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यूपी चुनाव: पूर्वी क्षेत्र में विकल्पों की तलाश में दलित

दलित आम तौर पर ऐसे मूक मतदाता माने जाते हैं, जो अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं का आसानी से इज़हार नहीं करते। हालांकि, इस चुनाव को नज़दीक से देखने पर इस बात के साफ़ संकेत मिल जाते हैं कि उनका झुकाव बसपा और भाजपा से परे है।

musahar
अपने परिवार और साथी ग्रामीणों के साथ लीला

कुशीनगर/वाराणसी: मुसहर जाति से आनी वाली 45 साल की लीला ख़तरनाक़ रूप से ख़ून की कमी और कुपोषण की शिकार हैं। वसा की कमी के कारण उनकी चमड़ी की लोच और उनके वज़न में कमी आ गयी है। इससे उनके शरीर पर झुर्रियां इस क़दर उभर आयी हैं कि मानों वह 70 साल से ऊपर की उम्र की हो। वह कहती हैं कि पिछली रात वह बिना खाना खाये इसलिए सो गयी थीं, क्योंकि घर में खाना बनाने के लिए कुछ था ही नहीं।

ऐसा नहीं कि यही इकलौती रात रही हो, जब उन्हें बिना खाना खाये बिस्तर पर जाना पड़ा हो। कुशीनगर ज़िले के बाहरी इलाक़े में सामाजिक रूप से बहिष्कृत लोगों के लिए बनी इस मुसहर बस्ती में रहने वाले तक़रीबन 46 परिवारों के लिए दिन में कम से कम दो बार के खाने का मिल जाना किसी सुखकर स्थिति से कम नहीं है।

पूर्वी गंगा के मैदानी इलाक़ों और तराई में पाये जाने वाला मुसहर एक दलित समुदाय है। इन्हें वनवासी या वनों में रहने वालों के रूप में भी जाना जाता है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश भारत को आज़ादी मिले हुए 7साल हो चुके हैं। इसके बावजूदसभी के लिए इंसाफ़ अब भी दूर की कौड़ी है। ग़रीबी और निरक्षरता के मारे हुए बेबस लोग राजनीतिक के साथ धनबल और बाहुबल के तार के जुड़े होने के चलते इंसाफ़  से अक्सर वंचित रह जाते हैं।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस ज़िले के रोमकोला ब्लॉक के कुसुमा खास गांव के रहने वाले एक शख़्स अभी-अभी बने अधूरे पक्के घर में रहते हैं। यह घर उनके चार बेटों में से एक को क़रीब छह महीने पहले प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के तहत मिला है। प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) भारत सरकार का एक प्रमुख अभियान है,जिसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों के ग़रीब लोगों को पक्का घर बनाने के वास्ते 1.3 लाख रुपये दिये जाते हैं।

लीला को भी सरकार की ओर से छोटे-छोटे दो कमरों वाले घर मिले हैं। लेकिन, इसमें न तो छत है और न ही फ़र्श। रक़म के कम होने के चलते निर्माण कार्य को रोक दिया गया है। उन्हें नहीं पता कि इसके लिए कितनी राशि स्वीकृत की गयी थी।

उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, “प्रधान (निर्वाचित ग्राम प्रधान) ने हमारा आधार कार्ड ले लिया और हमारे घरों को मंज़ूरी दिलवा दीलेकिन हमें सरकार से मिली राशि के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उन्होंने ही यह निर्माण करवाया है।"

यह पूछे जाने पर कि क्या स्वीकृत राशि बैंक खातों में स्थानांतरित की गयी थीवह बताती हैं: "हम ग़रीब और अनपढ़ लोग हैं। हम इन सरकारी प्रक्रियाओं को नहीं जानते। आधार कार्ड जमा करने के कुछ दिनों बाद प्रधान हमें एक केंद्र में ले गये। उस केंद्र पर हमारे अंगूठे के निशान स्कैन कराये गये। प्रक्रिया पूरी होने के बाद हम वापस आ गये। हमें एक पैसा भी नहीं दिया गया। उन्होंने कहा कि प्रधान को पैसे मिल गये हैं और घरों का निर्माण करवा दिया।

इन दिनों बिना पढ़े लिखे लोगों के बैंक खाते एक ही व्यक्ति के नाम से उनके अंगूठे के निशान लेकर खोल दिये जाते हैं। ये खाते उनके आधार से जुड़े होते हैंजिसमें सभी बायोमेट्रिक विवरण होते हैं। नक़दी निकालने के लिए ग्राहकों को निजी तौर पर किसी शख़्स (आमतौर पर किसी क़रीबी रिश्तेदार या गांव के किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति) के साथ बैंक या निजी अधिकृत केंद्रों पर आना होता है। लाभार्थी के अंगूठे का निशान स्कैन किया जाता है। इससे उनके खाते से पैसे निकल जाते हैं।

लीला के पति को बतौर वृद्धावस्था पेंशन हर तीन महीने 1500 रुपये मिलते थेलेकिन उन्हें पिछले पांच साल से यह राशि नहीं मिली है।

इस बस्ती में रहने वालों को घोर ग़रीबी का सामना करना पड़ रहा है। इनके पास ज़मीन नहीं है। इन्हें मिलने वाली एकमात्र राहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत यूपी सरकार का मुफ़्त राशन है।इसके तहत जिनका नाम सार्वजनिक वितरण प्रणाली में दर्ज है,उन ग़रीब लोगों को प्रति व्यक्ति पांच किलोग्राम चावल और गेहूंएक किलोग्राम रिफ़ाइंड तेल, 1 किलोग्राम नमक मिलते हैं।

उन्होंने बताया कि उन्हें क़रीब 10 साल पहले पांच कट्ठा (लगभग 3,600 वर्ग फुट) के पट्टे (ज़मीन के काग़ज़) मिले थेलेकिन उन्हें कब्ज़ा आजतक नहीं मिल पाया।

उन्होंने आगे बताया, हमने पिछले तीन चुनावों में भाजपा को यह सोचकर वोट दिया था कि मोदीजी (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) और योगीजी (यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ) हमारे कल्याण के लिए कुछ करेंगेलेकिन इसके बदले में हमें क्या मिला, अधूरे घर और मुफ़्त राशन परिवारों को चलाने के लिए सिर्फ़ राशन ही काफ़ी नहीं है। हमें जीविका के लिए काम भी चाहिए।

गांव के ज़्यादातर लोगों के पास महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA), 2005 के तहत जारी किये जाने वाले जॉब कार्ड हैं। इसके तहत एक साल में 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी मिलती है।

सुगंती इसी गांव की रहने वाली हैं और उनके परिवार में 12 लोग हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें जो राशन मिलता है, वह 10-15 दिनों में ही खॉत्म हो जाता है।उन्होंने अपनी और साथी ग्रामीणों की पीड़ा का ज़िक्र करते हुए कहा "अगले 15 दिनों के लिए ज़िंदा रहना रोज़-ब-रोज़ की आय पर निर्भर करता है। अगर हमें काम मिलता हैतो हम खाते हैं। और अगर काम नहीं मिलता हैतो हमें भूखे सो जाना पड़ता है।"

उनके पास तीन कट्ठा (2,160 वर्ग फुट) ज़मीन  हैजिसे उन्होंने सालों की अपनी छोटी सी आमदनी से ख़रीदा है। उन्होंने कहा, "मैं गन्ना उगाती हूं। नक़दी पाने के लिए बहुत छोटी सी रक़म में किसी स्थानीय गुड़ निर्माता को बेच देती हूं। मैं परिवार को एक साल तक चलाने की ख़ातिर गेहूं और धान भी उगाती हूं।"

उनके चार बेटों और तीन बेटियों में से एक के पास ही सरकारी आवास योजना के तहत घर हैलेकिन वह भी आधा-अधूरा है। वह बताती हैं, "एक बार मैंने अपने प्रधान से हमें मिलने वाले पैसे को लेकर पूछताछ करने के लिए ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफ़िसर (जो इस घर के लिए सौंपे जाने वाले आवेदन को मंजूरी देने वाला पहला अधिकारी होता है) का नंबर देने के लिए कहा। इससे वह इतना नाराज़ हो गये कि उन्होंने मुझे डांटागाली दी और खदेड़ दिया।"

प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के पिंडरा ब्लॉक में अयार मुसहर बस्ती में अपने उजड़े-पुजड़े फूस के घर के बाहर कुछ पत्तों को अलग करने में व्यस्त शोभा वनवासी से जब न्यूज़क्लिक ने बातचीत की, तो उन्होंने कहा- "बड़ी परेशानी है साहब।"

शोभा वनवासी

उनके चार बेटे हैं, सबके सब दिहाड़ी मज़दूर हैं और महीने 10 दिन भी काम नहीं मिल पाता है। उन्होंने कहा, "वे बतौर मज़दूरी हर रोज़ 300 रुपये कमाते हैं। यह भी नियमित नहीं हैक्योंकि कोई काम ही नहीं है।"

उन्होंने बताया कि पूरे गांव ने हमेशा ही मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी (BSP) को वोट दिया है।

वह कहते हैं, वह तो हमारी नेता होने का दावा करती हैंलेकिन वास्तविकता यह है कि उन्होंने हमें सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहतर बनाने के लिए कुछ भी सार्थक नहीं किया है। उनकी इकलौती उपलब्धि नौकरशाही को क़ाबू में रखना था। पहले पुलिस अत्याचार और भेदभाव के सिलसिले में हमारी शिकायतें दर्ज करने से इनकार कर देती थी। लेकिन,उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रशासन ने हमारी बात सुननी शुरू कर दी थी।"

33 साल का बाबला कुमार दिहाड़ी मज़दूरी का काम करते हैं। दयनीय स्थिति का वर्णन करते हुए और प्रशासनसरकार और अपने प्रतिनिधियों की ओर से किये जा रहे बड़े-बड़े दावों का पर्दाफ़ाश करते हुए वह कहते हैं, "मुझे दो साल पहले मनरेगा जॉब कार्ड मिला था। लेकिन, जब गांव में एक खड़ंजे वाली सड़क का निर्माण किया जा रहा था,तो उसमें महज़ 10 दिनों के लिए काम मिला था। भुगतान का अब भी इंतज़ार है।"

एड़ी-चोटी की कोशिश करने और अधिकारियों को कथित रूप से रिश्वत देने के बाद उन्हें पिछले साल सरकार से एक कमरे वाले घर के निर्माण के लिए 1.3 लाख रुपये (निर्माण सामग्री के लिए 1.2 लाख रुपये और मनरेगा मज़दूरी के रूप में बतौर श्रम लागत 10 हज़ार रुपये) मिले थे। उन्होंने कहा, "हालांकि यह रक़म काफ़ी नहीं थीलेकिन इससे मुझे दो कमरों के घर के निर्माण में काफ़ी हद तक मदद मिसी। कुल ख़र्च तक़रीबन 2.5 लाख रुपये का था। मैंने अपनी सारी छोटी-छोटी बचत इस पर ख़र्च कर दी।"

अयार मुसहर बस्ती में 155 घर हैंजिनमें 55 परिवार रहते हैं।

40 पार की उम्र के बाबूलाल एक दिन में 300-400 रुपये कमाने के लिए एक ठेला चलाते हैं। उनका कहना है कि उन्हें काम मिलता है,मगर नियमित रूप से नहीं मिलता। अपनी हथेली पर खैनी मलते हुए वह कहते हैं, "कभियो लहलकभी नहियो लहल,यानी कि कभी काम मिलता है और कभी नहीं भी मिलता है।"

उनके पास भी चार लोगों के परिवार में एक कमरे का पक्का घर है। उनका इकलौता बेटा परिवार की आमदनी की ख़ातिर ईंट भट्ठे में काम करता है।

2020 और 2021 में कोरोना वायरस के फैलने से रोकने के लिए सरकार की ओर से लगाये गये दो लॉकडाउन के दौरान पूरे गांव के लोग भुखमरी के कगार पर थे।

सख़्त प्रतिबंध थेसभी आर्थिक गतिविधियां ठप थीं, बाज़ार बंद थे। हम तो दिहाड़ी मज़दूर हैं। काम की कमी के चलते हम भुखमरी के कगार पर हैं। एक एनजीओ हमारे बचाव में आया था। उसी ने महीनों तक सामुदायिक रसोई चलवायी थी और हमें दिन में तीन बार खाना मिल जाते थे,इतना उसने सुनिश्चित कर दिया था।"

सरकार के इस दावे के बारे में पूछे जाने पर कि सरकार ने लॉकडाउन में अच्छी तरह से प्रबंध किया था और उस मुश्किल दौर में लोगों की सभी तरह की मदद की थीउन्होंने कहा कि सरकार तो कहीं भी दिखायी ही नहीं दे रही थी।

उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा, "सरकार की मौजूदगी सिर्फ़ उन सड़कों पर महसूस की गयी, जहां पुलिसकर्मियों को लोगों की बात सुने बिना ही उनकी पिटाई करने के लिए तैनात किया गया था।"

एक पेड़ के नीचे हमारी बातचीत को सुन रही एक 70 साल की कृषकाय महिला-बुद्धा ने हमें टोकते हुए कहा कि ज़्यादातर ग्रामीण जिन घरों में रह रहे हैंवे अपने परिवार के लोगों को अंटा पाने के लिहाज़ से नाकाफ़ी हैं।

उन्होंने हमें बताया, हमनी के खेती बारी नाहींएको बिस्वा जमीन नहीं बा। एके घर बा साहिबओही में बेटापतोह रहत बा। ओह में हीत नात आ जात हैत ओ भी रहत हैं(हमारी कोई खेती-बाड़ी नहीं है, क्योंकि हमारे पास एक बिस्वा (एक कट्ठा या 126.44 वर्ग मीटर) ज़मीन भी नहीं है। हमारे पास एकमात्र संपत्ति वह छोटा सा घर है, जिसमें हमहमारा बेटा और हमारी बहू रहते हैं। अगर मेहमान आ जाते हैंतो वे भी वहीं रह जाते हैं।"

दलित वोट किस तरफ़?

दलितों को आमतौर पर मूक मतदाता माना जाता है। आम तौर पर वे अपनी राजनीतिक पसंद को आसानी से नहीं बताते हैं।

शोभा ने कहा,"जे आयींप्रचार करिनगांव में बैठक होईओकरा बाद लोगन निर्णय लिहन कि केकरा के वोट देवल जाई (अगर उम्मीदवार या उनके प्रतिनिधि यहां प्रचार के लिए आते हैंतो इस बात पर एक आम सहमति बनाने के लिए एक बैठक आयोजित की जायेगी कि किसे वोट देना है) ।"

न्यूज़क्लिक ने इन दो ज़िलों के जिन तीन बस्तियों के दौरे कियेउन सभी बस्तियों के लोग जवाब देने से बच रहे और चल रहे चुनावों में अपनी राजनीतिक पसंद का ख़ुलासा करने से कतराते रहे।

उनमें से कई लोग तो यहां तक कह गये कि वे भाजपा को ही वोट देंगे, क्योंकि वे उस पार्टी के साथ "नमक हरामी" (विश्वासघात या बेवफ़ाई) नहीं कर सकतेजिसने उन्हें मुफ़्त राशन दिया है। लेकिन, जैसे ही उन्हें भरोसे में लिया गया, उन्होंने यह ख़ुलासा करना शुरू कर दिया कि उनका वोट तो बसपा को जायेगा।

वाराणसी के दलित अधिकार कार्यकर्ताराजनीतिक विचारक और सामाजिक उद्यमी लेनिन रघुवंशी ने इस स्पष्ट रणनीति के संदर्भ के बारे में बताया।

उन्होंने इस संदर्भ को कुछ इस तरह समझाया, “यह समुदाय अब भी उत्पीड़ित है। चूंकि आम तौर पर इनकी बस्तियां 'उच्चजाति के लोगों से घिरी होती हैंइसलिए वे उनके असर में रहते हैं। संभावित नतीजे और उत्पीड़न के डर से वे या तो इसे लेकर चुप रहना पसंद करते हैं कि वे किसे वोट देने जा रहे हैंया फिर वे उस पार्टी के पक्ष में अपनी आवाज़ उठा देते हैं, जिसे ज़्यादतर इलाक़े का समर्थन हासिल है।"

उन्होंने कहा कि हक़ीक़त तो यही है कि उनका वोट उस पार्टी के पक्ष में जायेगा, जिसे बसपा चाहती है कि वह उन्हें अपना वोट दें। उन्होंने आगे बताया, ''अगर किसी ख़ास निर्वाचन क्षेत्र से बसपा का उम्मीदवार चुनाव में है, तो दलितख़ासकर जाटव और मुसहर तहे दिल से पार्टी का समर्थन करेंगे और अगर ऐसा नहीं है, तो उनके वोट भाजपासमाजवादी पार्टी (सपा)बसपा और कांग्रेस के बीच बंट जायेंगे। इस चुनाव में एक बात तो पक्की है कि सपा काफ़ी हद तक भाजपा के दलित जनाधार को हथियाने में कामयाब रही है।

उनके मुताबिक़दो-तिहाई सीटों पर पहले ही हो चुके चुनावों में बसपा और कांग्रेस की गिनती न करके मतदान विश्लेषक पूरी तरह से ग़लत हैं।

उन्होंने कहा, "बसपा के वोट अब भी काफ़ी हद तक बरक़रार हैंऔर पार्टी अपने वोटों को उस पार्टी को हस्तांतरित कर पाने में सक्षम है, जिसे वह सत्ता में लाना चाहती है।"

जब उनसे दलितों के 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनावों में बसपा को छोड़ देने और भाजपा के पीछे लामबंद होने की वजह पूछी गयी, तो उन्होंने कहा: "दलितों को एक ऐसे समुदाय के रूप में माना जाता हैजिसकी स्थिति एक ही तरह की है,लेकिन यह सच नहीं है। समुदाय के भीतर भी एक अंदरूनी फ़ासला है। इनके भीतर भी बहिष्कृत तबक़े हैं। मसलनमुसहरडोम (मैला ढोने वाले) और वाल्मीकि के साथ बड़े दलित समुदाय भेदभाव बरतते हैं। जाटव और दूसरे दलित समुदाय इन दो जाति समूहों में अपने बेटे या बेटी की शादी नहीं करते हैं।"

उन्होंने आगे बताया, "विपक्ष की भूमिका इस पूरे समुदाय की सामाजिक जागरूकता में शामिल होने की थी। उनकी ज़िम्मेदारी थी कि समाज की मुख्यधारा में लाकर इस खाई को पाटें।लेकिन, दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआऔर शूद्र और अतिशूद्र के बीच की खाई इस हद तक चौड़ी होती गयी कि जाटवों को छोड़करज़्यादतर दलित समुदाय भगवा पार्टी के पक्ष में चले गये।

उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय लोक दल (RLD) राज्य की चुनावी राजनीति में इस समुदाय की अहमियत को समझने वाली 'होशियार' पार्टी निकली। यही वजह है कि रालोद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलग-अलग ज़िलों में संवाद की एक श्रृंखला आयोजित करके इस 'बहुजन' (जो आमतौर पर अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में जाने जाते हैं) तक अपनी पहुंच बनायी।” अपनी बात पूरी करते हुए वह कहते हैं, यह पहला मौक़ा था, जब जाट दलितों के साथ सौहार्दपूर्ण माहौल में बिना किसी भेदभाव के संवाद कर रहे थे। इसका नतीजा एक नये राजनीतिक समीकरण के रूप में सामने आया, जिसका असर निश्चित ही रूप से 10 मार्च (यूपी चुनाव के नतीजे वाले दिन) को देखने को मिलेगा।            

अयर गांव के प्रधान राजेंद्र प्रसाद मौर्य का भी लगभग ऐसा ही मानना है। उन्होंने कहा कि बसपा के संस्थापक दिवंगत कांशीराम ने दलितों के सामाजिक और राजनीतिक जागरण का जो आंदोलन चलाया था, वह लंबे समय से नदारद है, क्योंकि मायावती उनकी विरासत को आगे बढ़ा पाने में नाकाम रही हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि बहनजी (बसपा प्रमुख मायावती) ने एक सूत्रीय एजेंडे पर काम किया है और वह एजेंडा यह है कि पार्टी के टिकट को लाखों या करोड़ में बेचना और पैसे कमाना।

राजेंद्र प्रसाद मौर्य ने बताया, "उन्होंने दलितों का सिर्फ़ फ़ायदा उठायालेकिन उनके सामाजिकआर्थिक और शैक्षिक उत्थान के लिए कुछ ख़ास नहीं किया। इसलिएकई दलित समुदायों ने बसपा से ख़ुद को दूर करना शुरू कर दिया और फिर उस भाजपा के क़रीब चले गयेजो कई लोगों के लिए उम्मीद की किरण बनकर उभरी थीक्योंकि इस पार्टी ने राज्य पर शासन तो किया थालेकिन बसपा और सपा की तरह लंबे समय तक शासन में नहीं रही थी। लेकिन, भाजपा ने उन्हें आरक्षण से वंचित करने और उन पर बहुसंख्यकवाद थोपने की कोशिश की है, इसलिए यह समुदाय ख़ुद को छला हुआ महसूस करता है।"

यही वजह है कि मौर्य इस बात की भविष्यवाणी करते हैं कि इस समुदाय का एक बड़ा तबक़ा, ख़ासकर शिक्षित वर्ग कम से कम राज्य के पूर्वी क्षेत्र में भाजपा के ख़िलाफ़ मतदान करेगा। उन्होंने कहा, "लेकिन ऐसे किसी भी बाहरी आदमी के लिए भीतर ही भीतर चल रही इस लहर को समझ पाना आसान नहीं हैजो समुदाय को अच्छी तरह से नहीं समझता, क्योंकि मतदाताओं का यह तबक़ा मुखर नहीं है और चुपचाप मतदान करना पसंद करता है।

भेदभाव और अत्याचारों का सामना करने के बावजूद दलितों ने पारंपरिक रूप से देश के उच्च और सामंती तबक़ों के साथ अपनी निकटता बनाये रखी है।

सवाल है कि इसके पीछे की वजह क्या है,इसका जवाब अयर गांव के ही रहने वाले विजय भारती बताते हैं।वह कहते हैं कि यह भेदभाव तब शुरू हुआ, जब आर्यों ने वह वर्ण व्यवस्था (ब्राह्मणवादी विचारधारा पर आधारित एक जाति व्यवस्था) बनायीजहां दलितों (जिन्हें जाति पदानुक्रम में शूद्र कहा जाता है) को सबसे नीचे रखा गया।

वह इतिहास में उतरते हुए कहते हैं: "इस सामाजिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ सामने आने वाले बौद्ध आंदोलन ने जाति पदानुक्रम को ख़त्म कर दिया और दलितों को मुक्त कर दिया। लेकिन, बृहद्रथ मौर्य (मौर्य साम्राज्य का अंतिम शासक, जिसने 187 से 184 ईसा पूर्व तक शासन किया था) के आर्य अधिनस्थ सेनापतिपुष्यमित्र ने शासन पर कब्ज़ा कर लिया और शुंग साम्राज्य की स्थापना की। बृहद्रथ की हत्या के बाद एक ज़बरदस्त नरसंहार हुआ और आर्यों ने अपनी राजधानी अयोध्या में स्थानांतरित कर दिया। उस समय समाज क़रीब 6,500 जाति समूहों में विभाजित थाऔर दलितों को शासन करने वाली उच्च जातियों का ग़ुलाम बना दिया गया था। कोई चारा नहीं होने के चलते दलित उन्हीं अगड़ी जातियों के क़रीब चले गये, क्योंकि उन्होंने देश के संसाधनों पर कब्ज़ा किया हुआ था। दुर्भाग्य से वह सिलसिला आज भी जारी है।"

वाराणसी के हरहुआ प्रखंड के शिवरामपुर गांव के रहने वाले और ख़ुद ही दलित समुदाय से आने वाले शोभनाथ का कहना है कि हाल ही में इस समुदाय के "हिंदूकरण" का यही कारण है। उन्होंने कहा, "परंपरागत रूप से दलित हिंदू नहीं हैं। हम प्रकृति की पूजा करने वाले स्वदेशी लोग हैं। हमारे समुदाय को व्यवस्थित रूप से हिंदू बनाया गया था और भारत के अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ यह कहकर नफ़रत से भर दिया गया कि हिंदू ख़तरे में हैं।"     

भारती ने बीच में टोकते हुए कहा कि संत रविदासकबीर दास (रहस्यवादी कवि और भक्ति आंदोलन के संत)सावित्रीबाई फुले (महाराष्ट्र की समाज सुधारकशिक्षाविद और कवि)छत्रपति शिवाजी महाराज (शासक और भोंसले मराठा वंश के सदस्य)साहूजी महाराज (मराठा साम्राज्य के पांचवें शासक, जो अपने शासन के दौरान कई प्रगतिशील नीतियों से जुड़े थे) आदि जैसे महान लोगों ने दलितों के लिए लड़ाई लड़ी थी और उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने की कोशिश की थी।

रोज़-रोज़ अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे दलित ग्रामीणोंउनसे जुड़े शिक्षित तबक़ों और बुद्धिजीवियों के साथ बातचीत के बाद यह बात पूरी तरह सामने आ जाती है कि भाजपा का यह ठोस आधार ख़त्म हो गया हैऔर इस समुदाय के वोट का बसपासपा के बीच विभाजित होना तय है।

चुनाव पर नज़र रखने वाले लोगों का मानना है कि अगर ऐसा होता हैतो यह सपा के पक्ष में जायेगा और उस भगवा पार्टी के लिए चिंता का विषय होगाजिसने 2017 में दलित और ओबीसी वोटों को अपने पक्ष में मज़बूती से लामबंद करने के कारण प्रचंड जीत दर्ज की थी।

भेदभाव के क़िस्से

यह समुदाय हर दिन जिस भेदभाव का सामना करता हैउसका वर्णन करते हुए सुगंती कहती हैं, "हम सदियों से सताये हुए लोग हैं।

वह अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं, हमें उच्च जाति के लोगों के घरों में प्रवेश करने और उनके बर्तनों को छूने की इजाज़त इसलिए नहीं है, क्योंकि हमें अशुभ (अशुद्ध) माना जाता है। चूंकि हम अछूत हैंइसलिए हमें दूर से ही भोजन और अनाज इस तरह दिया जाता है,मानों कि हम इंसान ही नहीं हों। क्या यह अजीब बात नहीं है कि वही लोग हमें फ़सल बोने और काटने के लिए काम पर लगाते हैं, क्योंकि हम सस्ते मज़दूर हैंहम जिस अनाज को खेतों में छूते हैंउसे खाने से वे नहीं हिचकिचाते।"

लीला ने कहा कि छुआछूत से उन्हें पीड़ा होती है। वह सवाल करती हैं, "ख़ून एकशरीर एकफिर ये भेदभव क्यों?"

यह पूछते हुए कि क्या वे जानवरों से भी बदतर हैंवह कहती हैं, "उनके नफ़रत के स्तर का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अगर कोई कुत्ता उनके बर्तनों को चाट जाता हैतो वह धोने के बाद इस्तेमाल कर लिया जाता है। लेकिन, अगर हम इसे छू देते हैंतो वे इसे फिर कभी इस्तेमाल नहीं करते।

वाराणसी की पिंडरा तहसील (उप-ज़िला) के पिंडरा गांव के रैतारा मुसहर बस्ती की रहने वाली मीरा वनवासी ने 11 बच्चों को जन्म दिया। लेकिन, कुपोषण के कारण इनमें से सात की जन्म के तुरंत बाद ही मौत हो गयी।

उनका आरोप है कि जब भी वह स्थानीय स्वास्थ्य केंद्रों में जाती थीं, तो स्वास्थ्य अधिकारी उसके साथ दुर्व्यवहार करते थे और उन्हें अपमानित किया जाता था। लेकिन, उन्होंने अपने हालात के चलते कभी इसका विरोध नहीं किया।

इस अपमान के चलते सरकारी स्वास्थ्य अधिकारियों पर से उनका भरोसा इस हद तक टूट गया कि वह फिर कभी सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं गयीं। उन्होंने घर पर ही अपने बच्चों को जन्म दिया और झोलाछाप डॉक्टरों से अपने बच्चों का इलाज करवाया।

उत्तर प्रदेश में तक़रीबन 2.6 लाख मुसहर हैं। उनमें से 97 प्रतिशत घोर ग़रीबी में गांवों में ही रहते हैं। जहां अनुसूचित जाति समुदाय में 51% साक्षरता हैवहीं मुसहरों में यह साक्षरता दर महज़ 19% ही है।

अनुसूचित जाति (SC) में प्राथमिक श्रमिकों के रूप में काम करने वाली आबादी का 60.3% हैमुसहरों की हिस्सेदारी 44.1% है। अनुसूचित जाति की कुल कामकाजी आबादी के 39.7% सीमांत किसानों के मुक़ाबलेमुसहर की यह आबादी 55.9% है।

अनुसूचित जातियों में मुख्य कामगारों में से 37.9% और सीमांत श्रमिकों में से 60.8 प्रतिशत खेतिहर मज़दूर हैं। मुसहरों के लिए यह प्राथमिक श्रमिकों का 52.1% और सीमांत श्रमिकों का 61.3% है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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