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मोदी के आश्वासनों पर आख़िर किसान भरोसा क्यों नहीं कर सकते?

जहाँ तक दिल्ली के बाहर पंजाब और हरियाणा कैंप के किसानों की बात है, तो पंजाब को जकड़े कृषि संकट की प्रकृति के बारे में अपनी राय देते हुए प्रोफ़ेसर परमजीत सिंह बता रहे हैं कि ये तीनों कृषि क़ानून किसानों के लिए विनाशकारी क्यों साबित होंगे और नरेंद्र मोदी सरकार किसानों की समस्याओं को लेकर उदासीन रवैया क्यों अपनायेगी।
किसान भरोसा क्यों नहीं कर सकते
29 नवंबर को सिंघू बॉर्डर पर जमे किसान

इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसायटी के मौजूदा अध्यक्ष, प्रोफ़ेसर परमजीत सिंह जज ने गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर में दो दशकों से ज़्यादा समय तक पढ़ाने का काम किया है। उनकी लिखी कई किताबों में से एक किताब है-सोशल चेंज थ्रू लैंड रिफ़ॉर्म्स। जहां तक दिल्ली के बाहर पंजाब और हरियाणा कैंप के किसानों की बात है,तो पंजाब को जकड़े कृषि संकट की प्रकृति के बारे में अपनी राय देते हुए प्रोफ़ेसर जज बताते हैं कि ये तीन कृषि क़ानून किसानों के लिए विनाशकारी साबित क्यों होंगे और नरेंद्र मोदी सरकार उनकी समस्याओं को लेकर उदासीन रवैया क्यों अपनायेगी। सरकार की यह उदासीनता भारतीय जनता पार्टी के इस विश्वास से प्रेरित है कि किसानों के विरोध से उसके चुनावी हितों को कोई नुकसान नहीं होने वाला है। प्रोफ़ेसर जज का एजाज़ अशरफ़ के साथ एक साक्षात्कार के अंश।

तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे विरोध प्रदर्शनों के प्रति भारतीय जनता पार्टी के अहंकारपूर्ण रवैये का क्या मतलब है ?

हमें इस बात को याद रखना चाहिए कि कृषि क़ानूनों से पहले श्रम क़ानून पारित किये गये थे। इससे यह पता चलता है कि मोदी सरकार किसान और मज़दूर,दोनों को लेकर उदासीन है। इस सरकार के विकास मॉडल में एक प्रकार के पूंजीवादी उत्पादन को लेकर एक ऐसे आमूलचूल बदलाव ने अपनी जगह बना ली है,जिसमें कृषि विनिर्माण के अधीन है। मोदी सरकार इस विरोध के प्रति असंवेदनशील इसलिए है,क्योंकि यह सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची हुई है कि इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि यह लोगों के फ़ायदे के लिए काम करती है या नहीं। मोदी सरकार का मानना है कि कड़े फ़ैसले लेने और उन्हें लागू करने के अपने दृढ़ संकल्प का प्रदर्शन करके चुनाव जीता जा सकता है। यह सरकार कभी यह नहीं सोचती है कि इन फ़ैसलों के नतीजे क्या होने हैं।

क्या उस पंजाब के लिए यह बुरी ख़बर नहीं है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह इस समय एक गंभीर कृषि संकट का सामना कर रहा है ?

इस बात से कोई इंकार नहीं है कि पंजाब के किसान इस समय ज़बरदस्त समस्याओं से जूझ रहे हैं, जिनमें से कुछ कुछ को उन्होंने ख़ुद ही पैदा किया है। हालांकि ये तीन कृषि क़ानून उन समस्याओं को हल नहीं कर सकते हैं। इसे समझने के लिए आपको पंजाब की खेती-बाड़ी के स्वरूप में आये बदलाव पर नज़र डालना होगा। 1981 से 2011 तक के जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि राज्य के कुल कार्यबल की संख्या में खेतीहर किसानों और कृषि कामगारों की संख्या में गिरावट आयी है। 2011 में खेती करने वालों का प्रतिशत तक़रीबन 22.6% था और श्रमिकों का प्रतिशत लगभग 16.3% था, जिससे यह पता चलता है कि कृषि में लगे लोग पंजाब के कुल कार्यबल के 39% से कुछ ही ऊपर हैं।

कृषि से दूर इस बदलाव को समझने के लिए ज़रूरी है कि  भू-स्वामित्व और खेतीबाड़ी करने  के स्वामित्व के बीच के फ़र्क़ को समझा जाये। जहां तक भू-स्वामित्व का सवाल है, तो ज़्यादातर लोग सीमांत या छोटे-छोटे जोत वाले भू-स्वामी हैं। भू-स्वामी वर्ग के कई लोग या तो सफ़ेदपोश नौकरी करने शहर का रुख़ कर गये हैं या विदेश चले गये हैं, और यह प्रवृत्ति निरंतर जारी हैं, या फिर वे इतने बुज़ुर्ग हैं कि अपनी ज़मीन पर खेती करने लायक़ नहीं रह गये हैं। जो लोग खेती करते हैं, उनके पास छोटी-छोटी जोते हैं और अक्सर ये लोग उन लोगों से पट्टे पर ज़मीन लेकर खेती करते हैं, जो गांवों से बाहर निकल गये हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाये,तो पंजाब में कृषि पर निर्भर लोगों की कुल तादाद 1981 से काफ़ी कम हो गयी है।

पंजाब की कृषि की ख़ासियत उसकी एकल कृषि (monoculture) है। यहां बारी-बारी से गेहूं-धान की खेती की जी है। फ़सलों की विविधता 1967 यानी हरित क्रांति के शुरुआती साल से ही ग़ायब हो गयी है । समय के साथ पंजाब में किसानों के बाज़ार उन्मुख होने की वजह से कई फ़सलें ग़ायब हो चुकी हैं। किसी ज़माने में बठिंडा और मनसा ज़िले तो तक़रीबन रेगिस्तान थे। जब सिंचाई की नहर प्रणाली वहां पहुंची, तो ये क्षेत्र भी एकल-कृषि वाले क्षेत्र हो गये और पानी की आसान उपलब्धता के चलते यहां धान की खेती शुरू हो गयी। यह पंजाब के हित के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि आने वाले सालों में इस सूबे को मामूली नहीं,बल्कि एक ज़बरदस्त जल संकट का सामना करने की संभावना है, ऐसा इसलिए,क्योंकि सिंचाई के लिए पंजाब के किसानों को बिजली की आपूर्ति मुफ़्त की जाती है और इससे भू-जल का व्यापक दोहन हुआ है। सरकार द्वारा गेहूं और धान के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य दिये जाने के साथ-साथ कहीं ज़्यादा मात्रा में पानी की ज़रूरत वाले इन फ़सलों की खेती जारी है।  

यहां कीटनाशक के बहुत ही ज़्यादा इस्तेमाल होना भी एक समस्या है। पंजाब का शहरी मध्यम वर्ग पंजाब में उत्पादित गेहूं नहीं ख़रीद रहा है। वे मध्य प्रदेश से गेहूं ख़रीदते हैं और मल्टीग्रेन या तैयार आटा का इस्तेमाल करते हैं। इन उत्पादों की आपूर्ति बड़ी-बड़ी कंपनियां कर रही हैं। सब्ज़ियों की कहानी भी इस कहानी से अलग नहीं है। पंजाब की सब्ज़ियों में कीटनाशक की बहुत ज़्यादा मात्रा होती है। इस चलते मैंने भी अपने खाने में सालों से बैंगन का इस्तेमाल नहीं किया है। ऐसा नहीं है कि किसान कीटनाशक के इस नुकसान पहुंचाने वाले असर से बेख़बर हैं। वे अपने ख़ुद के खाने के लिए इसे अलग से उपजाते हैं।

इन सभी के चलते पंजाब का किसान संकट में फंसा हुआ है। यह जीवन शैली उनके लिए ख़तरनाक बन गयी है।

लेकिन,नये कृषि क़ानून इस कृषि संकट का जवाब तो नहीं हैं न ?

भारत के लोगों को भूलने की बीमारी है। 2000 और 2009 के बीच लिखने वाले अर्थशास्त्रियों के लेखों पर नज़र डालिए। यह वही दौर था,जब गैट (GATT- General Agreement on Tariffs and Trade) और बाद में विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organisation) के ज़रिये विश्व आर्थिक व्यवस्था में व्यापक बदलाव हो रहे थे, और जिसका मक़सद पूंजी और उत्पाद के लिए दुनिया के बाज़ार को खोले जाने पर ज़ोर देना था। उन लेखों में आप पायेंगे कि बड़ी संख्या में अर्थशास्त्री इस बात की भविष्यवाणी कर रहे थे कि विश्व व्यापार संगठन का यह समझौता भारतीय कृषि को किस तरह प्रभावित करेगा। कृषि पर डब्ल्यूटीओ के समझौते में एक प्रावधान यह भी है कि सभी देश एक-दूसरे को अपने बाजारों तक पहुंच प्रदान करेंगे। हालांकि पिछली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(UPA) सरकार ने इन श्रम और कृषि क़ानूनों को पारित नहीं किया था। लेकिन,डब्ल्यूटीओ की इस ज़रूरत को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन-II (मोदी सरकार) के तहत पूरी तरह से एक ऐसी परिघटना में बदल दिया गया है, जिसने हर क्षेत्र में एफ़डीआई के बहुत ज़्यादा प्रतिशत के निवेश की अनुमति दे दी है। यह सरकार भारत में विदेशी पूंजी को आमंत्रित करने के पीछे पड़ी हुई है। इसके बावजूद,विदेशी निवेशक भारत का रुख़ इसलिए नहीं किया हैं,क्योंकि चीन ने भारत के मुक़ाबले उन्हें बेहतर सुविधायें दी हैं। मसलन,चीन के बुनियादी ढांचे हमारी तुलना में कहीं बेहतर हैं।

किसानों के चल रहे इस विरोध प्रदर्शन पर एक और नज़रिया है कि ये भारत में अन्य जगहों के अपने किसान भाइयों के मुक़ाबले अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं। उनके द्वारा कीटनाशक के बहुत ज़्यादा इस्तेमाल ने उनके लिए स्वास्थ्य समस्यायें पैदा कर दी हैं। हमारे यहां पंजाब के बठिंडा और राजस्थान के गंगानगर के बीच चलने वाली एक ट्रेन है, जिसे "कैंसर ट्रेन" कहा जाता है। यह ट्रेन उन लोगों को ले जाती है और ले आती है,जो कैंसर के इलाज के लिए गंगानगर जाते हैं। पंजाब के हर कृषि उत्पादों में कीटनाशक की उच्च मौजूदगी ही वह वजह है,जिसके चलते इन उत्पादों का निर्यात नहीं किया जाता है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली ने भी भ्रष्टाचार को जन्म दिया है। जब 1980 के दशक में पंजाब को ख़ालिस्तानी आंदोलन ने हिलाकर रख दिया था, तो बनिया कारोबारी ग्रामीण और अर्ध-शहरी बाज़ारों से बाहर निकल गये थे। उनकी जगह उन बड़े किसानों ने ले ली थी, जो कमीशन एजेंट बन गये थे। उसके बाद से पंजाब में पंजाब के कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती रही है, जबकि कृषि क्षेत्र में कमोबेश कोई बदलाव नहीं हुआ है या फिर तेज़ी से होते शहरीकरण के चलते गिरावट ही आयी है।

ये बड़े किसान नेताओं और अफ़सरों से मिले हुए होते हैं। 2006 से वे जो कुछ कर रहे हैं,वह यही है कि वे बिहार और उत्तर प्रदेश से चावल और गेहूं की भारी ख़रीदारी कर लेते है, और दिखाते हैं कि इनका उत्पादन पंजाब में हुआ है,इसके पीछे की मंशा एमएसपी का फ़ायदा उठाना होती है। इस प्रक्रिया में ख़रीद पर जो सरकारी ख़र्च होता है,वह व्यापारी-किसान, राजनेता और अफ़सरों की जेब में चला जाता है। पंजाब के किसानों को एकल-कृषि से जुड़ी खेती-बाड़ी से दूर होना पड़ा है।

फिर भी मैं कहूंगा कि ये कृषि क़ानून किसानों के लिए विनाशकारी हैं।

ऐसा क्यों ?

ऐसा इसलिए,क्योंकि ये क़ानून पंजाब के किसानों को अपनी अतीत की गड़बड़ियों को दुरुस्त करने में मदद या सक्षम नहीं हैं। किसान एक ऐसा वर्ग है,जो बेहद कठोर होता है। वे व्यापक तौर पर बदलना  नहीं चाहते हैं, क्योंकि वे जल्दी से सीखने और नयी-नयी चीज़ों को अपनाने में असमर्थ होते हैं। भले ही किसानों के चल रहे इस विरोध प्रदर्शन के नैतिक सवाल वैध हो या न हो, लेकिन वे जानते हैं कि एमएसपी के बिना वे ज़िंदा नहीं रह पायेंगे। वे अभिशप्त हैं। उनका यह सोचना सही हैं कि उन्हें एमएसपी पर ज़िंदा रहने के अलावे दूसरा कोई विकल्प नज़र नहीं आता है।

क्या सरकार को बिना किसी परामर्श के इन कृषि क़ानूनों को बनाना चाहिए था ?

जब कोई भी सरकार ऐसे व्यापक बदलाव लाने की योजना बना रही होती है, जिससे कि नाटकीय रूप से जीवन के तौर-तरीक़े बदल जाते हों, तो सरकार को इसके लिए एक सर्वसम्मति बनाना ही चाहिए। मैं अभी भी इस झटके से गुज़र रहा हूं कि किसी को भी इन क़ानूनों के लाये जाने की उम्मीद तक नहीं थी। 2019 लोकसभा चुनाव से पहले, नरेंद्र मोदी ने किसानों के बैंक खातों में पैसे हस्तांतरित किये थे। लॉकडाउन के दौरान भी उन्होंने ऐसा ही किया था। पैसे का यह हस्तांतरण डब्ल्यूटीओ समझौते के अनुरूप ही था कि सरकार नक़द सब्सिडी तो दे सकती है,लेकिन और कुछ नहीं दे सकती है,मसलन एमएसपी नहीं दे सकती है। पत्रकारों को इस बात का पता लगाना चाहिए कि क्या सरकार ने भारत के क़ानूनों में हुए इस बदलाव के बारे में विश्व व्यापार संगठन को सूचित किया है।

किसानों से सलाह नहीं लेने से लेकर मोदी सरकार उनसे मिलने से भी तबतक हिचकिचाती रही,जब तक कि उन्होंने पुलिस बैरिकेड्स नहीं तोड़ डाले और दिल्ली के बाहर डेरे नहीं डाल दिये। ऐसा दिखता है कि बीजेपी को नहीं लगता है कि इन विरोधों का उसकी चुनावी क़िस्मत पर किसी तरह का कोई नकारात्मक असर भी पड़ेगा।

भाजपा को छोड़कर सभी प्रमुख दलों की जाति संरचना समान है। ऐसा इसलिए है,क्योंकि पंजाब में राजनीति की यह संरचना बीजेपी के लिए बहुत ही अनूठी है। यहां पारंपरिक कांग्रेस और अकाली परिवार हैं। ऐसे बहुत सारे ऐसे गांव हैं,जिन्होंने पीढ़ियों से इन्हीं दो में से किसी एक को वोट दिया है। मतदान के स्वरूप में बदलाव मामूली रूप से होते हैं; उनका समर्थन आधार अपेक्षाकृत बलदता नहीं है,जब तक कि वे कुछ बहुत बेवकूफ़ियां न कर दें। जहां तक भाजपा की बात है,तो इसके पास शहरों में मतदान करने वाले कुछ हिंदू परिवारों के अलावे और कोई नहीं हैं। हालांकि,भाजपा ने हाल के दिनों में जाट सिखों को भी आकर्षित किया है,क्योंकि वे फ़ायदे उठाने के अवसरों की तलाश में हैं।

क्या 2022 में होने वाले राज्य विधानसभा चुनाव में भाजपा को फ़ायदा मिल सकता है ?

एक तो शिरोमणि अकाली दल में एक गंभीर संकट है, जिस कारण उनके कई नेताओं ने अपनी पार्टी बना ली है। दूसरी तरफ़,हम पाते हैं कि सिमरनजीत सिंह मान के ख़ालिस्तानी समर्थक हैं।अकाली दल के बाग़ी नेता सुखदेव सिंह ढींडसा भाजपा के बेहद क़रीब रहे हैं। इसलिए, बहुत संभव है कि भाजपा 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले ढींडसा की पार्टी के साथ गठबंधन कर ले।

लेकिन,बीजेपी हिंदू मतदाताओं को लामबंद करने की उम्मीद तो कर सकती है न ?

इस विरोध के दम पर हिंदू मतदाताओं को एकजुट तो नहीं किया जा सकता है,क्योंकि ये कृषि क़ानून हिंदू व्यापारियों के एक वर्ग को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेंगे। फिर भी मुझे नहीं लगता कि इन विरोध प्रदर्शनों का भाजपा के चुनावी क़िस्मत पर किसी तरह का कोई नकारात्मक असर पड़ेगा। यह सब आम आदमी पार्टी के चुनाव अभियान में गड़बड़ी नहीं करने पर निर्भर करता है, जैसा कि उसने 2017 में किया था। उनकी लोकप्रियता ने उन्हें आत्मसंतुष्ट बना दिया था,जिस चलते उन्होंने मतदान के आख़िरी घंटों में प्रचार तक नहीं किया था। बहुत कुछ कांग्रेस के चुनावी अभियान के असरदार होने पर भी निर्भर करेगा। भले ही यह कांग्रेस और आप के लिए यह एक ख़ुश होने वाली स्थिति नहीं है,मगर इस समय अकाली दल की भी जीतने की संभावना नहीं है।

भाजपा,कांग्रेस और आप को ज़बरदस्त चुनौती दे सकती है। मेरे कुछ अकादमिक दोस्तों और राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा पंजाब में अगली सरकार बनायेगी, जिसमें कुछ सिख चेहरे भी होंगे। मैं इस बात से सहमत नहीं हूं, हालांकि मुझे भी लगता है कि भाजपा को फ़ायदा तो मिलेगा।

किस तरह ?

पहले तो आपको मानना होगा कि काफ़ी हद तक हिंदू आबादी भाजपा को वोट देगी। उस हालत में हिंदू बाहुल्य क्षेत्रों में वोटों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा में जायेगा। इन क्षेत्रों में पठानकोट और होशियारपुर ज़िले और पंजाब के कुछ बड़े शहर शामिल हैं। भाजपा इस बात को मानती है कि वह पंजाब में इसलिए हार गयी,क्योंकि लोग उसके सहयोगी,अकाली दल के ख़िलाफ़ हो गये थे और कांग्रेस को वोट दे दिया था। इसलिए,लोगों ने इसे सत्ता से बाहर कर दिया था। भाजपा को लगता है कि पंजाब विधानसभा की 117 सीटों में से उसे 30-40 सीटें अपने दम पर मिल सकती हैं। दूसरे शब्दों में, 2022 में होने वाले पंजाब विधानसभा चुनावों में हो रहे इन विरोध प्रदर्शनों से बीजेपी को कोई नुकसान नहीं होगा।

मुमकिन है कि भाजपा किसानों के प्रति सहानुभूति इसलिए नहीं रखे,क्योंकि पंजाब, जो उनके विरोध का केंद्र है, वहां लोकसभा की महज़ 13 सीटें हैं। भाजपा बहुत ज़्यादा संख्या में लोकसभा सीटों वाले राज्यों पर अपना ध्यान केंद्रित करती है। यह केंद्र में सत्ता में आने और छोटे-छोटे राज्यों में किसी न किसी तरह से हुक़ूमत करने के लिए इन नंबरों का इस्तेमाल करती है।

हां,आप सही है। भाजपा को सिर्फ़ बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कुछ और राज्य जीतने हैं, और पंजाब उनकी योजना में अपेक्षाकृत महत्वहीन हो गया है। लेकिन,केंद्र की समस्या यह है कि पंजाब को नियंत्रित रखना होगा। पंजाब अंकों के हिसाब से भले ही अहम नहीं हो,लेकिन इसका महत्व एक अस्थिर सीमा पर इसके स्थित होने को लेकर है और इसकी अहमियत इसलिए भी है,क्योंकि जम्मू और कश्मीर का देश के मैदानी इलाकों से जोड़ने वाला राज्य सिर्फ पंजाब ही है।

एक अन्य नज़रिये से देखा जाये,तो क्या भाजपा इन विरोधों को लेकर इसलिए तो उदासीन नहीं है कि इस विरोध से बेजीपी के उन विरोधी वोटों में से कुछ हासिल होने वाला तो है नहीं,जिस पर पहले से ही विरोधियों का कब्ज़ा है ? आख़िरकार, बीजेपी पंजाब के ग्रामीण इलाक़ों में अपने विरोधियों के मुक़ाबले तो कहीं है नहीं।

बिल्कुल,हमें यह देखना होगा कि किस तरह से बात आगे बढ़ती है। लेकिन हां,जिन लोगों पर इन कृषि क़ानूनों से असर पड़ा है,वे सही मायने में भाजपा के प्रमुख समर्थक तो नहीं हैं। इसका एक और पहलू है,यहां के लोगों को कई समस्याओं का सामना इसलिए भी करना पड़ा,क्योंकि पंजाब आने-जाने वाली ट्रेनें तक़रीबन दो महीने तक नहीं चलीं। इसी दौरान यहां दशहरा और दीवाली थी। मुझे लगता है कि यहां के लोग इस आंदोलन से नाराज़ होंगे। या फिर वे अपनी परेशानियों के लिए केंद्र को दोषी ठहरायेंगे ? इन दोनों में से कुछ भी कहना मुश्किल है।

केंद्र पंजाब में ट्रेनें चलाने को लेकर राज्य सरकार से आश्वासन की मांग करता रहा। ये आश्वासन दे दिये गये थे, लेकिन रेलवे ने इसे लेकर ख़ूब हीले हवाली की। लोकतंत्र में केंद्र सरकार को लोगों तक अपनी पहुंच बनानी चाहिए और उनकी शिकायतों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। इसके बजाय,ऐसा लगा कि लोगों को जानबूझकर परेशान किया जा रहा हो।

मुझे लगता है कि सत्तारूढ़ पार्टी ने इस नज़रिये से अपना रुख़ बदल लिया कि कांग्रेस शासित पंजाब मुश्किल में है, और ऐसे हालात में उन्हें और ज़्यादा परेशान क्यों न किया जाये और केंद्र का विरोध करने को लेकर उन्हें सबक क्यों न सिखाया जाये।

इसी वजह से ऐसा लगता है कि इन विरोध प्रदर्शनों के प्रति भाजपा की उदासीनता सोची-समझी है। इसके पीछे 2022 की चुनावी रणनीति भी दिखती है।

भाजपा पहले से ही 2022 के चुनाव की तैयारी कर रही है। यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि भाजपा सत्ता हासिल करने या चुनावी फ़ायदा उठाने की तलाश में हिंदुत्व का किस क़दर इस्तेमाल करती है। चार घंटे की मोहलत पर लगाये गये राष्ट्रीय लॉकडाउन से लोगों का पलायन हुआ था,उस पर तो लोगों को ग़ुस्सा आना चाहिए था। लेकिन,इसके बजाय एनडीए ने बिहार में जीत दर्ज कर ली। बिहार में 2015 में भाजपा ने जितनी सीटें जीती थीं,इस बार उससे कहीं ज़्यादा सीटें जीत ली हैं।

क्या आपको ऐसा लगता है कि भाजपा की वजह से लोगों को जो परेशानियां हुई हैं,उन्हें लोगों ने भूला दिया है और ऊपर से उन्हें वोट भी दे दिये हैं ?

मुझे लगता है कि राजनीतिक दलों ने हिंदुत्व का विरोध नहीं किया है। कहीं न कहीं उन्हें उस मुस्लिम हौआ को बेअसर करना होगा,जिसे भाजपा खड़ा करती रहती है। हमें कांग्रेस के उसके पिछले रिकॉर्ड को भी याद रखना होगा। वह आज़ादी के बाद के भारत में हुए बहुत सारे दंगों के लिए ज़िम्मेदार रही है। लेकिन,भाजपा उस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को कहीं आगे ले गयी है,जिसे अब तक देखा गया है।

क्या आपको लगता है कि केंद्र सरकार 3 दिसंबर को होने वाली अपनी बैठक के दौरान किसानों के सामने कुछ पेशकश रखेगी, हालांकि ऐसा पहले भी तो हो सकता था ?

वे तो यही कहेंगे कि वे सैद्धांतिक तौर पर किसान नेताओं से सहमत हैं और इन कृषि कानूनों में ज़रूरी बदलाव करने का वादा करते हैं। मोदी ने अतीत में भी बहुत सारे आश्वासन दिये हैं, लेकिन उन्होंने उन आश्वासनों को कभी पूरा नहीं किया है। 3 दिसंबर को या जब भी उनकी सरकार किसानों से मिलेगी, वह उन्हें एक और आश्वासन थमा देगी।

आख़िरी सवाल, क्या आपको नहीं लगता है कि मोदी सरकार के इन कृषि क़ानूनों को पारित करने और उनका प्रदर्शनकारियों से मिलने से बार-बार के इंकार से निराशावद और राजनीतिक उपयोगितावाद की बू आती है ?

सबसे पहली बात तो यही कि कृषि क़ानूनों पर कोई सहमति नहीं बनायी गयी। दूसरी बात कि इसके लिए जो वक़्त चुना गया,वह बिलकुल ग़लत था। एकदम साफ़ है कि भाजपा ने सोचा था कि महामारी के चलते किसान इन तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ नहीं हो पायेंगे। हमने प्रधान मंत्री को लगातार एक-तरफ़ा संवाद करते हुए देखा है,प्रधानमंत्री आदेश जारी करते हैं और लोगों से उन आदेशों का अनुसरण करने की उम्मीद करते हैं। पिछले छह सालों के दौरान किसी भी विवादास्पद मुद्दे पर शायद ही कोई बातचीत और बहस हुई है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Sociologist Judge on Why Farmers Cannot Rely on Modi’s Assurances

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