Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

2021 में सुप्रीम कोर्ट का मिला-जुला रिकॉर्ड इसकी बहुसंख्यकवादी भूमिका को जांच के दायरे में ले आता है!

इंदिरा जयसिंह लिखती हैं कि सीजेआई एन.वी. रमना का अब तक का कार्यकाल भरोसा जगाने वाला रहा है, लेकिन राजनीति और सिविल सोसाइटी में बहुसंख्यकवाद की चुनौतियों का सामना करने के लिहाज़ से सुप्रीम कोर्ट की क्षमता का इम्तिहान आगे भी होता रहेगा।
SUPREME COURT

उस अहम सियासी माहौल की जांच-पड़ताल किये बिना भारत के सुप्रीम कोर्ट के कामकाज का सालाना आधार पर विश्लेषण करना अब और संभव नहीं रह गया है, जिसके भीतर वह कार्य करता है। अब यह साफ़ हो गया है कि सुप्रीम कोर्ट का कामकाज तक़रीबन हमेशा उस राजनीतिक व्यवस्था से प्रभावित होता है, जिसके तहत देश चल रहा है। संविधान ही भारत को एक संप्रभु, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य बनाता है। हालांकि, इतिहास ने दिखा दिया है कि जब भी देश में एक बहुसंख्यक (ख़ासकर संसद में एक ज़बरदस्त बहुमत वाली) सरकार  होती है, तब सुप्रीम कोर्ट हवा के रुख़ के साथ चलता हुआ दिखायी देता है। दूसरे शब्दों में ऐसी  स्थिति में सुप्रीम कोर्ट भी एक बहुसंख्यकवादी संस्था बन जाता है।

बेशक,यह संविधान के तहत अपनी-अपनी निर्धारित भूमिका के पूरी तरह से उलट है, जिसके मुताबिक़ कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का बंटवारा होता है। क़ानून के जानकार हमें बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट एक बहुसंख्यकवादी विरोधी संस्था है, क्योंकि संविधान अल्पसंख्यकों को मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है, और धर्म, जाति, नस्ल, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करता है। उम्मीद की जाती है कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से इन गारंटियों का ज़ोरदार बचाव किया जायेगा। ऐसा ख़ास तौर पर तब होता है, जब भारत के अनूठे संविधान की बात आती है, क्योंकि यह अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट तक सीधी सुलभता की गारंटी देता है, जिसे डॉ बी आर अंबेडकर ने संविधान की आत्मा के रूप में वर्णित किया था।

हालांकि, इतिहास दिखाता है कि बहुसंख्यक शासन व्यवस्था के समय में सुप्रीम कोर्ट ने एक बहुसंख्यकवादी ताक़त के रूप में कार्य नहीं किया है। शायद हमारे मौलिक अधिकारों के हनन के लिए सुप्रीम कोर्ट पर पूरा दोष मढ़ देना इसलिए भी मुनासाब नहीं है, क्योंकि मौजूदा शासन व्यवस्था ने एक समानांतर संवैधानिक ढांचे में कार्य करने की कला में ख़ुद को माहिर कर लिया है। जरूरी नहीं कि संविधान या क़ानून में संशोधन के ज़रिये,बल्कि अमल के ज़रिये संविधान की अनदेखी करते हुए क़ानून के शासन को ख़त्म कर दिया गया है और संविधान का इस्तेमाल एक हथियार की तरह किया गया है।

इसकी अहम मिसाल अल्पसंख्यकों की लिंचिंग और हाल ही में भीड़ की हिंसा के ज़रिये गुरुग्राम में नमाज़ को बाधित करना है। अदालतें विधियों और संविधान, न कि अमल के साथ निपटने के आदी होती हैं। अल्पसंख्यक पर किसी विशेष हमले को क़ानून के उल्लंघन या एकतरफा दुरुपयोग के रूप में देखा जायेगा। हालांकि, उस व्यक्तिगत एफ़आईआर (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दर्ज करने के अलावा, बिना किसी उपाय के हिंसक भीड़ के हमलों के लिए हम सभी को असुरक्षित छोड़ते हुए प्रक्रिया के दुरुपयोग को अब एक नीति के स्तर तक ले जाया गया है, जो इसलिए बहुत कम काम के रह जाते हैं, क्योंकि वे अदालतों के ज़रिये अपना रास्ता बनाते हैं।

अभियोजन सरकार के हाथ में है, और सरकार अपने समर्थकों पर नहीं,बल्कि चुनिंदा रूप से सिर्फ़ अपने आलोचकों पर ही मुकदमा चलाने का विकल्प चुनता है। मौजूदा परिदृश्य में नफ़रत फैलाने वाले हिंदुत्ववादियों पर शायद ही कभी मुकदमा चलाया गया हो, जबकि मानवाधिकार के लिए लड़ने वालों ने ख़ुद को सलाखों के पीछे पाया है। यह सब उन लोगों की स्पष्ट सहमति से हुआ है, जिन पर हमारे संवैधानिक अधिकारों, ख़ास तौर पर जीवन और स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार की हिफ़ाज़त करने की ज़िम्मेदारी है।

अगर कोई मोदी के कार्यकाल वाले इन सालों में मानवाधिकारों के सम्मान को लेकर सुप्रीम कोर्ट के कार्यकाल को आंके, तो उसे यह कहना होगा कि मौलिक अधिकारों की हिफ़ाज़त करने में अदालत अपनी भूमिका में नाकाम रही है।

फिर भी, वर्ष 2021 के दौरान सुप्रीम कोर्ट की विशिष्ट भूमिका का मूल्यांकन करें,तो यह भूमिका ठीक-ठाक है, ख़ास तौर पर अप्रैल 2021 में हमने भारत के एक नये मुख्य न्यायाधीश (CJI) की भूमिका को देखा है। एक ऐसा न्यायाधीश, जिन्हें कुछ लोगों ने एक उद्धारकर्ता के तौर पर देखा है। ऐसा है या नहीं, यह तो इतिहास बतायेगा, लेकिन अपने पूर्ववर्तियों के मुक़ाबले वह ज़्यादा पारदर्शी, सहभागी और जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को लेकर प्रतिबद्ध दिखते हैं।

मुख्य न्यायाधीश बोबडे और रमना: एकदम उलट कार्यकाल

पिछले सीजेआई शरद अरविंद बोबडे के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है, जिसे यहां दोहराने की ज़रूरत नहीं है। अप्रैल 2021 में उनके पद छोड़ने से पहले उनके सबसे अहम कार्यों में से एक कार्य जनवरी 2021 में तीन कृषि क़ानूनों पर रोक लगाना था। यह आदेश निश्चित रूप से ग़ैर-मामूली था, क्योंकि यह भारत संघ के स्पष्ट विरोध को लेकर आया था। इसे यादगार अंतरिम आदेश के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि, दुख की बात यह है कि इसकी एक अलग व्याख्या भी है और वह यह है कि इसका मक़सद सार्वजनिक विरोधों को फैलाना और क़ानूनों की संवैधानिकता पर फ़ैसले को स्थगित करना था। यह मामला इतिहास में इसलिए दर्ज हो जायेगा, क्योंकि शायद यह एकलौता ऐसा मामला है, जिसका प्रभावित समुदाय यानी उस किसान समुदाय ने पूरी तरह से बहिष्कार कर दिया था,  जिसने इन क़ानूनों के सवालों के घेरे में रहने के बावजूद अपना विरोध जारी रखा था। उन क़ानूनों के निरस्त किये जाने को देखते हुए अब इन क़ानूनों की संवैधानिकता कभी भी तय नहीं हो पायेगी।

यही बात हमें भारत के सुप्रीम कोर्ट में ले आती है, क्योंकि इसने सीजेआई रमना के अधीन कार्य किया है। बहुत सारी अटकलें थीं कि क्या उन्हें सीजेआई नियुक्त किया जायेगा, क्योंकि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने उनके ख़िलाफ़ तत्कालीन सीजेआई बोबडे को एक शिकायत दर्ज करायी थी कि न्यायमूर्ति रमना और उनके रिश्तेदार अमरावती के नव-स्थापित शहर में भूमि अधिग्रहण के सिलसिले में भ्रष्टाचार में लिप्त थे, और आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट में सुनवाई और फ़ैसलों को कथित रूप से प्रभावित करते हुए आंध्र प्रदेश सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे थे। इसके बावजूद, परंपरा के मुताबिक़, उनकी अनदेखी नहीं की गयी और अपनी सेवानिवृत्ति पर निवर्तमान सीजेआई बोबडे ने अपने उत्तराधिकारी के तौर पर उनकी सिफ़ारिश कर दी थी।

हमने उनके कामकाज को तक़रीबन आठ महीने तक देखा है, जिसमें से गर्मी की छुट्टी, दशहरे की छुट्टी, दीवाली की छुट्टी और क्रिसमस की छुट्टी को छोड़ दिया जाना चाहिए। कामकाज का मूल्यांकन करने के लिए हमारे पास सीमित दिनों को देखते हुए उनके कार्यकाल को काफ़ी नाटकीय और कुछ मायनों में तो परंपरा से हटकर देखा जाना चाहिए।

चीफ़ जस्टिस रमना कोर्ट में रहते हुए अपने मन की बात कहने से नहीं हिचकिचाते। मसलन, उन्होंने कहा था कि राजद्रोह का क़ानून बीते दौर का है। उन्होंने पुस्तक विमोचन और सामाजिक कार्यक्रमों में बोलने के निमंत्रण को उदारतापूर्वक स्वीकार किया है, जो हमें इस न्यायाधीश के दिमाग़ की एक दुर्लभ झलक देता है। न्यायपालिका में महिलाओं की नुमाइंदगी की कमी को लेकर बोलते हुए उन्होंने न्यायपालिका में महिलाओं के लिए आरक्षण का समर्थन किया और कहा, “यह महिलाओं का अधिकार है। और वे इसे पाने के लायक़ हैं।” बाद में उन्होंने साफ़ किया कि उनका मतलब यह था कि महिलाओं के न्यायाधीश बनने के पक्ष में सकारात्मक कार्रवाई होनी चाहिए ताकि न्यायपालिका में उनकी उचित नुमाइंदगी हो।

क़ानून दिवस कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा था कि इंसाफ़ हासिल कराने का काम सिर्फ़ न्यायपालिका की ज़िम्मेदारी नहीं है और शासन के अन्य दो अंग-कार्यपालिका और विधायिका भी न्याय को सुरक्षित करने वाले संवैधानिक विश्वास के भंडार हैं। वह एक मीडिया प्रेमी न्यायाधीश हैं, और यह सब एक बहुत ही स्वागत योग्य बदलाव है।

जहां सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को ही बोलने हुए देखा जाता है, वहीं ऐसा अक्सर नहीं होता कि हम पदस्थ न्यायाधीशों को भी अपने मन की बात कहते हुए देखें। उस मायने में जैसा कि जस्टिस गौतम पटेल ने द लीफ़लेट के संविधान दिवस कार्यक्रम में बोलते हुए कहा था कि जस्टिस रमना इतिहास रच रहे हैं।

ऐसी पारदर्शिता का इसलिए स्वागत है, क्योंकि हम इससे अपने न्यायाधीशों को बेहतर तरीक़े से जान पाते हैं। न्यायमूर्ति रमना ने भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जेल नहीं, बल्कि बेल यानी ज़मानत को लेकर एक स्पष्ट संवैधानिक प्रतिबद्धता जतायी है।

हालांकि, यह सब बातें न्यायाधीशों की चापलूसी लग सकती है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि नागरिकता संशोधन अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकायें, चुनावी बॉंड, और संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त किये जाने जैसे बहुत ही अहम मामलों को सूचीबद्ध नहीं करने को लेकर सीजेआई की आलोचना ज़रूरी है।

हाल ही में भारत के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने अपनी हालिया किताब में उन पर आरोप लगाते हुए कहा है कि अनुच्छेद 370 को चुनौती न्यायमूर्ति रमना को सौंपी गयी थी और वह ख़ुद ही इस मामले की सुनवाई में देरी के लिए ज़िम्मेदार थे। न्यायमूर्ति रमना की ओर से अभी तक हमारे पास कोई प्रतिक्रिया नहीं है, सिवाय इसके कि हम जानते हैं कि मामला सूचीबद्ध नहीं किया गया है।

प्रशासनिक पक्ष के दो अहम फ़ैसलों ने गंभीर चिंता का कारण दे दिया है, जैसे कि सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति अकील कुरैशी की नियुक्ति का नहीं होना और न्यायमूर्ति संजीब बनर्जी का मद्रास हाई कोर्ट से मणिपुर हाई कोर्ट में स्थानांतरण। इनमें से किसी भी फ़ैसले की संतोषजनक व्याख्या नहीं की गयी है।

इस साल सुप्रीम कोर्ट में दस में से नौ रिक्तियों को भी भरा गया है। हम सभी जानते थे कि इन रिक्तियों के नहीं भरे जाने की एक वजह यह भी थी कि 12 अगस्त को सेवानिवृत्त हुए जस्टिस रोहिंटन नरीमन को जस्टिस अकील कुरैशी की नियुक्ति नहीं होने पर गंभीर आपत्ति थी। यह सुप्रीम कोर्ट की ओर से एक बार में की जाने वाली नियुक्तियों की सबसे बड़ी संख्या थी। इसमें तीन महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति भी शामिल है, जिनमें से एक महिला न्यायाधीश निश्चित ही रूप से भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद संभालने वाली पहली महिला बन जायेंगी,भले ही वह केवल 25 दिनों के लिए ही हों। फिर भी, न्यायमूर्ति रमना ने देश भर में महिला न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने को लेकर प्रतिबद्धता दिखायी है। हालांकि, यह भी स्पष्ट है कि कॉलेजियम और सरकार की सहमति के बिना वह इस प्रतिबद्धता को आगे नहीं बढ़ा पायेंगे।

सुप्रीम कोर्ट और वैक्सीन मामला

सुप्रीम कोर्ट में बोलते हुए न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने तब हस्तक्षेप किया था, जब इस साल की शुरुआत में कोविड की दूसरी लहर अपने चरम पर थी। उनकी टिप्पणी दिलचस्प थी: "हम न सिर्फ़ न्यायाधीश हैं, बल्कि नागरिक भी हैं।" इस बेंच के फ़ैसले के नकारात्मक और सकारात्मक नतीजे हुए। सिविल सोसोइटी के डर को दूर करते हुए अदालत ने कोविड-19 के मुद्दे पर उच्च न्यायालयों के प्रगतिशील कामकाज में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था।

केंद्र सरकार की निर्माताओं से 50 प्रतिशत टीके और राज्यों और निजी क्षेत्र की 25-25 प्रतिशत की ख़रीद की इस नीति को रद्द कर दिया गया और इसके बाद भारत की वैक्सीन नीति दुनिया में सरकार की ओर से चलायी जा रही सबसे सफल मुफ़्त वैक्सीन कार्यक्रमों में से एक के रूप में सामने आयी। इस कामयाबी के पीछे की वजह यह हक़ीक़त थी कि यह वैक्सीन कार्यक्रम केंद्र सरकार से 100 प्रतिशत की ख़रीद और राज्यों के मुफ़्त वितरण पर आधारित था। हालांकि,इस नीति को ठीक से नहीं बदला गया और इसका मुख्य कारण यह था कि ज़रूरत पड़ने पर टीके जल्द उपलब्ध नहीं थे। इसके विस्तार किये जाने की स्थिति लड़खड़ा गयी थी।

जब न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने किसी "संवाद प्रक्रिया" में एक राय दी थी और पाया था कि यह नीति प्रथम दृष्टया संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करती है, तो केंद्र सरकार ने नीती में बदलाव किया था और अपनी ख़रीद को 75 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था, लेकिन निजी क्षेत्र के लिए 25 प्रतिशत बिना किसी स्पष्ट कारण के बरक़रार रखा गया।

इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी। इसके अलावा, हालांकि सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं और दरख़्वास्तों में दवाओं और टीकों के अनिवार्य लाइसेंस के लिए मिन्नतें की गयी थीं, लेकिन उन पर कोई फ़ैसला नहीं लिया गया। हालांकि, अदालत टीके उपलब्ध कराने को लेकर कोई फ़ैसला तो ले ही सकती थी। इस बात का भी कोई स्पष्टीकरण नहीं था कि भारत में टीकों का उत्पादन दो प्रमुख कंपनियों तक ही सीमित क्यों था, जिसके चलते टीकों की गंभीर कमी थी और टीके सीमित थे।

इन कमियों को पूरा करने के लिए प्रौद्योगिकी और उत्पादन के प्रसार को बढ़ाया जा सकता था। जब इन्हें चुनौती दी गयी, तब जाकर इन मामलों को सूचीबद्ध किया गया, लेकिन बिना किन्हीं स्पष्ट कारणों से हटा दिया गया। यह मामला दोबारा नहीं आ पाया है। हैरत नहीं कि कुछ लोगों की टिप्पणी है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को वैक्सीन रोलआउट और अनिवार्य लाइसेंस पर बिना कुछ किये जाने दिया। बहुत बार ऐसा लगता रहा कि जब-जब सुप्रीम कोर्ट अपने पैर खींच रहा था, तब-तब हाई कोर्टों ने कोविड की दूसरी लहर के मुश्किल समय में अच्छी पहल की थी।

सेवानिवृत्ति के बाद के संदिग्ध पद

इस साल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के अध्यक्ष के रूप में न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की प्रत्याशित नियुक्ति भी देखी गयी। जहां सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियां लचीले न्यायाधीशों के लिए उपहार बन गयी हैं, वहीं यह देखना चौंकाने वाला था कि एनएचआरसी के अध्यक्ष ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के स्थापना दिवस के मौक़े पर ही मानवाधिकार विरोधी टिप्पणी कर दी। उन्होंने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय ताक़तों के इशारे पर भारत पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाने की एक नयी प्रवृत्ति है। शायद आयोग का नाम बदलकर नेशनल कमीशन अगेंस्ट ह्यूमन राइट्स कर दिया जाये।

4 जुलाई को सेवानिवृत्त हुए न्यायमूर्ति अशोक भूषण को सुप्रीम कोर्ट से उनकी सेवानिवृत्ति के तीन महीने के भीतर राष्ट्रीय कंपनी क़ानून अपीलीय न्यायाधिकरण के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त कर दिया गया।  17 नवंबर, 2019 को सेवानिवृत्त हुए न्यायमूर्ति गोगोई ने राज्यसभा के एक स्वतंत्र सदस्य के रूप में नामांकन को स्वीकार कर लिया।इसे सेवानिवृत्ति के बाद साफ़ तौर पर चैन की मिली एक नौकरी के रूप में देखा गया।सिवाय उस उपराष्ट्रपति या राष्ट्रपति के पद के शायद ही कोई ऐसा पद बचा हो, जिसमें सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति न की गयी हो।उन दोनों पदों को लेकर उनमें से कई न्यायाधीश शायद इच्छुक भी हों। (पूर्व सीजेआई, एम. हिदायतुल्ला 1979 से 1984 तक उपराष्ट्रपति के पद पर रहने वाले सुप्रीम कोर्ट के एकलौते पूर्व न्यायाधीश हैं)। हाल ही में जस्टिस बोबडे के नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय में सरसंघचालक मोहन भागवत से मिलने की परेशान करने वाली ख़बरें भी सामने आयीं, जिससे  कि इस तरह की अटकलें लगायी गयीं।

नागरिक स्वतंत्रता के अच्छे और बुरे पक्ष

इस साल बॉम्बे हाई कोर्ट के सबसे ऐतिहासिक फ़ैसलों में से एक फ़ैसला फ़रवरी 2021 में कवि वरवर राव को चिकित्सा ज़मानत देना था। यह फ़ैसला ऐतिहासिक इस कारण से था कि उन्हें एक आतंकवादी होने और भीमा कोरेगांव मामले में शामिल होने का आरोप लगाया गया था। यह फ़ैसला इस बात  को मान्यता देता है कि जेल की सलाखों के पीछे भी इंसाफ़ है और यहां तक कि क़ैदियों को भी स्वास्थ्य का अधिकार है, जिसे सरकार की कार्रवाई से ख़तरे में नहीं डाला जा सकता है। अदालत ने माना कि उनका लगातार क़ैद में रहना स्वास्थ्य के इस अधिकार के अनुकूल नहीं होगा, क्योंकि जिस हालात से वह जूझ रहे थे,उसे पूरे महाराष्ट्र की जेलों में इलाज करने में सक्षम चिकित्सा सुविधायें नहीं थीं।

होली फ़ैमिली अस्पताल में हिरासत में रह रहे फ़ादर स्टेन स्वामी की दुखद मौत कम से कम कहने के लिए महाराष्ट्र में जेल प्रशासन और राष्ट्रीय ख़ुफिया एजेंसी (NIA) पर एक काला धब्बा तो  है ही, क्योंकि स्वामी लगातार चिकित्सा की मांग करते रहे,लेकिन प्रशासन और एजेंसी उनकी उस मांग को क़ुबूल नहीं करते रहे।

सौभाग्य से इस साल के आख़िर में बंबई हाई कोर्ट ने सुधा भारद्वाज को समय बीत जाने के बाद भी उनके ख़िलाफ़ चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाने के चलते डिफ़ॉल्ट ज़मानत दे दी, लेकिन दुखद रूप से आठ दूसरे आरोपियों को इस ग़लत धारणा के तहत ज़मानत देने से इनकार कर दिया गया कि उन्होंने डिफ़ॉल्ट ज़मानत के लिए आवेदन ही नहीं दिया था। जिस समय यह लेख लिखा जा रहा है,ज़ाहिर है कि इस स्पष्ट त्रुटि को दुरुस्त करने की कोशिश की जा रही है और उम्मीद है कि बाक़ी आठ लोगों को भी डिफ़ॉल्ट ज़मानत मिल जायेगी। हालांकि, यह इस सवाल का हल नहीं देता है कि क्या इस मामले में एनआईए की ओर से गिरफ़्तार किये गये चार लोग, यानी गौतम नवलखा, आनंद तेलतुम्बडे, ज्योति जगताप और हनी बाबू भी डिफ़ॉल्ट ज़मानत के हक़दार होंगे, और गुण-दोष के आधार पर उनकी ज़मानत के लिए बहस की कोशिश की जा रही है।

बॉम्बे हाई कोर्ट में भीमा कोरेगांव अभियोजन को इस आधार पर चुनौती देते हुए याचिकायें दायर की गयी थीं कि रिमोट मैलवेयर के ज़रिये रोना विल्सन और दूसरे लोगों के कंप्यूटरों पर सबूत प्लांट किये गये थे, और झूठे अभियोजन को लेकर उनके निर्धारण की जांच की मांग की गयी थी। लेकिन,वे याचिकायें इस लेख के लिखे जाने के समय तक भी लंबित हैं।

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के हास्य कलाकार मुनव्वर फ़ारूक़ी को उस प्रत्याशित परफ़ॉर्मेंस के सिलसिले में ज़मानत देने से इनकार करने को लेकर बहुत आलोचना की गयी, जो कभी हो ही नहीं पाया, कहा गया कि वह परफ़ॉर्मेंस कथित तौर पर सांप्रदायिक वैमनस्य का कारण बनता। न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन की अध्यक्षता वाली पीठ की ओर से सुप्रीम कोर्ट की सतर्कता के चलते ही उन्हें आख़िरकार ज़मानत मिल पायी।

इस साल 19 अगस्त को एक अंतरिम आदेश के ज़रिये तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश विक्रम नाथ (जिन्हें अब सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया है) ने इस साल की शुरुआत में पारित गुजरात धर्म स्वतंत्रता (संशोधन) अधिनियम, 2021 की धारा 3, 4, 4A से 4C, 5, 6, और 6A पर रोक लगा दी थी, जो आगे की सुनवाई के लिए लंबित है। इनमें एक ऐसा प्रावधान भी शामिल था, जिसमें अंतर्धार्मिक विवाहों को जबरन धर्मांतरण का साधन बताया गया था।

दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसलों में नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ़ इक़बाल तन्हा जैसे छात्रों को ज़मानत देने वाले फ़ैसले हैं। एक क़दम आगे बढ़ते हुए असम की एक एनआईए अदालत ने 1 जुलाई, 2021 को ग़ैरक़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत अखिल गोगोई को उन सभी आरोपों से मुक्त कर दिया, जिससे उनकी लंबी और ग़ैरमुनासिब वह क़ैद ख़त्म कर दी गयी, जिसमें रहते हुए उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया था।

स्वतंत्रता दिवस, 2021 की पूर्व संध्या पर उक्त नियमों के अधिकार को चुनौती देने वाली द लीफ़लेट की ओर से दायर एक याचिका के सिलसिले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने डिजिटल मीडिया के लिए नये सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021 के नियम 9(1) और 9(3) पर रोक लगा दी थी। यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वतंत्र प्रेस के अधिकारों के लिहाज़ से एक बड़ी जीत थी, जिनमें से ज़्यादतर प्रेस अब डिजिटल क्षेत्र में ज़बरदस्त रूप से काम करते हैं।

शासनात्मक ताक-झांक

जुलाई में ख़बर आयी कि 300 से ज़्यादा भारतीयों, जिनमें राजनेता, वकील, कार्यकर्ता और पत्रकार शामिल थे, दुनिया भर में साइबर-निगरानी के निशाने पर रहने वाले 50,000 लोगों की सूची में शामिल थे। उनके फ़ोन या तो हैक कर लिये गये या फिर जासूसी के लिए चिह्नित कर लिये गये थे। ऐसा एक इजरायली टेक कंपनी, एनएसओ ग्रुप की ओर से विकसित स्पाइवेयर पेगासस के ज़रिये किया गया था। अदालत की निगरानी में जांच की मांग करने वाले प्रभावित पक्षों के साथ-साथ जनसाधारण के लिए काम करने वाले लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिकायें दायर कीं। यह देखने के बाद कि केंद्र सरकार इन आरोपों को स्वीकार करने या स्वतंत्र जांच को लेकर सहमत नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट ने 27 अक्टूबर को कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, राजनेताओं, न्यायाधीशों और सरकारी अधिकारियों को निशाने पर रखने वाले पेगासस के इस इस्तेमाल को लेकर केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ आरोपों की सत्यता की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर.वी. रवींद्रन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन कर दिया।

संसद के शीतकालीन सत्र से कुछ दिन पहले भारत के राष्ट्रपति ने प्रवर्तन निदेशालय (ED) और केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक के कार्यकाल का विस्तार क्रमशः मौजूदा दो सालों से पांच साल तक करने वाले दो अध्यादेशों, यानी केंद्रीय सतर्कता आयोग (संशोधन) अध्यादेश, 2021 और दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना (संशोधन) अध्यादेश, 2021 को ऐलान किया। इस अध्यादेश की आलोचना विपक्ष और सिविल सोसाइटी दोनों की ओर से व्यापक तौर पर हुई है। इन अध्यादेशों को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका पहले ही दायर की जा चुकी है। आगे का सफ़र दिलचस्प होगा।

एक संदिग्ध आत्म-अवलोकन

दिसंबर में पूर्व सीजेआई गोगोई की आत्मकथा का विमोचन हुआ था। हालांकि, यह किसी भी तरह से उनकी उस किताब की समीक्षा नहीं है, इसके लिए किसी और दिन का इंतज़ार किया जाना चाहिए, लेकिन प्रकाशकों ने मुझे सूचित किया है कि उनकी यह किताब "हॉट केक" की तरह धड़ाधड़ बिक रही है। सवाल है कि ऐसा क्यों है ? हालांकि,यह किताब किसी भी लिहाज़ से पूर्व सीजेआई को उनके ख़िलाफ़ लगाये गये मुख्य आरोपों,यानी अदालत के एक कर्मचारी का यौन उत्पीड़न करने, अपने ही मामले पर फैसला सुनाने, "सीलबंद कवर" न्याय देने, और दिये गये फ़ैसलों के लिए एक "उपहार" के रूप में राजा सभा की नियुक्ति को स्वीकार करने जैसे आऱोपों से मुक्त करने में सफल तो नहीं है। सवाल है कि फिर भी यह किताब क्यों बिक रही है। शायद इसलिए बिक रही है कि ऐसा पहली बार है कि किसी सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश ने ठेठ अमेरिकी शैली,साधारण गद्य और रस्मी तरीक़े से एक ऐसी किताब लिखी है, जिसमें यह ख़ुलासा किया गया है कि जजों की नियुक्ति या नियुक्ति नहीं होने को लेकर कॉलेजियम में क्या हुआ था। उन्होंने अपनी बिरादरी के उन जजों पर भी आक्षेप लगाना पसंद किया हैं, जिनमें से कुछ सेवानिवृत्त हो चुके हैं, जबकि दूसरे अब भी अपने पदों पर हैं। हमें इंतजार करना होगा और देखना होगा कि क्या वे भी जवाब देते हैं या नहीं,जिनपर आरोप लगाये गये हैं। इस बीच, जस्टिस गोगोई इस किताब से पैसे बना रहे हैं,उन्हें अच्छी रॉयल्टी मिल रही है।हमें उम्मीद है कि इससे मिले पैसे को वह अच्छे मक़सद के लिए दान कर देंगे।

और जिस समय आप इस किताब के नतीजे का इंतजार कर रहे हैं, उस समय हम अपने सभी पाठकों को नये साल की शुभकामनायें देते हैं।

(इंदिरा जयसिंह एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और भारत के सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। वह द लीफ़लेट की सह-संस्थापक भी हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Supreme Court’s Mixed Record in 2021 Brings its Counter-Majoritarian Role Under Scrutiny

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest