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त्वरित टिप्पणी :  सुप्रीम कोर्ट ने अपनी 'ग़लती' सुधारी

एससी-एसटी मामले में सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फैसला दलितों के अधिकारों की ही रक्षा नहीं करता, बल्कि यह भी बताता है कि दलितों को जो अधिकार बहुत लम्बे संघर्ष के बाद मिले हैं उसे खत्म करने वाली शक्तियां कितनी शिद्दत से अपने काम में जुटी हुई हैं और उस पर सजग रहना कितना जरूरी है। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।
dalit protest
फाइल फोटो : साभार 

दलितों की चिंता गैरवाजिब नहीं थी। 2 अप्रैल 2018 का राष्ट्रव्यापी आंदोलन बेवजह नहीं था। आंदोलन के दौरान उभरा आक्रोश मुनासिब था। इस दौरान हुई हिंसा के लिए केवल दलित-आदिवासी जिम्मेदार नहीं थे। यह बात अब सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फैसले से साबित हो गयी है। सभ्य भाषा में कहें तो सुप्रीम कोर्ट ने अपनी भूल सुधार ली है। 20 मार्च 2018 का दो जजों की बेंच का आदेश अब रद्द हो गया है जिसने दलितों-आदिवासियों को बेचैन कर दिया था।

सुप्रीम कोर्ट ने डेढ़ साल बाद जो गलती सुधारी है उस गलती को केंद्र सरकार ने पिछले साल ही देशव्यापी आंदोलन के बाद समझ लिया था। आम चुनाव के दबाव में ही सही, लेकिन केंद्र ने तब एससी-एसटी एक्ट में संशोधन लाकर कानून को पहले जैसी स्थिति में ला दिया था। इससे पहले सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका भी डाल दी थी।

सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद अब एससी-एसटी एक्ट 1989 के मामले में
    • सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी के लिए सक्षम अथॉरिटी की मंजूरी जरूरी नहीं होगी
    • बाक़ी आरोपियों की गिरफ्तारी के लिए भी एसएसपी रैंक के अधिकारी की मंजूरी वाली बाध्यता खत्म
    • तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान जारी रहेगा
    • अग्रिम ज़मानत का प्रावधान नहीं होगा

सुप्रीम कोर्ट के 2018 के फैसले के बाद स्थिति यह हो गयी थी कि एक दलित की शिकायत पर गैर दलित पर मुकदमा चलाना मुश्किल हो गया था। गिरफ्तारी रोकने के लिए कई चरण बन गये थे। ऐसे में दलितों पर अत्याचार रोकने वाला कानून न सिर्फ बेमकसद हो गया था, बल्कि उल्टे दलितों के खिलाफ हो गया था। इसके विपरीत अगर दलितों के खिलाफ शिकायत हो, तो उनकी गिरफ्तारी रोकने के लिए कोई बचाव न तब था, न अब है। यानी ऐसी शिकायतों के मामले में दलितों के साथ भी सामान्य लोगों की तरह कानूनी प्रावधान है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में जो आदेश दिए थे उसके केंद्र में थी एससी-एसटी एक्ट के दुरुपयोग की घटनाएं। इसका मकसद गैरदलितों को बेवजह उत्पीड़न से बचाना था। सर्वोच्च अदालत झूठी शिकायतों से परेशान नज़र आयी। मगर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान महसूस किया कि झूठी शिकायतों का शिकार तो कोई भी हो सकता है। दलितों के खिलाफ भी झूठी शिकायतें हो सकती हैं। ऐसे में बचाव सिर्फ गैरदलितों के लिए क्यों? इस तरह के मामलों में कानून के तहत दंड ही उपयुक्त प्रावधान है।

जब सुप्रीम कोर्ट 2018 में एससी-एसटी एक्ट की कथित खामियों को दूर कर रहा था तो उसने इस बात की अनदेखी की कि 2016 में इस कानून के तहत उत्पीड़न के 1 लाख 67 हज़ार से ज्यादा मामले अदालत पहुंचे। इनमें से केवल 10 प्रतिशत मामलों में ही ट्रायल हुए। और, इनमें भी महज एक चौथाई मामलों में सज़ा हुई। अगर आदिवासियों के मामलों की बात करें तो केवल 12 फीसदी मामलों में सज़ा हो सकी।
सज़ा नहीं मिल पाना या कानून से बच निकलना भी दलितों-आदिवासियों की कमी के तौर पर देखा गया। झूठे मामलों पर विचार करते हुए इस पक्ष की अनदेखी कर दी गयी कि मामला दर्ज करने से लेकर सुनवाई होने तक के दौर में वंचित तबका किस तरह से परेशान होता है और न्यायिक व्यवस्था तक खुद को व्यक्त करने में उन्हें किन मुश्किलात का सामना करना पड़ता है।

एससी-एसटी मामले में सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फैसला दलितों के अधिकारों की ही रक्षा नहीं करता, बल्कि यह भी बताता है कि दलितों को जो अधिकार बहुत लम्बे संघर्ष के बाद मिले हैं उसे खत्म करने वाली शक्तियां कितनी शिद्दत से अपने काम में जुटी हुई हैं और उस पर सजग रहना कितना जरूरी है। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।

यह भी स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट का हर फैसला अब सर माथे पर रखकर स्वीकार किया जाए, यह जरूरी नहीं है। ज़िन्दा कौम निस्तेज नहीं हो सकती- दलित समुदाय ने यह साबित कर दिखाया है। हां, यह भी स्पष्ट करने की जरूरत है कि इसे अस्वीकार करने का तरीका भी संवैधानिक हो ताकि अव्यवस्था न फैले और न्याय व्यवस्था के प्रति सम्मान बना रहे।

चर्चा करने का यह सही अवसर है कि कई मामले ऐसे हैं जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने एक सख्त रवैया अपना रखा है। मसलन, जस्टिस लोया की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत के मामले पर अब और याचिकाएं स्वीकार नहीं करने का फैसला। दुनिया की कोई भी अदालत ऐसा फैसला कैसे ले सकती है! सुप्रीम कोर्ट को इस पर भी विचार करना चाहिए।

ऐसे मामले जिनमें अदालत के फैसले पर अमल नहीं किया जाता और अमल कराने के लिए दोबारा फैसला देना पड़ता है, उस पर भी अदालतों को अपना रुख पीड़ितों के हक में सख्त करना होगा। उदाहरण के लिए बिलकिस बानो के मामले में गुजरात सरकार ने मुआवजा देने के आदेश को समय रहते नहीं माना। अब मुआवज़े में सुधार कर दोबारा आदेश जारी किया गया है। मगर, सवाल ये है कि आदेश को नहीं मानने वाली सरकार को क्या सबक मिला?

एक और बात महत्वपूर्ण लगती है। न्यायिक क्षेत्र में कई प्रचलित व्यवहार हैं जो हास्पास्पद हैं। उदाहरण के लिए अग्रिम ज़मानत लेने का प्रावधान तो है, मगर ऐसा करते हुए अभियुक्त को जेल जाने के डर से पुलिस से छिपना पड़ता है। पुलिस को भी इस लुका-छिपी के खेल में परेशान होना पड़ता है। आखिर क्यों? अगर अग्रिम ज़मानत का प्रावधान है तो उस पर फैसला होने तक गिरफ्तारी नहीं होने या फिर कोई और निश्चित व्यवस्था को क्यों नहीं अपनाया जा सकता है?

वास्तव में ऐसे सवालों को उठाने का मौका दलितों के उस आंदोलन ने ही दिया है जिसने केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट दोनों को राह दिखलायी है। दलित आंदोलन सही मायने में 2 अप्रैल 2018 को सफल नहीं हुआ था, वह 01 अक्टूबर 2019 को सफल हुआ है- गांधीजी के जन्म की 150वीं जयंती की पूर्वबेला में। गांधीजी को इस अवसर पर याद करना इसलिए भी जरूरी है कि दलितों को सामाजिक और शैक्षणिक अधिकार के साथ-साथ राजनीतिक अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ने वाले वे देश के अग्रणी नेता रहे हैं। दलितों के मसीहा डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने भी उनके संघर्ष का सम्मान किया था। वंचित तबके को देश की मुख्य धारा में जोड़े रहने की कवायद में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला उन ऐतिहासिक संघर्ष की पृष्ठभूमि में नज़ीर बना रहेगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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