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तिरछी नज़र: हिप्पोक्रेसी की भी सीमा होती है

सरकार जी कह चुके हैं, "हिप्पोक्रेसी की भी सीमा होती है"। परन्तु वह सीमा कहां है, यह न हम जानते हैं और न सरकार जी।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : यूट्यूब

इस वृहस्पतिवार को एक विवाह समारोह में जाना हुआ। शादी में जाने का एक प्रयोजन तो यह होता है कि सब लोगों से मुलाकात हो जाएगी। आज कल की भाग दौड़ भरी जिंदगी में मुलाकात करने के बस यही कुछ बहाने रह गए हैं।

दूसरा प्रयोजन होता है खाना खाना। मध्य वर्ग की शादियों में तो इतने प्रकार के व्यंजन होते हैं कि आप पूरे के पूरे व्यंजनों को चख भी नहीं सकते हैं। होता यह है कि आप व्यंजनों को चखना शुरू करते हैं कि देखें, क्या अच्छा बना है और सोचते हैं कि जो अच्छा लगेगा उसे ही भरपेट खाएंगे।

पर होता क्या है ? चखते चखते ही पेट पूरा भर जाता है, भूख खत्म हो जाती है, पर अभी तक तो सभी चीजें चखी ही नहीं होती हैं। पेट भर जाता है पर मन नहीं भरा होता है। पसंद की चीज, या फिर वह चीज जो सबसे अधिक पसंद आई हो, खा ही नहीं पाते हैं। उस व्यंजन को भी बस चख कर रह जाते हैं जो मनपसंद हो या फिर चखते चखते सबसे अच्छा लगा हो।

होता यह है कि आप फिर भरे पेट के साथ बेइमानी करते हैं। अब इस बार शादी की दावत में यही हुआ। भरे पेट के साथ बेइमानी हो गई। कुछ मनपसंद था वह दोबारा ले लिया और कुछ स्वादिष्ट लगा, वह भी दोबारा ले लिया। और स्वीट डिश तो बस के कंडक्टर की तरह होती ही है। बस कितनी भी खचाखच भरी हो, बिना कंडक्टर के खिसक भी नहीं सकती है। तो उस दिन हमारे पेट के साथ भी यही हुआ। पेट खचाखच भरा हुआ था पर पैर बार बार स्वीट डिश के स्टाल पर के सामने पहुंच जाते थे।

खैर लब्बोलुआब यह है कि बहुत खा लिया गया। 'बहुत' शब्द कम पड़ रहा है, बहुत ही अधिक खा लिया गया था। खैर खा पी कर मेजबान साहब के पास गए। लोगों से मिल जुल लिए थे, दावत भी खा ली थी, बस शगुन का लिफाफा थमाना बाकी रह गया था। वह भी जरूरी होता है। वह या तो ऋण उतारने का उपक्रम होता है या फिर इन्वेस्टमेंट का।तो जब मेजबान साहब के पास पहुंचे तो वे वे लपक कर बोले, "अरे डाक्टर साहब, आपने कुछ लिया या नहीं"। मैंने कुछ उत्तर न दे, उनकी ओर लिफाफा बढ़ा दिया। वे लिफाफा थमाते हुए बोले, "अजी साहब, आप आ गए, यही बहुत है। इसकी क्या जरूरत थी"। मैं लिफाफा वापस अपनी जेब में रखता उससे पहले वह उनकी जेब में पहुंच चुका था।" आपने खाना खाया या नहीं", वे लिफाफा अपनी जेब के हवाले करते हुए बोले।

"हां, हां, खा लिया है", मैंने उत्तर दिया। "परन्तु हमने तो देखा ही नहीं। कुछ तो हमारे साथ भी खाना ही पड़ेगा"। कह कर वे खींचते हुए चाट के स्टाल तक ले गए। चाट वाले से कह कर दो प्लेट बढ़िया सी टिक्की बनवाईं। उस चाट वाले ने भी बहुत मेहनत कर, सब कुछ डाल कर टिक्की की प्लेट बनाई और मेज़बान जी को पकड़ा दी। मेज़बान साहब ने वह प्लेट मुझे पकड़ा दी और एक और प्लेट बनाने को कहा। खैर, हमने अपने पेट पर और अत्याचार शुरू किया। अब तो वह अत्याचार ही था। वह चाट हमने अकेले ही खाई। मेज़बान तो अपनी प्लेट पकड़ते उससे पहले ही कोई उन्हें बुला कर ले गया, "फूफा जी, आपको। वहां पापा बुला रहे हैं"।

बचपन से ही एक आदत है, प्लेट में कुछ बाकी नहीं छोड़ना है। उस आदत की वजह से टिक्की की पूरी प्लेट भी साफ करनी पड़ी। पहली बार लगा कि यह एक बुरी आदत है। साथ ही यह भी कि पेट कई हिस्सों में बंटा होता तो कितना अच्छा होता। टिक्की और चाट के लिए एक, खाने के लिए दूसरा और मीठे के लिए एक अन्य। लेकिन प्रकृति को, इवोल्यूशन को यह नहीं पता था कि मनुष्य को इक्कीसवीं शताब्दी की शादियों में इतनी तरह का खाना खाना पड़ेगा। ईश्वर भी इतनी आगे की कहां सोच पाता है।

पेट इतना अत्याचार सह नहीं सकता था, तो सह नहीं पाया। रात भर पेट भारी रहा। बेचैनी से रात को नींद नहीं आई। सुबह भी तबीयत ऐसी ही थी। सुबह क्लीनिक जाना जरूरी था। कुछ मरीजों को समय दिया हुआ था। डाक्टर होने का एक सबसे बड़ा नुक्सान यह होता है कि आप यह नहीं कह सकते कि आपकी तबीयत खराब है। लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है कि अच्छा! डाक्टर साहब की भी तबीयत खराब है? जैसे डाक्टर साहब आदमी नहीं, कोई हैवान हैं। ना कोई आराम, ना कोई तबीयत खराब होने की स्वतंत्रता। कुछ लोग तो मज़ाक भी करने लगते हैं। अपनी दवा से लाभ नहीं हो रहा है तो किसी दूसरे डाक्टर को दिखा दीजिए।

खैर दो तीन दिन में पेट ठीक हो गया। अब बिल्कुल नार्मल है। यह सीख मिली कि भरपेट खाना अलग बात है और ठूंस ठूंस कर खाना अलग बात है। पर यह सीख तब तक है जब तक अगला न्योता नहीं मिलता है। अगली दावत में जाएंगे। वहां लगी भव्य, महंगी, शानदार सजावट को निहारेंगे। तरह तरह की डिश खा कर पेट पर फिर से अत्याचार करेंगे। लौटते हुए शादी में किए गए खर्च का अंदाजा लगाएंगे। फिजूलखर्ची के बारे में बात करेंगे। लेकिन फिर वैसी ही किसी शादी में जाएंगे। जब अपने घर में होगी तो पिछली सभी से अधिक भव्य, अधिक खर्चीली करना चाहेंगे।

अजीब हिप्पोक्रेटिक समाज है हमारा भी। झूठ बोलना भी तब तक पाप है जब तक झूठ बोलने से कोई लाभ न मिले। झूठ बोलने से वोट मिलें तो सरकार जी भी झूठों का अंबार लगा देते हैं। रिश्वत लेना भी तभी तक ख़राब है जब तक आपको नहीं मिलती हो। इस मामले में तो जब आप दे रहे होते हैं तो आपको ख़राब लगती है परन्तु जब आपको मिल रही होती है तो वही रिश्वत अच्छी बन जाती है। अजी साहब, सरकारी तनख़ा में होता ही क्या है। रिश्वत तो ऐसी चीज है कि जो रिश्वत लेता है उसे भी देते हुए अखरती है।

इसी तरह चोरी बुरी चीज है। एक गरीब आदमी करे तो लोग उसे पुलिस के आने से पहले ही पीट पीट कर अधमरा कर देंगे, हो सकता है मार भी डालें। पुलिस को उसकी लाश ही मिले। पर कोई अरबपति करे तो सब चुप्पी लगा जाएंगे। सरकार जी कह चुके हैं, "हिप्पोक्रेसी की भी सीमा होती है"। परन्तु वह सीमा कहां है, यह न हम जानते हैं और न सरकार जी।

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से पत्रकार हैं।)

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