उत्तराखंड :क्या हम आपदाओं से कुछ सीखने को तैयार हैं ?
दून अस्पताल के ट्रॉमा सेंटर में उत्तरकाशी से एयर लिफ्ट किये गए आपदा पीड़ित भर्ती हैं। दीवार से लगे एक बिस्तर पर दसवीं में पढ़ने वाला सक्षम रावत भी है। उसके ठीक सामने के बिस्तर पर उसका बड़ा भाई लेटा है। उनके माथे पर पट्टियां बंधी हैं। हाथ में फ्रैक्चर है। सक्षम माकुड़ गांव का रहने वाला है। जब बादल फटा और पहाड़ से मलबा गिरने लगा तो पूरे गांव में चीख-पुकार मच गई। सक्षम का परिवार भी बचाव के लिए दौड़ा। लेकिन इसके लिए समय काफी कम था। भुर-भुरे होकर गिरते पहाड़ के मलबे में दबकर सक्षम की मां, बहन, ताऊ, ताई और दादी मारे गए। वो बताता है कि उसके पिता मानसिक तौर पर कमज़ोर हैं। उसके शरीर पर आपदा से बने जख्म तो भर जाएंगे, लेकिन दो भाई और कमज़ोर पिता के साथ ज़िंदगी कई गुना मुश्किल होगी।
सक्षम के साथ तीमारदारी कर रहे संतोष सिंह रावत उसी के गांव के रहने वाले हैं। उनके सेब के बगीचे हैं। वो बताते हैं कि जब ऊपर से मलबा बहता दिखा तो वे परिवार को लेकर दूसरी तरफ के पहाड़ पर चढ़ गए। उनका परिवार इस आपदा में बच गया। लेकिन घर में दरारें पड़ गई हैं। सेब की पेटियां मलबे में बह गईं। संतोष कहते हैं कि हमारे गांव में आज तक ऐसी स्थिति नहीं आई थी। जो छोटे-छोटे सूख चुके नाले हैं, जिसमें कभी पानी नहीं आता, वो उफान पर थे। अस्पताल के इस कमरे में बेबसी दिख रही थी।
इसी कतार में सोहन सिंह रावत भी लेटे हैं। उनके पैरों पर प्लास्टर लगा है। सर पर पट्टियां लगी हैं। वे बातचीत करने की स्थिति में हैं। उन्होंने बताया कि बादल फटने से आई बाढ़ का सामना तो कई बार किया लेकिन पहली बार बादल को फटते हुए देखा। आसमान से बिजली की चिंगारियां गिर रही थीं। पवार नदी पहले से उफान पर थी। सोहन सिंह का घर नदी से कोई सौ मीटर की दूरी पर है। वो कहते हैं कि नदी काफी चढ़ रही थी, हमने सोचा जब तक नदी हम तक पहुंचेगी, तब तक हम भाग निकलेंगे। लेकिन अचानक पहाड़ से मलबा गिरा। हमें इतना भी समय नहीं मिला की तीन मीटर तक भी दौड़ पाएं। मलबा झटके से आया और तेज़ी से आगे चला गया, इस बीच कई घरों में तबाही और मातम पसर गया। सोहन सिंह रावत और उनकी पत्नी इस हादसे में बच गए। लेकिन उनके साथ रह रहा नाती मलबे के साथ नदी में बह गया। घर-दुकान-मवेशी. मलबा सब कुछ साथ ले गया। 48 वर्ष के सोहन कहते हैं कि इससे पहले 1978 में ऐसी आपदा आई थी। वो भी ऐसी नहीं थी।
ऐसी ही मिलती-जुलती कहानियां इस कमरे में लेटे सभी आपदा पीड़ितों के पास थीं। किसी का घर गया। मवेशी गए। अपने लोग भी चले गए। इन सबसे बात करते हुए एक सवाल मेरे मन में आ रहा था कि क्या ऐसे संवेदनशील क्षेत्र में रह रहे लोगों को, आपदा के दौरान किस तरह बचाव करें, इसका कोई प्रशिक्षण दिया जाता है। जिस तरह हम अन्य क्षेत्र में सुरक्षा के लिए मॉक ड्रिल करते हैं, क्या आपदा के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्रों में इस तरह की मॉक ड्रिल नहीं होनी चाहिए। ये काम स्कूल-कॉलेज या पंचायत स्तर पर हो सकता है। आपदा प्रबंधन की टीमें गांव-गांव जाकर लोगों को इसके लिए जागरुक कर सकती हैं। क्योंकि कुदरत के कहर को तो हम रोक नहीं सकते, मगर ऐसी स्थिति में खुद को कैसे सुरक्षित करें, इस तरह के उपाय तो किये जा सकते हैं। ये सवाल मैंने इस कमरे में मौजूद सभी लोगों से पूछा। सबका जवाब न में ही था।
'हमने पहाड़ों का सिस्टम डिस्टर्ब कर दिया"
इससे पहले अगस्त के पहले हफ्ते में चमोली बादल फटा और टिहरी में दो जगहों पर बादल फटने से भारी नुकसान हुआ। दिल्ली मौसम विज्ञान केंद्र में मौसम विज्ञानी आनंद शर्मा कहते हैं कि ऐसी बारिशें पहले भी हुआ करती थी, लेकिन तब नुकसान कम होता था। वे कहते हैं कि जो भी स्ट्रक्चर नदी के कैचमेंट एरिया में बने हुए हैं या फिर हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता और भू-विज्ञान को ध्यान में रखे बिना बने हैं, उन्हें इस तरह के मौसम में नुकसान पहुंचना ही पहुंचना है। वे हिमालय के संवेदनशील इलाकों में बेतरतीब तरीके से निर्माण कार्यों, होटलों तक जाने के लिए की जा रही सड़कों पर सवाल उठाते हैं। आनंद शर्मा कहते हैं कि हमने पहाड़ों का सिस्टम डिस्टर्ब कर दिया है। भूस्खलन तो पहले भी होते थे लेकिन तब नुकसान इतना नहीं होता था। अब हमको पर्यटकों के लिए बड़ी-बड़ी सड़कें चाहिए।उसके लिए पेड़ काटे जा रहे हैं। पहाड़ों में हर कोई सड़क के पास ही रहना चाहता है। तो नुकसान होना स्वाभाविक है। हमारी प्लानिंग ही इस तरह है कि- आ बैल मुझे मार।
आनंद शर्मा कहते हैं कि वर्ष 2013 में उत्तराखंड में, 2014 में जम्मू-कश्मीर में और इस वर्ष हिमाचल प्रदेश में ख़ासतौर पर बारिश ने काफी नुकसान पहुंचाया है। लेकिन इस सब में ब्रिटिशर्स की बनायी इमारतों को कोई नुकसान नहीं होता। अंग्रेजों ने किसी भी निर्माण से पहले उस जगह के भू-विज्ञान को देखा कि वो स्थिर चट्टान है या नहीं, उसकी नींव कैसी है, स्थान के लिहाज से इमारत की निर्माण सामाग्री किस तरह की होनी चाहिए, डिजायन किस तरह का होना चाहिए, हाइड्रोलॉजी का ख्याल रखा जा रहा है या नहीं। अंग्रेजों की बनाई इमारतें सौ वर्ष से अधिक पुरानी हो चुकी हैं और वे कह चुके हैं कि उन्होंने सौ वर्षों के लिहाज से ही ये इमारतें बनाई थीं।
आपदा में टूटने वाली सड़कों और भवनों को लेकर आनंद शर्मा कहते हैं कि हमारे यहां टाउन प्लानिंग होती ही नहीं है। देहरादून में विधानसभा और टेक्निकल यूनिवर्सिटी नदी के क्षेत्र में बने हुए हैं। जबकि नदी के इलाके में कोई भी निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए। इसी तरह हिमाचल के मंडी में नदी क्षेत्र में बना पूरा का पूरा बस अड्डा बह गया था। क्या हम इन आपदाओं से कुछ सीखने को तैयार हैं। वे प्रकृति को दोष देना ठीक नहीं मानते।
मौजूदा हालात
राज्य आपातकालीन परिचालन केंद्र, देहरादून के मुताबिक उत्तरकाशी के माकुरी गांव में 5 लोग मारे गए और एक व्यक्ति लापता है। टिकोची गांव में एक व्यक्ति की मौत हुई है और दो लोग घायल हुए हैं। आराकोट गांव में 6 लोग मारे गए हैं, एक लापता है और 3 घायल हैं। देहरादून से तीन डॉक्टर आराकोट गांव भेजे गए हैं। स्वास्थ्य विभाग की टीमें गांवों और राहत शिविरों में मौजूद हैं। साथ ही पशु चिकित्सा अधिकारी भी आराकोट में मौजूद हैं। पपेयजल व्यवस्था भी बहाल हो गई है। कुछ गांवों में टैंकरों के ज़रिये पानी पहुंचाया जा रहा है। आराकोट गांव में एक वायरलेस सैट भी स्थापित किया गया है। प्रभावित क्षेत्र के दस बंद मार्गों में से 2 मार्ग यातायात के लिए खोल दिये गये हैं। मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने मंगलवार को आराकोट, त्यूणी और मौरी के आपदा ग्रस्त क्षेत्रों का जायजा लिया। साथ ही देहरादून में सचिवालय स्थित आपदा प्रबन्धन केन्द्र का भी निरीक्षण कर व्यवस्थाएं देखी। उन्होंने अधिकारियों को निर्देश दिये कि आपदा के सम्बन्ध मे सभी जनपदों से प्रभावी समन्वय बनाये रखा जाय।
इसी समय टिहरी बांध का बढ़ता जलस्तर भी चिंता बढ़ा रहा है। बांध में पानी 814.60 मीटर तक पहुंच गया है। जबकि बांध का अधिकतम जलस्तर सीमा 830 मीटर है।
इसके साथ ही हम ये शुक्र मना सकते हैं कि हमने अगस्त का तीसरा हफ्ता पार कर लिया है। बारिश रुकेगी तो जनजीवन अपने आप पटरी पर लौट आएगा। बारिश से उपजी आपदा ने जो नुकसान किया है, मुआवजे के मरहम से उसे कुछ कम कर दिया जाएगा। उत्तरकाशी के जिन घरों में मलबा घुसा, उसे लोग जैसे-तैसे निकाल लेंगे और फिर उसे रहने लायक बना देंगे। जिनके घर बह गए, वे अपने लिए उसी जगह नया आशियाना बनाएंगे, या फिर पलायन के बारे में सोचेंगे। चमोली, उत्तरकाशी, कोटद्वार, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा इस वर्ष बारिश के विक्टिम बने। कई-कई गांवों के कई-कई घर इस बारिश में तबाह हुए। ऐसा हर बार ही होता है। लेकिने इन आपदाओं के सबक क्या हैं?
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