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सारी जमा पूंजी गुजरात में छोड़कर खाली हाथ लौटे यूपी-बिहार

“हम केवल अपने शरीर पर जो कपड़े पहने थे उन्हीं के साथ बिहार आये हैं, इसके अलावा हमारे पास अब और कुछ भी नहीं है।”
गुजरात से लौटते यूपी-बिहार के लोग।
Image Courtesy: Indian Express

देवाशीष, परिवार के साथ गुजरात छोड़कर बिहार आए हैं। उन्होंने कहा कि उनके बच्चे अपनी स्कूली शिक्षा और वो अपना रोजगार अपनी सभी जमा पूंजी को वहीं छोड़कर अपनी जान को बचाकर बिहार आये हैं।

उन्होंने कहा “हम केवल अपने शरीर पर जो कपड़े पहने थे उन्हीं के साथ बिहार आये हैं, इसके अलावा हमारे पास अब और कुछ भी नहीं है।”

वे कहते हैं कि जो हिंसा का तांडव हमने देखा और जिस तरह से हमने वहाँ का माहौल देखा, हम इतने भयभीत हुए कि हमारा वहां अपने परिवार के साथ रहना संभव ही नहीं था।

देवाशीष की पत्नी ने रोते हुए बताया कि हम वहाँ करीब 10 साल से रह रहे थे और उस दौरन हम दोनों ने जो कुछ भी जमा पूंजी जुटाई थी, वह सब वहीं छूट गई। वे इतनी डरी हुईं थी कि उन्होंने कहा अब हम भूखे रहेंगे लेकिन फिर गुजरात नहीं जाएँगे।

अरुण जो अहमदाबाद में मौसम के हिसाब से पटरी पर अलग-अलग चीजों की दुकान लगाते थे, वे बिहार लौट आए हैं। उन्होंने कहा “वहाँ बिहारी होना किसी आतंकी या देशद्रोही होने जैसा है, वहाँ लोग आपस में बिहारी शब्द को एक गाली की तरह प्रयोग करते हैं। बिहार और बिहारियों को तो हमेशा ही शक की नजरों से देखा जाता है। उन्हें एक निम्न दर्जे का नागरिक समझा जाता है। वे बताते हैं कि अच्छे इलाकों में उन्हें मकान किराये पर नहीं मिलते हैं, सिर्फ इसलिए कि वो हिंदी भाषी हैं। इन सभी दर्द को समेटे हुए वापस आये हैं फिर भी वो गुजरात वापस जाना चाहते हैं क्योंकि बिहार में उनके पास कोई रोजगार नहीं है। हाँ, अगर उन्हें यहीं रोजगार मिल जाए तब फिर वो इस अपमान और धिक्कार की जिन्दगी जीने वापस गुजरात न जाए।

इस तरह का डर लेकर गुजरात से हज़ारों लोग बिहार, यूपी और मध्य प्रदेश लौटे हैं।

बिहार और उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र के लोग आज देश के हर कोने में हैं। इनमें बड़े पैमाने लोग अन्य राज्यों में जाकर मेहनत मजदूरी कर रहे हैं। इस क्षेत्र से आए हुए लोगों को पूरबिया कहा जाता है और ये दिल्ली, मुंबई, अहमादाबाद, सूरत, बेंगलुरु जैसे मेट्रो सिटी में रोजगार की तलाश में जाते हैं और बाद में उसी शहर को अपना बनाकर उसी के हो जाते हैं, लेकिन ये शहर उन्हें उसी तरह अपना नहीं बना पाते। ये लोग दूसरे राज्य की तरक्की में अपनी मेहनत से हाथ बंटाते हैं लेकिन इन्हें इन्ही राज्यों में कई बार बाहरी और घृणा की नजरों से देखा जाता है उन्हें बिहारी, भइया या हिंदी वाले बोलकर अलग किया जाता है।

ये बातें हमारे राजनीतिक दल और सत्ता भी बहुत अच्छे तरह से जानते हैं तभी तो अगर उस राज्य में कोई भी समस्या चाहे वो फिर रोजगार, कानून व्यवस्था या फिर शिक्षा की हो तो जब वहाँ की सत्ता और राजनीतिक व्यवस्था उसका हल नहीं कर पाती है तो इसके लिए वो हमेशा ही इन बाहरी लोगों को इन सबका जिम्मेदार बताकर अपना पल्ला छुड़ाती है।  अभी हम ये गुजरात में जो स्थति देख रहे हैं वो इसी का परिणाम है।

गुजरात के एक हिस्से में एक घटना घटी जिसमें किसी राज्य विशेष का व्यक्ति शामिल रहा। ये कानून व्यवस्था का सवाल था, लेकिन इसे आधार बनाकर सभी हिंदी भाषी लोगों पर हमला होने लगा और उन्हें राज्य से बाहर करने का अभियान शुरू हो गया। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि वे अपनी 'जिंदगी बचाने' के लिए गुजरात से भाग रहे हैं। क्या बिहारी  या हिंदी भाषी होना गुनाह है कि लोगों की जान पर बन आए।

मजदूरों की स्थिति भयावह

गुजरात में रहने वाले बाहरी लोगों पर हिंसा तो आजकल हर जगह सुर्खियां बना है, परन्तु वहाँ काम करने वाले मजदूरों ने बताया कि वो जिस हालत में कार्य करते हैं वो किसी गुलामी से कम नहीं है। इसी पर बात करते हुए भैरव जो अभी गुजरात में ही हैं और काम कर रहे हैं, साथ ही बिहार के लोगों के लिए एक संगठन चलाते हैं, उन्होंने बताया कि किस तरह से मजदूरों को 10 से 12 घन्टे काम करना पड़ता है और उन्हें पूरा मेहनताना भी नहीं मिलता। उन्होंने एक कंपनी जहाँ साड़ियों पर कढ़ाई की जाती है, का जिक्र करते हुए बताया कि वहाँ कुछ लोगों ने प्रदर्शन किया था और उनका आरोप था कि वहाँ उनसे महीने के 30 दिन 12 घंटे काम कराया जाता है और मज़दूर उसका विरोध न करें या फिर उसे इसका होश न रहे कि वो क्या और कितना काम कर रहा है इसके लिए उसे चाय में अफीम मिला कर दी जाती है। ऐसी ही एक चाय की दुकान थी जिसे वहाँ विरोध के बाद पुलिस ने सील कर दिया।

वे कहते हैं कि हमने अंग्रेजों के समय गुलामी तो नहीं देखी पर गुजरात में मज़दूर जिस हाल में काम करता है वो बहुत ही खराब है। इसके साथ ही उनके साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। वहाँ के लोग बिना किसी गलती के भी हमें हिंदी वाला बोलकर पीट देते हैं। भले गलती उन लोगों की हो तब भी हमें ही दोषी माना जाता है।

जब हमने उनसे पूछा कि ऐसे हालात में क्यों काम करते हैं और इसका विरोध क्यों नहीं करते? इस पर उनका कहना था कि उनके पास इसके अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है, क्योंकि वो जाएं तो जाएं कहाँ, क्योंकि उनके गृह नगर बिहार में तो कोई रोजगार नहीं है, ऐसे में क्या करें उन्हें परिवार चलाने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा। और अगर वो इसका विरोध करते हैं तो उन्हें अपने काम से हाथ धोना पड़ेगा।

भैरव ने कहा कि हम लोगों ने मोदी जी को बड़े ही उम्मीदों से वोट किया था परन्तु उन्होंने भी हमें निराश किया है बल्कि उनके बाद से यहाँ की स्थिति और भी खराब हुई है। रोजगार के अवसर लगातर कम हुए हैं, ऐसे में हमेशा ही इस तरह के हमले होने की उम्मीद बढ़ जाती क्योंकि जो लोकल होते हैं उन्हें ऐसा लगता है कि उनके हिस्से का रोजगार हम ले रहे हैं परन्तु उन्हें समझना चाहिए कि हम तो वही कर रहे हैं जो पहले कर रहे थे वास्तव में रोजगार में कमी आई है।

इस मामले में निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवानी और उनका  संगठन 'राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच' गुजरात में सालों से रहते आए और मजदूरी के लिए आए अंतर राज्य प्रवासी मजदूरों के हो रहे प्रांतवादी उत्पीड़न के खिलाफ है। जिग्नेश ने अपने संगठन की ओर से इन मजदूरों को आश्वस्त किया है कि आप पर हो रहे हर हमले के खिलाफ हम खड़े रहेंगे।

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