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त्रिपुरा चुनाव: प्रगतिशील बनाम राष्ट्रविरोधी ताकतों के बीच चुनाव

विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चा और भाजपा के बीच एक ऐसी लड़ाई देखेंगे जो अलगाववादी आदिवासी संगठन की पीठ पर सवार है।
tripura elections

त्रिपुरा में आगामी विधानसभा चुनाव, जो भारत के सबसे छोटे राज्यों में से एक है, बहुत महत्वपूर्ण हो गया है और पूरे देश का ध्यान अपनी और खींच रहा है। यह इसलिए क्योंकि भारत के चुनावी इतिहास में पहली बार वाम दल भाजपा के साथ राज्यव्यापी लड़ाई में सीधे टक्कर में हैं। उन राज्यों में जहाँ वामपंथी मज़बूत हैं जैसे केरल, पश्चिम बंगाल वहाँ भाजपा हमेशा छोटी ताकत रही है और वहाँ इस तरह का टकराव पहले कभी नहीं हुआ है।

दरअसल, त्रिपुरा में भी भाजपा एक छोटी पार्टी रही है। 2014 के लोकसभा चुनावों में, जब मोदी सत्ता में आए, तो भाजपा को त्रिपुरा में मात्र 6% वोटों मिले, जबकि वाम मोर्चे को 65% मत मिले। पिछले विधानसभा चुनावों में, वाम मोर्चा के 52.3% वोटों के हिस्से की तुलना में भाजपा को सिर्फ 1.5% वोट ही मिले थे।

तो सवाल यह उठता है कि, भाजपा अचानक वाम मोर्चे के लिए चुनौती कैसे बन गई है? जवाब बेहद शिक्षित करने वाला है और इसे देश भर के लोगों को जानना चाहिए। इससे देश पर शासन करने वाली पार्टी के सच्चे चरित्र का पता चलता है और उनके नेताओं, जिनमें प्रधान मंत्री मोदी भी शामिल हैं, जो 'राष्ट्रवाद', 'देशभक्ति' पर सभी लोगों का उपदेश देते हैं और दावा करते हैं कि वे हमेशा 'भारत पहले' की बात कहते हैं।

त्रिपुरा में, भाजपा ने खुलेआम एक अलगाववादी आदिवासी संगठन के साथ गठबंधन किया है जिसे देशज पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) कहा जाता है। इस संगठन के इतिहास के बारे में त्रिपुरा की जनता अच्छी तरह से वाकिफ है। यह अलगाववादी आदिवासी संगठनों की एक लंबी रेखा का पुनर्जन्म है जिसमें एक तथ्य सभी के लिए समान है: कि आदिवासी और गैर-आदिवासी संघर्ष को बढ़ावा देने के लिए हिंसा का उपयोग करना और एक अलग आदिवासी राज्य की मांग करना।

भाजपा उम्मीद कर रही है कि इस उग्रवादी राष्ट्र विरोधी संगठन के साथ मिलकर यह उन आदिवासी वोटों को आकर्षित करने में सक्षम होगी, जो कि राज्य के एक तिहाई मतदाताओं का हिस्सा है। 2017 में, आईपीएफटी के नेताओं ने कथित तौर पर सरकार के वरिष्ठ अफसरों/मंत्रियों से मुलाकात की जिसमें गृह मंत्री सहित पीएमओ के मंत्री शामिल थे और इस बैठक का संचालन खुद प्रधान मंत्री ने किया। ऐसी जानकारी है कि वे बीजेपी के कई बड़े नेताओं के संपर्क में हैं, जिनमें हेमंत बिस्वा शर्मा भी शामिल हैं, जो कि कांग्रेस से भाजपा में आये हैं, और जो अब असम की भाजपा नेतृत्व वाली राज्य सरकार में मंत्री हैं। और त्रिपुरा में चुनाव अभियान के प्रभारी भी हैं। और 5 जनवरी को इसी वर्ष वे गठबंधन को पक्का करने के लिए प्रधान मंत्री मोदी से भी मिले थे।

यह वही आईपीएफटी है जिसने जुलाई 2017 में त्रिपुरा को बाकी देश से जोड़ने वाले एकमात्र राष्ट्रीय राजमार्ग को दो सप्ताह तक नाकाबंदी को लागू करके अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को उजागर किया। इस नाकाबंदी के माध्यम से जो मांग उठायी गयी वह स्पष्ट थी कि: अलग त्रिपुरा के भीतर से एक नए राज्य तिप्रालैंड बनाया जाए। यह भी बताया गया कि पीएमओ से बातचीत के बाद नाकाबंदी को हटा दिया गया था।

इससे पहले, मार्च 2017 में, आईपीएफटी का एक समूह इस आरोप के बाद अलग हो गया कि दूसरे ने भाजपा से 2 लाख रुपये स्वीकार किए हैं ताकि भाजपा को उनका सहयोग मिल सके। कथित रिश्वत लेने वालों का नेतृत्व नरेश चंद्रा देबबर्मा कर रहे थे। यह वह गुट है जो अब भाजपा के साथ गठजोड़ के लिए बाध्य है।

भाजपा की समस्या - त्रिपुरा में आधार नहीं होने के बावजूद भी वह शासन करने की इच्छा पाल रही है – और यह आशा अलगाववादी आदिवासी गिरोह के साथ जाने से कभी पूरी नहीं होगी। जातीय आदिवासी मांगों को इस खतरनाक ढंग से उछाल कर, त्रिपुरा के अन्य गैर-आदिवासी निवासियों की प्रतिक्रिया कैसी होगी? इसलिए, भाजपा हिंदुत्व आधारित भावनाओं को भड़काने के लिए बंगाली आबादी के बीच काफी तेज़ी से काम कर रही है। ऐसा बताया गया है कि भाजपा बंगाली के बीच नाथ समुदाय को लुभाने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लाने की योजना बना रही है। स्थानीय स्तर पर, भाजपा कार्यकर्ता उत्साहपूर्वक बंगाली शताब्दी समूहों के साथ अपने आपको शामिल कर रहे हैं। त्रिपुरा में अमार बंगाली संगठन के नेतृत्व में उग्रवादी बंगाली हिंसा का इतिहास है, जिसका आनंद मार्ग द्वारा समर्थन किया गया था। भाजपा यह भी प्रचार कर रही है कि इसने नागरिकता अधिनियम 1955 में इस्लाम को छोड़कर सभी धर्मों के शरणार्थियों को भारत में नागरिकता प्राप्त करने की अनुमति देने के लिए संशोधन किया है।

इसलिए, भाजपा जो भारत को एकजुट करने का दावा करती है, एक छोटे से सीमावर्ती राज्य में सत्ता हासिल करने के लिए इतनी बेताब है कि वह आदिवासियों और गैर-आदिवासियों और अलगाववादियों के साथ दशकों की सद्भावना को ध्वस्त करने के लिए तैयार है।

भाजपा ने तृणमूल के छह विधायकों सहित त्रिपुरा में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के सभी बदनाम सदस्यों को पाटी में शामिल कर लिया है। भाजपा दोनों दलों के कार्यकर्ताओं का पार्टी में  स्वागत करने के लिए सार्वजनिक कार्यकर्मों का आयोजन कर रही है। पिछले एक साल में उसने जिस महीन राजनीतिक आधार को पकड़ा है, उसके दम पर वह वाम मोर्चा को चुनौती देने के लिए उतरी है।

लेकिन ये सब धोखाधड़ी इस तथ्य को नहीं छिपा सकती है कि भाजपा वाम मोर्चे के सामने  एक कमजोर चुनौती है। इसका कारण यह है कि वाम मोर्चा ने अथक-और सफलतापूर्वक काम किया है - राज्य में चरमपंथी और हिंसक समूहों को हाशिए पर लाकर खडा कर दिया है। यह ऐसा कुछ है जो शायद ही कभी पूर्वोत्तर में देखा गया है। इस शांति ने राज्य को अपना लाभांश का भुगतान किया है क्योंकि इसके व्यापक असर को विकास कार्य करने के लिए वाम मोर्चा द्वारा उपयोग किया गया था। वाम मोर्चा ने आबादी में गहरे जड़ें जमायी है राज्य को विकसित किया है और एक ईमानदार, मेहनती और लोक-उन्मुख सरकार प्रदान की है। यही कारण है कि वाममोर्चा चुनावों में निरंतर जीतता रहा है - लोक सभा से लेकर पंचायत और स्वायत्त विकास परिषद की सीटों तक, सब में बौमत हासिल करता रहा है।

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