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उड़ता गुजरात पार्ट 3 : सिंचाई के लिए पानी का इंतज़ार करते आदिवासी किसान

सीएजी के मुताबिक़, जिन नहरों के जरिए 34,000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई करनी थीं, 10 वर्ष की देरी के बाद भी कुल 3361 हेक्टेयर भूमि को ही सींच पायी हैं.
udata gujrat

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा ने पूरे देश को लगातार यह बताया कि जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री (2002-2014) थे तो उन्होंने गुजरात में प्रशासन को इतना बेहतरीन एवं पारदर्शक मॉडल बनाया कि वह आज समृद्धि के मामले में अन्य राज्यों के मुकाबले कई गुना आगे चला गया है. इस पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया कि मोदी ‘मॉडल’ की सरकार ने किस तरह हर मिनट किसानों की समस्याओं पर नज़र रखते हुए उनकी हर जरूरत को पूरा किया.

भारतीय नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (सीएजी) अपनी कई रिपोर्टों में इन सभी दावों की धज्जियाँ उड़ा कर रख दी गई हैं.  इन रिपोर्टों में विस्तार से बताया गया है कि कैसे गुजरात राज्य सरकार ने सिंचाई के लिए पानी का प्रावधान किया और उसे पूरा नहीं किया –पानी जो किसानों की सबसे बड़ी जरूरत है. यद्यपि, गुजरात को पानी का बड़ा हिस्सा नर्मदा से मिल रहा था, इसके लिए विवादास्पद सरदार सरोवर बाँध जिम्मेदार है क्योंकि, राज्य के दूर के इलाकों में रहने वाले लोग, विशेष रूप से गरीबी ग्रस्त पहाड़ी इलाके में देखा गया कि साल दर साल बीत गए लेकिन पानी पहुँचाने का किया गाया वायदा आज तक नाकाम रहा.

सीएजी ने जल संसाधन विभाग की 4 हाई लेवल नहरों (एचएलसी) की रिपोर्ट की समीक्षा की. पंपों के माध्यम से मुख्य नहरों से पानी उठाकर एचएलसी में प्रवाहित किया गया ताकि इसके ज़रिए 195 गाँवों में 34,199 हेक्टेयर (हेक्टेयर) ज़मीन की सिंचाई की जा सके.  ये इलाके महिसागार, पंचमहल, सूरत और भरूच जिलों के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित है, इनमें से कई आदिवासी गाँव हैं.

इन समीक्षाओं से जो उभर कर आया वह काफी चौंका देने वाला है, एक दशक में करीब 450 करोड़ रुपया खर्च करने के बाद इन चार नहरों की सिंचाई क्षमता 11,476 हेक्टेयर भूमि सींचने की होनी चाहिए थी, लेकिन आखिरी सिंचाई चेनल के पूरा न होने के कारण, लक्ष्य का केवल 4% यानी 3,361 हेक्टेयर भूमि तक ही पानी पहुँच पाया.

ऐसा क्यों हुआ कि कहानी उतनी घिनौनी है जैसे कि इसका अंतिम परिणाम. इस योजना को नाकाम करने में कई कारण हैं जैसे, परियोजना के लिए कई ठेकेदारों को काम का ठेका दिया गया लेकिन उन्होंने या तो काम अधूरा छोड़ दिया या बिना काम किये गायब हो गए, तथाकथित पूरे काम की न तो निगरानी और न ही परीक्षण हुआ, नहर के लिए भूमि अधिग्रहण में देरी हुई, भूमि का सर्वेक्षण नहीं किया गाया, नौकरशाही रुकावटें अलग से, रेलवे और जंगल विभाग से समय पर अनुमति नहीं ली गयी. सीएजी ने उन अजीब से मामलों की भी फेहरिस्त बनायी जिनमें ठेकेदारों ने मूल परियोजना रिपोर्ट में प्रावधान से ज़्यादा भूमि को खोद डाला, और बिजली के बिल का भुगतान किया गया जबकि बिजली इस्तेमाल भी नहीं हुआ, और उसे ऊँची रक़म पर एडजस्ट कर भुगतान किया गया.

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि योजना और महत्त्वपूर्ण कामों के कार्यान्वयन जैसे नहरों के जरिए सिंचाई लगभग देश के किसी भी अन्य राज्य के समान ही फँसा मामला है. इसके नतीजे भी वैसे ही हैं: सीमांत आदिवासी किसान समुदाय इससे पूरी तरह से प्रभावित है. गुजरात का मॉडल वास्तव में अपनी अक्षमता और ज़रूरतमंदों की उपेक्षा में किसी भी अन्य राज्य से अलग नहीं है. यह कहना गलत नहीं होगा कि गुजरात के पास अन्य राज्यों के मुकाबले बहुत अधिक संसाधन होने के बावजूद भी सीमांत समुदायों की ज़रूरतों की उपेक्षा भाजपा सरकार के निर्दयी चेहरे को ही दिखाता है.  भाजपा के 'गुजरात मॉडल' के प्रचार और उसकी वास्तविकता के बीच की खाई को बड़े ही बेहतरीन ढंग से इन रिपोर्टों में दिखाया गया है. जोकि भारत में निश्चित रूप से अद्वितीय है.

एक अन्य पहलू जोकि सीएजी की रिपोर्ट में काले और श्वेत अक्षरों में नहीं लिखा हुआ है, लेकिन उनकी रिपोर्ट से विशिष्ट रूप से प्रत्याशित है, वह यह कि अगर कोई ठेकेदार वैसा नहीं करता जो वह करने के लिए अनुबंधित था और सरकार 4-5 साल के काम के बाद ऐसा महसूस करती है और फिर भी इसके परिणामस्वरुप उसे दंडित नहीं करती - इसका मतलब स्पष्ट है कि दाल में कुछ काला है. इसी तरह, अगर छोटे सिंचाई चैनलों का परीक्षण नहीं किया जाता है, और ठेकेदार का भुगतान कर दिया जाता है, और पाया जाता है कि तैयार चैनल पानी के जमाव को संभाल पाने’ में असमर्थ हैं,  इसका मतलब स्पष्ट है कि किसी ने काम पर नज़र ही नहीं रखी. अगर निगरानी में इस तरह की देरी या फिर ‘लापरवाही’ है तो उसमें से सीध-सीधे बड़े भ्रष्टाचार की बू आती है जो आम लोगों के जीवन से खिलवाड़ के सिवाय कुछ नहीं है.

पहले की सीएजी रिपोर्टों की समीक्षा से पता चलता है कि गुजरात सरकार के जल संसाधन विभाग को सीएजी कई वर्षों से आलोचना कर रही है.  इसके तहत 2011-12 में "निविदा प्रक्रिया में अनियमितताओं" के लिए और 2012-13 में कुछ ठेकेदारों के लिए पक्षपात करने के लिए, और 2013-14 में बेकार का व्यय के लिए, सरकार को झाड़ा गया.  इन पूर्व की रिपोर्टों में वर्णित मामलों में नियमों की नीरसता और उसका खुला उल्लंघन, मसौदा निविदा दस्तावेज को अंतिम रूप देने के पहले ही निविदाएँ जारी कर देने से स्पष्ट होता है.  इस तरह की धोखाधड़ी जो क्रोनी पूँजीवादियों को दिए जाने वाले अनुबंधों को प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं, उन्हें शायद ही कभी अन्य राज्यों में भी देखा जाता है. शायद गुजरात के सरकारी अधिकारियों ने अपने 'मॉडल' की सुरक्षात्मक ढाल दण्ड से मुक्ति के लिए विकसित की है.

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