनिया में फैल गया तो ब्रिटिश संसद और अमेरिकी कांग्रेस ने वर्चुअल मीटिंग के लिए तकनीक का सहारा लिया। यद्यपि भारत में संसद की स्थाई समितियों के अध्यक्षों की बार-बार की अपील के बावजूद गोपनीयता बनाए रखने के तर्क पर वर्चुअल मीटिंग से इनकार कर दिया गया है।
दिलचस्प है कि, सरकार तब विश्वसनीयता के प्रति कोई आग्रहशील नहीं होती, जब वर्चुअल कैबिनेट मीटिंग करती है, जबकि ऐसी बैठकों की गोपनीयता बनाए रखना संवैधानिक रूप से आवश्यक है।
संसदीय स्थाई समिति पर्याप्त संसाधन मुहैया कराने के जरिये ऐसे सांसदों की वर्चुअल मीटिंग कराने में सक्षम हो सकती है जो अपरिहार्य परिस्थितियों जैसे कि सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी आपातकाल के कारण सदन की कार्यवाही में भाग नहीं ले सकते हैं। इन समितियों को अतिरिक्त धन मुहैया कराकर उन्हें कानूनी और नीतिगत मामलों के विशेषज्ञों की सेवाएं लेने में सक्षम बनाया जा सकता है, जो उन्हें संसद के निकायों में सरकार की कार्रवाइयों की छानबीन करने की निष्पादन क्षमता में सुधार लाएगा।
अभी जैसे संसद के शरद सत्र का निलंबन कर दिया गया है, ऐसी स्थिति को टाला जा सकता था अगर सरकार ने संसद की कार्यवाही में सांसदों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए तकनीकी सुविधाओं में निवेश किया होता।
संसदीय उत्तरदायित्व में वृद्धि के लिए महत्वपूर्ण संरचनागत सुधार आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित किया जाए कि सरकार न केवल उत्तरदायी है,बल्कि संसद के प्रति भी संवेदनशील है। यह सुधार बिना पर्याप्त बजटीय आवंटन के संभव नहीं है, विशेषकर मंत्रालयों द्वारा किए गए कामकाज की समीक्षा और उनके विधायी और नीतिगत प्रस्तावों के संदर्भ में। सार्थक सुधारों के अभाव में संसद की नई इमारत बनाने का काम, पुरानी शराब को नई बोतल में रखने जैसा होगा।
(अरविंद अब्राहम हार्वर्ड लॉ स्कूल, कैंब्रिज, मैसाचुसेट्स, संयुक्त राज्य अमेरिका में कानून के शोधार्थी हैं। उनकी अभिरुचि तुलनात्मक संवैधानिक कानून से जुड़े विषयों पर अकादमी अनुसंधान करने में है। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
लेख मूल रूप से लीफ्लेट में प्रकाशित।
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Resource Crunch Hits MPs’ Ability to Hold Government Accountable
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